कहानी: तुम सच कहती हो गौरैया..
-अभिरंजन कुमार-
दिल्ली में बरसात की एक शाम कंक्रीट के जंगल पर धीरे-धीरे उतरती हुई। शाम के धीरे-धीरे उतरने की बात सुनकर आप सोचेंगे कि यह शाम भी शायद निराला की संध्या-सुंदरी की भांति होगी।
जी नहीं …निराला की संध्या-सुंदरी धीरे-धीरे चलती तो है, लेकिन इसके पीछे तरुणाई का भारतीय मनोविज्ञान क्रियाशील है। उसमें एक शर्म है, एक संकोच है। एक सजगता और एक सतर्कता है। अधिक तेज चलने पर शैतान हवाएं बार-बार उसका आंचल उड़ाने का प्रयास करेंगी, बार-बार उसका घूंघट उठाकर उसका मुखड़ा चूमेंगी। सबके सामने उसके गालों से होली खेलेंगी, सबके सामने उसके बालों को सहलाएंगी …पर यहां दिल्ली में शर्म-संकोच, आंचल-घूंघट आदि की अवधारणाएं तो लुप्तप्राय हैं। इसलिए यहां की शाम भी ऐसी नहीं हो सकती। वह तो आती है नीरस-सी, उसके अधर मधुर-मधुर नहीं हैं। वह अलसता की लता और कोमलता की कली-सी भी नहीं है। वह निराला की संध्या की तरह नीरवता के कंधों पर बांह डाले हुए नहीं आती।
वह तो आती है और भी शोर बढ़ाती हुई गली-गली, तमाम सड़कों पर। वह शांत सरोवर पर कमलिनी-दल में या सौंदर्य-गर्विता सरिता के विस्तृत वक्षस्थल में या हिमगिरि के अटल-अचल गंभीर शिखरों पर नहीं सोया करती, बल्कि वह तो बड़ी-बड़ी इमारतों और होटलों की भव्यता पर सोने वाली है।
पिछले दिनों प्रगति मैदान में एक अंतर्राष्ट्रीय मेला लगा हुआ था। इसे ही देखने आया एक कवि मथुरा रोड और मैदान के प्रवेश द्वार के बीच बने पैदल पथ पर खड़ा हो गया। वह अपने गांव में हर रोज अपने खेत की पतली-सी मेड़ पर खड़ा होकर शाम के सूरज द्वारा अपनी प्रियतमा पश्चिम दिशा के गालों पर अनुराग की लालिमा बिखराए जाते हुए टुकुर-टुकुर देखा करता था। उसे लगता था कि पश्चिम दिशा बार-बार अपनी गीली आंखों से सूरज को मनाने का प्रयास करती है- ऐ …ऐ सूरज! देखो न, तुम्हीं तो मेरे माथे पर लाल-लाल बिंदिया बनकर सुशोभित हो। तुम्हीं ने तो मेरी मांग को सजाया है, तुम्हीं तो मेरी आंखों में भावुकता का गीलापन हो, तुम्हीं तो मेरे अधरों की मुस्कान हो। सूरज, मैं तुम्हारे बगैर कैसे रह पाऊंगी? मुझे छोड़कर मत जाओ न सूरज! …सूरज …सूरज!!
लेकिन सूरज कल फिर आने का वादा करता हुआ पश्चिम दिशा के माथे पर अंतिम चुंबन अंकित करता है। इस पर वह भी निराश होती हुई धीरे-धीरे अंधेरे में डूबने लगती है। कवि सोचता था कि सूरज भी कम प्यार नहीं करता पश्चिम को। रात भर की जुदाई झेलने के पश्चात बेचैन-सा वह हर रोज पूरब से चलकर एक बहुत ही लंबी दूरी तय करते हुए पश्चिम से मिलने आता है। रास्ते में वह कितना प्रखर होता है, किंतु पश्चिम के करीब पहुंचते-पहुंचते उसका सारा ताप, सारा अहं अनुराग के अक्षत और प्रेम की शीतलता से विगलित होने लगता है। और अंततः कितनी आसक्ति से समेट लेता है वह पश्चिम को अपनी बाहों में! सूरज और पश्चिम का ऐसा प्रणय-दृश्य देखकर कवि के रोम-रोम बज उठते थे, मन में अनेक सितार एक साथ झंकृत हो उठते थे। वह भी अपने ख्वाबों में एक प्रियतमा को सजाने लगता था और अनेकानेक सपने बुनता हुआ बिल्कुल गीला-गीला हृदय, बिल्कुल गीली-गीली आंखें लेकर अपने गांव की पगडंडियों पर धीरे-धीरे टहलने लगता था।
वह वहां भी सूरज और पश्चिम का प्यार देखना चाहता था। सचमुच ही कवि बहुत भोले होते हैं। आखिर यह कैसे संभव था यहां पर? यहां तो ऐसा प्रतीत होता था, जैसे आकाश को पीलिया मार गया हो। उसने निगाह उठाई, लेकिन राह में कंक्रीट के जंगल आ गए। …उनका प्यार चल रहा होगा इस जंगल के उस पार कहीं दूर क्षितिज पर – इस ख्याल से कवि व्यग्र हो उठा। वह निगाहों से ही छेद देना चाहता था इस जंगल को, पर असहाय था वह! वह देख सकता था केवल इस जंगल को, सड़क से गुजरती हुई बसों, कारों, दुपहियों को! सुन सकता था केवल शोर! सूंघ सकता था केवल धुआं …केवल प्रदूषण!
अब तो बस तनिक एकांत की तलाश थी उसे। लेकिन हर तरफ से प्रवेश-द्वार की ओर बढ़ते लोगों की उमड़ती भीड़ उसकी इस तलाश को धकियाते हुए बढ़ी जा रही थी। जैसे नदियों में पिछली लहरें अपनी अगली लहरों पर चढ़ती, उठती और गिरती हुई उसके अस्तित्व को महत्वहीन करती हुई, उसे रौंदती-मसलती हुई बढ़ती चली जाती है, ठीक वैसे ही इस भीड़ में हर पीछे वाला अपने आगे वालों को धक्का देते हुए, उन्हें कीड़े-मकौड़ों की तरह रौंदते-मसलते हुए उन्हें एक तरफ करते हुए, उनके अस्तित्व को नकारते हुए आगे बढ़ जाना चाहता था। कवि भीड़ के इस चरित्र से मायूस हो गया। सोचने लगा कि दुनिया में हर जगह यही तो होता है। लोग अपनी जगह बनाने के लिए औरों को वंचित कर देते हैं। बात सिर्फ जगह बनाने तक भी सीमित हो, तो इसे क्षम्य मान सकते हैं, लेकिन लोग खुद आकाश में उड़ने के लिए औरों के पैरों-तले से जमीन तक क्यों खींच लेते हैं?
कवि इस भीड़ में खुद को बहुत असहज महसूस कर रहा था। वह वहीं पर खड़ा इधर-उधर ताकने लगा। शायद कोई अपना मिल जाए, जिससे जी भरकर बातें की जा सकें। खट्टी-मीठी, गम-खुशी, आंसू-मुस्कान, दर्द-पुलक …सब कुछ जिसके सामने खोलकर रखा जा सके। तभी उसे ऊपर …बहुत ऊपर आसमान से गौरैयों का झुंड जाता दिखाई दिया। …अरे वाह! यह तो प्यारी-प्यारी गौरैयों का झुंड है। हां …जिनसे वह गांव में अपनी छत पर बैठा-बैठा घंटों बतियाता रहता था। उसकी मां हर रोज छत पर गेहूं या धान के दाने बिखेर जाती थी। गौरैया दाने खाती थी और गाने सुनाती थी। कवि भाव-विभोर हो उठता था।
बस फिर क्या था! कवि ने छलांग दी। उड़ चला – आसमान में! तेजी से तैरता हुआ, हाथ-पांव मारता हुआ वह गौरैयों के झुंड में शामिल हो गया। उसे देखकर सभी गौरैया एक साथ चहचहा उठीं। उन्होंने सोचा कि कवि अब जेब से निकालकर उन्हें गेहूं या धान के दाने देगा। लेकिन कवि को तनिक उदास देख वे सब कुछ समझ गईं। थोड़ी देर तक आसमान में मौन छाया रहा। अंततः गौरैयों ने ही मौन भंग किया- ऐ कवि, तुम चुप क्यों हो? क्या तुम हमें देखकर आज कविताएं नहीं लिखोगे? क्या तुमने गांव छोड़ दिया? …कविऽऽ …कवि …ऐऽऽ कवि! कहते-कहते गौरैया फफक पड़ीं। कवि भी रो पड़ा। पर अपने आंसू छिपाने का प्रयास करते हुए बोला- प्रिये, क्या तुम लोग गांव जा रही हो? …मेरी मां से कहना कि तुम्हारा बेटा बिल्कुल ठीक है। …अं ऽ …बिलकुल ठीक है। और हां …बहुत खुश रहता है दिल्ली में। कभी नहीं रोता! लेकिन …ऐ …ऐऽऽ गौरैयों तुम क्यों रो रही हो? अं ऽ …मुझे नहीं बताओगी? कहते-कहते कवि बर्दाश्त नहीं कर सका और फिर रो पड़ा। कवि और गौरैया — दोनों एक-दूसरे का दर्द समझ चुके थे। उनके कंठ अवरुद्ध हो रहे थे। काफी देर तक वे सभी चुपचाप उड़ते रहे।
कवि ने नीचे प्रगति मैदान में देखा। इतनी ऊंचाई से भीड़ उसे चींटियों की तरह रेंगती हुई दीख रही थी। कुछ आ रहे थे, कुछ जा रहे थे। कुछ इस मंडप में घुस रहे थे, कुछ उस मंडप से निकल रहे थे। जैसे चींटियां इस बिल से उस बिल में, उस बिल से किसी और बिल तक आ-जा रही हों। कवि ने गौरैयों से थोड़ा नीचे होकर उड़ने के लिए कहा ताकि सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे सके। गौरैयों ने कवि के साथ-साथ अपनी ऊंचाई कम कर ली।
कवि ने देखा – बड़े-बड़े मंडप, जैसे राजमहल हों! रोशनी – न जाने किन पर हंसती हुई! कवि ने देखे बड़े-बड़े पोस्टर्स, बैनर्स, होर्डिंग्स, बड़े-बड़े गुब्बारे! एैश्वर्य और वैभव का अद्भुत प्रदर्शन करने वाली एक से बढ़कर एक दुकानें। उन दुकानों पर खरीदारों से हंसती-बतियाती एक-से-एक लड़कियां! बॉय कट बाल, चेहरे पर क्रीम-पाउडर मल-मलकर पैदा की गई मादकता, होठों पर लाल-नीली-गुलाबी लिपिस्टिक, कानों और गले में आधुनिक फैशन के आभूषण, शरीर पर शर्ट, जिनसे आधा शरीर बाहर झांककर दर्शकों को खरीदार में बदलने का प्रयास करता हुआ।
एक बूढ़ी गौरैया बोली- लगता है, देश काफी तरक्की कर गया है। कवि उसके व्यंग्य को समझकर चुप ही रहा। उसके मस्तिष्क में एक तस्वीर उभर आई – पड़ोस के रमुआ की। रमुआ की मां बहुत गरीब थी। एक व्यक्ति ने उसके मन में उम्मीद जगाई कि वह उसके परिवार की मदद करेगा। उसने रमुआ का पालन-पोषण अच्छी तरह से करने का वादा करके उसकी मां से उसे ले लिया। मां ने तब सोचा था कि बेटा कहीं भी रहे, सुखी रहे। और क्या चाहिए उसे? पर …उस व्यक्ति ने धोखधड़ी की। रमुआ गलत हाथों में पड़ गया। उसका शोषण किया जाने लगा। परिणामतः वह कुपोषण का शिकार हो गया। उसके हाथ-पैर तुड़-मुड़ गए हैं। उसकी एक आंख छोटी, एक आंख बड़ी हो गई, मुंह भी टेढ़ा हो गया है। अब तो हकला-हकलाकर बोलता है रमुआ! कवि अचानक चीख पड़ा-
रमुआ विकलांग हो गया है। हां …हां …रमुआ विकलांग हो गया है। जी हां, रमुआ विकलांग हो गया है। कवि दहल उठा। कहीं उसके देश की हालत भी तो रमुआ जैसी ही नहीं हो गई है?
तभी कवि की निगाह एक बूढ़े पर पड़ी। फटे-चिथड़े और मैले-कुचैले कपड़ों से अधढंका वह बूढ़ा आंखों में शून्य भरकर लाठी टेकता हुआ आगे बढ़ा जा रहा है। उसके चेहरे पर अनगिनत झुर्रियां उसे सूखी हुई ककड़ी का सा रूप दे रही हैं। उसके साथ उसकी बहू और उसका नन्हा पोता है। बेटा साथ नहीं है। क्यों नहीं है, नहीं पता। हो सकता है, वह कभी बीमार पड़ा हो और दवाई के लिए पैसे नहीं जुटा पाए हों परिवार के लोग। हो सकता है, वह किसी कारखाने में आता करता हो और गैस टैंकर फट गया हो। हो सकता है, कभी किसी कोयला-खदान की आग में फंस गया हो वह! हो सकता है, उसके गांव में कभी बाढ़ आई हो, अकाल पड़ा हो या कभी हैजा, डेंगू या प्लेग फैल गया हो। कुछ भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि किसी दिन लड़ते-लड़ते उसने स्वयं ही जिंदगी से अपनी हार स्वीकार कर ली हो।
जो भी हो …उसी समय कुछ सजे-संवरे, साफ-सुथरे, अच्छे-अच्छे कपड़ों में खरगोश जैसे दिखते हुए कुछ बच्चों के हाथों में एक से बढ़कर एक सुंदर खिलौने देखकर बूढ़े का पोता जिद करने लगा कि उसे भी वैसे ही खिलौने चाहिए। वह रोने लगा। समझाने की सारी कोशिशें बेकार गईं। बच्चा रो रहा था और बूढ़ा बिल्कुल असहाय-सा हतप्रभ होकर लाठी के बल खड़ा था।
उधर, आसमान में कवि के साथ उड़ती गौरैयों में से एक नन्हीं गौरैया को भी भूख लग गई थी। वह रोने लगी। उसकी मां ने दुखी होकर कहा- बेटी, थोड़ी देर और सब्र करो। कुछ उपाय करती हूं। क्या करूं? यहां न तो कोई खेत है और न ही किसी छत पर दाने लेकर कोई हमारा इंतजार करता है। इतने बड़े मेले में भी हमारे लिए कुछ नहीं है।
इस पर नन्हीं गौरैया बीच में बात काटती हुई बोल पड़ी- मां, चलो न यहां से अपने भारत देश! वहां हम लोगों को कोई कष्ट नहीं होगा। बूढ़ी अम्मा अपने आंगन में दाने लेकर हमारा इंतजार कर रही होंगी। वहां इतनी भीड़ नहीं है, इतना शोर नहीं है, इतना प्रदूषण नहीं है। वहां हरे-भरे खेत हैं, झूमती-लहराती लताएं हैं, पेड़ हैं, पौधे हैं। वहां पश्चिम है, पूरब है, चांद है, सूरज है। वहां प्यार है, अनुराग है, प्रणय है, सुहाग है। अपना कवि है। वह अच्छी-अच्छी कविताएं लिखेगा। मैं उसे गाने सुनाऊंगी। हां मां, चलो न यहां से! चलो न! मां, यह भारत तो नहीं है न मां! …मां!!
यह सुनकर कवि धम्म से नीचे गिरा। उसने अचकचाकर इधर-उधर ताका- सचमुच! यह भारत तो नहीं है। हां …हमारे सपनों का भारत यह तो नहीं है …तुम सच कहती हो नन्हीं गौरैया! …हां, तुम सच कहती हो!!