दशहरा (12 अक्तूबर) पर विशेष : भगवान श्रीराम का अनासक्ति भाव…
-ब्रज बिहारी-
मानव किसी भी कार्य को आसक्ति भाव रखकर करता है, जबकि ईश्वर किसी भी कार्य को अनासक्ति भाव से करता है। यह स्वयं कोई इच्छा न रखकर भक्त की इच्छा का आदर करता है। इसी कारण जीव को कर्म का फल या कुफल भुगतना पड़ता है और ईश्वर कर्म फल के बन्धन से मुक्त रहता है। श्रीरामचन्द्र जी के अवतार में हम ईश्वर की इसी अनासक्ति भावना को पग-पर पर देखते हैं।
त्रेतायुग में पृथ्वी जब रावण, कुम्भकरण, मेघनाद आदि राक्षसों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रही थी उस समय यज्ञ, हवन, श्राद्ध, आदि शुभ कर्म करना मुश्किल हो गया था। राक्षस ऋषि-मुनियों का भरक्षण कर रहे थे तथा सभी देव पराजित होकर रावण के दरबार में हाथ जोड़े खड़े रहते थे।
पृथ्वी पर धर्म का नाश हो चुका था और अधर्म का बोलबाला हो गया था। कहीं भी शुभ आचरण नहीं हो सकता था। ऐसे समय में सभी देवताओं, ब्रह्मा तथा पृथ्वी की प्रार्थना- जय-जय सुरनायक जनसुखदायक पर द्रवित होकर भगावन विष्णु ने श्रीराम के रूप में धरती पर अवतार लिया।
ऋषि विश्वामित्र के आश्रम तथा आस-पास के क्षेत्र में राक्षसी ताड़का ने आतंक मचा रखा था। श्रीराम को उसके दुष्कृत्यों का ज्ञान था, परन्तु विश्वामित्र जी स्वयं चलकर राजा दशरथ के दरबार में श्रीराम और लक्ष्मण को मांगने आये। उनके कहने पर अनुज समेत देहु रघुनाथ, सुनकर भी श्री राम साथ जाने के लिए उत्सुक न हुये, परन्तु दशरथ जी द्वारा विश्वामित्र जी को सौंपे जाने पर आपने अनासक्ति भाव से जाना स्वीकार कर लिया। ताड़का के मिलने पर विश्वामित्र जी के आदेश पर श्री राम ने एक ही बाण से ताड़का का वध कर दिया।
विश्वामित्र जी के आश्रम की सुरक्षा के उपरांत श्रीराम, विश्वामित्र जी के आदेश पर अनासक्ति भाव से राजा जनक द्वारा रचित सीता स्वयंवर देखने चल पड़े। मार्ग में गौतम मुनि का आश्रम खाली देखकर श्री राम ने विश्वामित्र जी से इसका कारण पूछा। विश्वामित्र जी द्वारा सारा वृत्तान्त सुनकर तथा उनकी प्रार्थना पर कि –
गौतम नारि श्राप बस, उपसदेह धरि धीर।
चरण कमल रज चाहत, कृपा करहु रघुवीर।।
ऐसा सुनकर श्री राम ने अपने चरण स्पर्श कराकर अहिल्या का उद्धार किया।
इसी प्रकार सीता स्वयंवर में जब सभी राजा थक हार कर चले गये और कोई भी उस शिव धनुष को तिल भर भी न हिला सका। उस समय श्रीराम ने धनुष तोडऩे की कोई उत्सुकता या इच्छा नहीं दिखाई। यहां तक कि राजा जनक द्वारा वीर विहीन महि मैं जानी, कहने पर भी श्रीराम उत्तेजित या क्रोधित नहीं हुए अन्त में विश्वामित्र जी के आदेश पर आप निष्पृह भाव से उठकर धनुष की ओर चल पड़े और धनुष के पास जाकर खड़े हो गये। फिर जानकी जी की ओर देखा। उनकी आंखों में याचना भाव देखकर तथा मन ही मन उनकी प्रार्थना स्वीकार की। सुनकर श्रीराम धनुष को कैसे देखा- सिवहि विलोकि सकेऊ धनु कैसे, विहव गरूड लघु …. जैसे और फिर उसे …. काहु न लखा देख सब ठाटे। पल भर में तोड़ दिया।
जब दशरथ जी ने श्रीराम जी के राज्याभिषेक की घोषणा की तब श्रीराम को आश्चर्य हुआ कि सभी भाई एक साथ जन्में, साथ-साथ शिक्षा ग्रहण की फिर बड़े भाई को ही राजतिलक क्यों? यद्यपि श्रीराम जानते थे कि उनकी आवश्यकता वन में है न कि अयोध्या में। परन्तु श्रीराम ने न तो राज्याभिषेक में कोई उत्सुकता दिखाई और न वन गमन में। मां कैकेई द्वारा यह वरदान मांगने पर कि तापस वेग विसेषी उदासी, चौदह वरस रामु वनवासी। आपने कोई हर्ष या विषाद नहीं दिखाया और देवताओं की प्रार्थना तथा माता कैकेई के आदेश पर वन जाना स्वीकार कर लिया।
बचपन में श्रीराम ने मारीचि को बिना फल का वाण मारकर समुद्र तट पर फैंक दिया था, तब से वह भय के कारण रात-दिन राम का नाम स्मरण करता था। श्रीराम उसे मार कर मोक्ष देना चाहते थे। परन्तु श्रीराम ने ऐसी कोई इच्छा प्रदर्शित नहीं की। फिर रावण द्वारा प्रेरित स्वर्णमृग बनकर मोक्ष की कामना से जब वह पंचवटी तक स्वयं चलकर आया। पर श्री राम ने उसका वध करके परमधाम दिया।
बालि एक निरंकुश राजा था। वह महाबलशाली था। बल के गर्व में उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी का हरण कर लिया। इस अनीतिपूर्ण कार्य के लिए भगवान राम उसे दण्ड देना चाहते थे परन्तु उन्होंने ऐसी कोई इच्छा नहीं दर्शायी। जब उनकी सुग्रीव से मित्रता हुई तो सुग्रीव की प्रार्थना पर कि बंधु न होई मोर काला। आपने बालि का वध करके नीति की मर्यादा रखी। रावण ने माता सीता का अपहरण कर लिया और उन्हें अशोक वाटिका में रखकर तरह-तरह के कष्ट देने लगा।
फिर भी श्रीराम लंका पर आक्रमण नहीं करना चाहते थे। उन्होंने बार-बार दूत भेजकर अपनी उदारता एवं धैर्य का परिचय दिया, परन्तु माता-सीता की प्रार्थना- मन, क्रम, वचन चरन अनुरागी, केहि अपराध नाथ हौ त्यागी। तथा रावण के वचन- मास दिवस महुं कहा न माना, तौ मैं मारगि काढि़ कृपाना। पर विचार कर भगवान राम ने लंका पर आक्रमण किया। फिर जब रावण से उनका संग्राम हुआ तब भी वे चाहते थे कि शायद अब भी रावण में सद्बुद्धि आ जाये। वह अपने कर्मों पर पश्चाताप करके माता जानकी को सकुशल लौटा दे तो वह मृत्यु से बच जाय परन्तु उसके अत्याचार से हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा सुनकर तथा सुर समय जान कृपाल आपने …. श्रवण लागि, छाड़े सर एकतीस। मारकर आपने रावण को भी अपना परम धाम दिया।
वनवास की अवधि बीत जाने पर श्रीराम, सीता व लक्ष्मण सहित अयोध्या वापस आये। सारी अयोध्या में हर्ष की लहर दौड़ गयी। भरत जी के शरीर में तो प्राण ही लौट आये। अब न तो पिता के वचनों का भय था और माता कैकई के वरदान का। परन्तु श्रीराम ने अपने राज्याभिषेक में कोई रुचि नहीं दिखाई। अन्त में समस्त अयोध्यावासी और ब्राह्मणों के कहने पर कि अब मुनिवर विलंब न कीजै, महाराज कहं तिलक करीजे आपने राज्याभिषेक कराना स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार हम यह पाते हैं अपने अवतार में श्रीराम ने सारा जीवन अनासक्ति भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया।
सियासी मियार की रीपोर्ट