सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की करुण-मार्मिक कविता ‘माँ की याद’…..
चींटियां अंडे उठाकर जा रही हैं,
और चींटियां नीड़ को चारा दबाए,
थान पर बछड़ा रंभाने लग गया है
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,
थाम आँचल, थका बालक रो उठा है,
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,
बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही है,
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए।
शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,
शोर, माँ की गोद जाने के लिए अब,
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,
शोर परियों की कहानी के लिए अब,
एक मैं ही हूँ – कि मेरी साँझ चुप है,
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,
एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।
साभार – राजकमल प्रकाशन
सियासी मियार की रीपोर्ट