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पुस्तक चर्चा : राष्ट्रकूट वंश-व्यवस्था तथा गहडवाल राठौड़ राजवंश के इतिहास का एक प्रमाणिक दस्तावेज..

पुस्तक चर्चा : राष्ट्रकूट वंश-व्यवस्था तथा गहडवाल राठौड़ राजवंश के इतिहास का एक प्रमाणिक दस्तावेज..

-शिव शंकर सिंह पारिजात-

यदि प्राचीन काल से लेकर मध्य और अर्वाचीन काल के भारतीय इतिहास का एक विहंगम अवलोकन किया जाय तो देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम, शौर्य तथा वीरता की दृष्टि से इसके अधिकांशत: पृष्ठ क्षत्रियों की स्वर्णिम गाथाओं से भरे पड़े हैं, और, क्षत्रियों की इन स्वर्णिम गाथाओं के अधिकांश पृष्ठ महान् राठौड़ जाति के बलिदानों से रंगे पड़े हैं। किंतु यह भी एक विडम्बना रही है कि विदेशी सत्ताओं के द्वारा लिखे गये इतिहास में देश की अस्मिता और रक्षा के लिये अप्रतिम बलिदान करनेवाले अनगिनत बलिदानियों, कौमों व जातियों की भूमिका का सम्यक आकलन नहीं किया गया है। कुं. रामकुमारसिंह राठौड़ द्वारा लिखित सद्य: प्रकाशित “राष्ट्रकूट वंश-व्यवस्था एवं गहड़वाल राठौड़ राजवंश का इतिहास” शीर्षक पुस्तक हमारे राष्ट्रीय इतिहास की इस कमी को पूरा करने का एक सार्थक प्रयास प्रतीत होता है।

पेशे से शिक्षण कार्य से जुड़े पुस्तक के लेखक राजकुमार सिंह राठौड़ साइंस के प्रोफेसर रहे हैं और प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं, किंतु उनकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विषयों में गहन रुचि रही है जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने बखूबी राठौड़ राजवंश के इतिहास को गहराई से उकेरा है। 96 पृष्ठों वाली तीन अध्यायों वाली इस किताब में जहां प्रथम अध्याय में सूर्यवंश और राठौड़ों के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डाला गया है, वहीं दूसरे अध्याय में कन्नौज पतन के बाद राजा जगपाल (जयपाल) और उनके बाद के काल का इतिहास, खोरगढ़ से रामपुर राज्य के राजाओं के राज्यारोहण की तालिका, गहड़वाल राठौड़ों के अन्य राज्य, रामपुर राजघराना, सूर्यकुल भगवान श्रीरामचन्द्र की वंशावली, जोधपुर और बीकानेर राज्य की स्थापना तथा राजपूतों के खापों की चर्चा है, तो तृतीय अध्याय में स्वतंत्रता संग्राम में रामपुर राज्य के योगदान, स्वतंत्रत भारत में राजपूत जाति के संगठन व आंदोलन, उनके राजनैतिक अवदान आदि प्रकाश डाला गया है जो अत्यंत रूचिकर, पठनीय और जानकारी पूर्ण है।

लेखक बड़े शोधपूर्ण ढंग से सूर्यवंश की चर्चा करते हुए कहते हैं कि भारत में जितने राजवंश हुए हैं उनमें यह सबसे लंबा है जिनकी वंशावली में 124 राजाओं के नाम आते हैं जिनमें से 93 ने महाभारत से पहले और 31 ने इसके पीछे राज्य किया। अंग्रेज लेखक बेण्टली का संदर्भ लेते हुए लेखक बताते हैं कि सूर्यवंश का आरंभ ई. पू. 2204 में होना निकलता है। मनु सूर्यवंश और चंद्रवंश दोनों के मूल पुरुष थे। सूर्यवंश उनके पुत्र इक्ष्वाकु से चला और चंद्रवंश उनकी बेटी इला से। अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र सूर्यवंशी श्रीराम अयोध्या के 64 वें राजा हुए थे।

राठौड़ों के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए समीक्ष्य पुस्तक में वर्णित है कि श्रीरामचन्द्र के बड़े पुत्र कुश के कुल में सुमित्र अयोध्या के अंतिम राजा हुए जिनके दो वंशजों – कूर्म और विश्वराज में कूर्म के वंशज ‘कछवाहे’ (कुशवाह) कहलाये जिनके उत्तर प्रदेश में रामपुर, गोपालपुरा, लहार, मछन्द आदि में, राजस्थान में आमेर (जयपुर) अलवर में ठिकाने हैं, जबकि विश्वराज के वंशधर ‘राष्ट्रवर’ थे जिनके नाम पर ये राठौड़ कहलाये। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार राठौड़ों के अयोध्या छूटने के बाद उन्होंने कन्नौज पर अधिकार कर लिया था जिससे स्पष्ट होता है कि महाराजा जयचन्द्र गाहड़वाल से बहुत पहले भी कन्नौज राठौड़ों के अधिकार में रहा है। राठौड़ों के गहड़वाल (गहरवार) नामकरण के बारे में विभिन्न मतों की मीमांसा करने के बाद कहा गया है कि ययाति के वंश में उनके छोटे पुत्र के वंशजों में देवदास ने काशी (बनारस) के आस-पास शासन किया। राजा देवदास शनि ग्रह से पीड़ित था जिसके दुष्प्रभावों को उन्होंने अपने उपक्रम से टाला। इसलिये वे ‘ग्रहवार’ अर्थात ग्रहों का निवारण करने वाला कहलाये जो बाद में अपभ्रंशित होकर ‘गहरवार’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

सामान्यत: जातीय इतिहास लेखन पर पूर्वाग्रह के आक्षेप लगाये जाते हैं। किंतु समीक्ष्य पुस्तक के लेखक रामकुमार सिंह राठौड़ ने विदेशियों द्वारा लिखित इतिहास, राजदरबारी भाटों द्वारा रचित पुस्तकें और जनश्रुतियों को आधार बनाकर तार्किक कसौटी पर कसकर राठौड़ों के इतिहास लेखन का काम किया है। इसके अलावा उन्होंने विस्तृत यात्रा कर विभिन्न राजवंशों के अभिलेखों व ताम्रपत्रों को भी खंगालने का काम किया है जो इस पुस्तक को विश्वसनीय बनाता है।

भारत के इतिहास में लगातार पांच सौ वर्षों तक अरबों के बर्बर आक्रमणों को अपने तलवार की ढाल और भालों की नोक पर झेलकर भारत की संस्कृति, अस्मिता और प्रजा की रक्षा करने वाले राजपूत जाति के इतिहास पर प्रकाश डालती यह पुस्तक न सिर्फ आम पाठक, वरन् शोधार्थियों के लिये भी उपयोगी होगी, ऐसी उम्मीद की जाती है।

(समीक्षक सूचना एवं जनसंपर्क के पूर्व उपनिदेशक एवं इतिहासकार हैं।)

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