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दशहरा (12 अक्तूबर) पर विशेष : वैश्विक कटुता मुक्ति का प्रेरक है विजयदशमी पर्व

दशहरा (12 अक्तूबर) पर विशेष : वैश्विक कटुता मुक्ति का प्रेरक है विजयदशमी पर्व

-राकेश कुमार वर्मा-.

विजयदशमी हमारे भीतर सुप्त सात चक्रों पर आसीन 9 उर्जा और बाहरी श‎‎क्ति नौगुना अ‎धिक आंत‎रिक क्षमता के बोध से प्रेरित विजय की अवधारणा है। इक्ष्वाकु का संबंध सनातन धर्म के ‎‎हिन्दू, जैन और बौद्ध पंथों के ‎जनक से ‎है जिसका शा‎ब्दिक अर्थ ईख से आता है। यह इक्ष्वाकु जैन धर्म में रिषभदेव बौद्ध में सुजाता जो 24 बुद्धों में 12वे बुद्ध से संबं‎धित हैं और ‎‎हिन्दू धर्म में रघुवंश के उद्भव से संबं‎धित है। ‎पितृपुरुष को लेकर पौमाच‎रिता, रामायण जैसे ‎‎विभिन्न आख्यान मानव जीवन के उत्कर्ष के प्रेरक रहे हैं। हमारी पंच ज्ञान और पंच कर्मे‎‎न्द्रियां को परा‎जित करने का प्रेरक है दशहरा। राम दशरथ की संतान है जो हमारे भीतर प्रस्फु‎टित आंत‎रिक क्षमता का प्रतीक है।ईख का संबंध अमृत तुल्य मधुरता से है ‎जो संस्कृ‎तियों के पोषक कामदेव के धनुष का प्रतीक है। काम से कलासृजन और कला से जीवनसाध्य की प्रा‎प्ति ही मोक्ष का कारक रही है। कामदेव हमें इच्छाओं और आकांक्षाओं के ‎लिए प्र‎रित करते हैं जब‎कि यमराज हमें दा‎‎यित्वबोध से। यमराज हमारे ‎‎‎ऋण का ‎हिसाब रखते हैं ‎‎जिन्हे चुकाने पर पुनर्जन्म होता है। इस‎लिए हम ‎‎ ‎ऋण से बंधे हैं और मोक्ष या मु‎क्ति का उद्देश्य ‎ ऋण से मुक्त होना है।
एक ओर जहां कलाओं का उन्नयन पर‎हित से संबं‎धित भोग से है तो दूसरा भोग से मुक्त परजीव के प्र‎ति करुणा से प्रे‎रित उपवास से। एक में यज्ञ की प्रधानता है तो दूसरे में त्याग की। सनातन का एक पंथ जहां उत्स अर्थात फीड पर विश्वास करता है तो दूसरा व्रत अर्थात फास्ट पर। एक में आत्मा की प्रमुखता है तो दूसरे में जीव के अ‎स्तित्व की। दशहरा इसी ‎चिन्तन से उत्पन्न जीवन दृ‎ष्टि को अध्यात्म से जोड़ता है। आज हम अ‎भिवादन स्वरुप राम-राम करते हैं ले‎किन उससे ‎प्रेरित कर्म का उत्तरदा‎‎यित्व नहीं लेते। इसकी अनुभूति राम की करुणा में ‎मिलती है जो सूर्यवंश से संबं‎धित होते हुए भी रामचन्द्र कहलाये। कहते हैं ‎कि सीता के साथ हुए व्यवहार से दु:खी राम ने कहा ‎कि जैसे सूर्य को ग्रहण लगता है वैसे ही सीता के ‎बिना उनके जीवन में लगे ग्रहण के कारण उन्होंने रामचन्द्र स्वीकार ‎किया।
मनुस्मृ‎ति अनुसार देवताओं ने राजाओं के रुप में इस‎लिए जन्म ‎लिया ता‎कि मत्स्य न्याय के ‎विपरीत समाज ‎निर्माण हो सके। राजनी‎ति में श‎कि्तशाली ‎विजय प्राप्त करता है जब‎कि राजधर्म में श‎‎क्तिहीन को भी संस्कृ‎ति में सम्मान ‎मिलता है। राजधर्म ‎में सिंहासन से अ‎धिक महत्वपूर्ण राज्य होता है जब‎कि राजनी‎ति में सत्ता की प्रधानता है। हिन्दू पुनरुत्थान के बावजूद राजनीतिज्ञ राजधर्म की इस अवधारणा को अस्वीकार करते हैं। चूंकी व्यवस्था श‎कि्तशाली लोगों के ‎लिए बनाई गई है इस‎लिए वे धनवानों की मदद करते हैं, जो गुप्त धन से राजनी‎तिक दलों की मदद करते हैं ता‎कि वे ‎बिना ‎किसी उत्तरदा‎यित्व के सत्तासुख प्राप्त कर सकें। जबकि राजधर्म से प्रे‎रित राजनी‎तिक इस प्रकार अ‎र्जित धन पर राजा नृग की तरह आचरण करते हैं। गौरतलब है ‎कि गौदान की गई गाय भागकर फिर पूर्व स्वामी की गौशाला में पहुंच गई और अज्ञानवश उसके पुनः दान एक राजा को चोरी के शापवश ‎छिपकली बनना पड़ा जिसे नृगधर्म कहते हैं, इस‎ परिप्रेक्ष्य में मतदाता की जागरूकता से अ‎धिक राजनीतिज्ञों को जवाबदेही के ‎प्रति जागरुकता की आवश्यकता है।
कबी‎लियाई, वर्ण, राजशाही और लोकतां‎त्रिक सभ्यता की यात्रा में मानवीय मूल्यों के मापदण्ड बदले हैं। जहॉं राजा के न्यायतंत्र से समाज संचा‎लित होता था वहीं लोकतंत्र के दौर में न्याय‎विद, ‎‎विज्ञ, राजनी‎तिक,‎विद्यार्थी वैज्ञा‎निक जैसे ‎विचार ‎विकल्पों की ‎विविधता है। इसने हमारी धर्म, अर्थ और कला को देखने की दृ‎ष्टि प्रभा‎वित की है। ईश्वर की सूक्ष्मता को आत्मबोध से उत्पन्न विचारों से साकार करने का स्थूल स्वरुप ‎मिला। इसने ‎दिगंबर और पैगम्बर ‎विचारों की धारणाओं को पुष्ट ‎किया। राम-रावण युद्ध की व्याख्या करते हुए तुलसीदास कहते हैं –
ईस भजनु सारथी सुजाना, ‎विर‎ति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बु‎द्धि स‎क्ति प्रचण्डा
वर ‎विग्यान क‎ठिन कोदण्डा।
अमल अचल मन त्रोण समाना, सम जम ‎नियम ‎सिलीमुख नाना।
कवच अमेर ‎विप्र गुरु पूजा,
ए‎हि सम ‎विजय उपाय न दूजा।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल ‎बिवेक दम पर‎हित घोरे, क्षमा कृपा समता रजु जोरे।
सखा धर्ममय अस रथ जाके जीतन कह न कतहु ‎रिपु ताके।
‎अर्थात् इस युद्ध में राम के अस्त्रों का वर्णन करते हुए तुलसीदास कहते हैं ‎कि ‎जिनका निर्मल और अचल मन तरकस के समान, शम(मन का वश में होना) अ‎हिंसा‎दि यम और शौचा‎दि ‎नियम समान विविध से बाण है। ब्राम्हण और गुरु का पूजन अभेष कवच है , इसके समान ‎विजय का दूसरा उपाय नहीं है। शौर्य और धैर्य उस रथ के प‎हिये हैं, सत्य और शील(सदाचार) उसकी ध्वजा तथा बल, ‎विवेक, दम (इं‎द्रियों का वश में होना) और परोपकार ये चार उसके घोड़े हैं जो क्षमा ,दया और समतारुपी डोरी से रथ में जुते हुए हैं।
इस प्रकार के युद्ध को हम अपने तरीके से प‎रिभा‎‎षित का ‎हिंसक व्याख्या करते रहें है जब‎कि उसके मूल में अनेक गढ़ रहस्य ‎छिपे हैं। इस संबंध में र‎विषेण र‎चित पद्मपुराण के 76वें पर्व में रावण की मृत्यु के बारे में बताया गया है।
जैन धर्म अनुसार 7129 वर्ष पूर्व केवली भगवान श्रीराम का जन्म मु‎नि सुव्रतनाथ तीर्थंकर के काल में हुआ था। राम, लक्ष्मण और रावण क्रम से आठवे बलभद्र, नारायण और प्र‎ति नारायण थे। बलभद्र और नारायण में असीम प्री‎ति जब‎कि नारायण और प्र‎तिनारायण में वैर होने के कारण लक्ष्मण रावण को और श्रीकृष्ण जरासंध का वध करके अर्द्ध चक्रवती बनते हैं। वस्तुत: अवतार की धारणा को अव-तरण से अनुभूति कर सकते हैं, जहां सर्व शक्ति संपन्न अनंत से सतह पर आकर गर्भस्थ होते हैं जिसे हम रामायण गीता जातक कथाओं से राम कृष्ण बुद्ध तीर्थंकर के अनुपम चरित्रों में देखते हैं। मानवीय कल्याण के ‎लिए रामायण एक परंपरा है जो पा‎रि‎स्थितिकी तंत्र को स्वीकारते हुए ‎नित नये प्र‎तिमान गढ़ती है
प्र‎तिवर्ष ‎निरंतर बुराइयों पर अच्छाई के ‎विजय प्रतीक दशहरा में ‎निरंतर वध के बाद रावण का अमरत्व के चलते आज ‎निजी महत्वकांक्षाओं के चलते रुस-यूक्रेन, इजराइल-हमास के युद्ध में ‎निर्दोष जनसमुदाय की ब‎लि दी जा रही है। क्या कभी ऐसा समय आयेगा जब अच्छाई के इस ‎विजय पर्व में ‎किसी की पराजय न हो। क्यों न हम ‎किसी को परा‎जित करने की बजाय उस बुराई (दोष) को समाप्त करने का आत्मावलोकन करें जो दहन पश्चात अपनी प्रत्येक ‎‎विषबेल छोड़ जाती है। क्यों ‎बुराई के प्रतीक रावण को आज प्रत्येक कदम पर ‎बिठा ‎दिया गया है? यह वही ‎ ‎बिन्दु है जहां से हम बुराई की जड़ ढू़ढ़ सकते हैं।

सियासी मियार की रीपोर्ट