कविता : बूंदाबांदी…
रात की हल्की
बूंदाबांदी ने
फिजां को दिया निखार
पेड़ों पे पत्तों पे
दीवारों पे मकानों पे
जमीं धूल
घुल गई
सब कुछ हो गया
नया-नया
ऐसी बूंदाबांदी
मानव मन पे भी
हो जाती
जात-पांत
धर्म-मजहब
की जमी धूल
भी जाती धुल
आज की
फिजां की तरह
जर्रा-जर्रा जाता
निखर।
सियासी मियार की रीपोर्ट