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बलिया : नावानगर में भगवान परशुराम और आदिगुरु शंकराचार्य के विग्रहों की हुई प्राण-प्रतिष्ठा…

बलिया : नावानगर में भगवान परशुराम और आदिगुरु शंकराचार्य के विग्रहों की हुई प्राण-प्रतिष्ठा…

बलिया, 19 फरवरी । काशी स्थित सुमेरुपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती महाराज ने कहा कि भगवान विष्णु के छठवें अवतार भगवान परशुराम जी मानते थे कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है, ना कि अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना। वे नवानगर (शंकरपुर) में पं. शिवाशंकर चौबे द्वारा आयोजित भगवान परशुराम और आदिगुरु शंकराचार्य के विग्रहों के प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में श्रद्धालुओं को सम्बोधित कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि भगवान विष्णु के छठवें अवतार भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से इक्कीस बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। भगवान परशुराम धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिसमें कोंकण, गोवा और केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे ढकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। इसी कारण कोंकण, गोवा और केरल में भगवान परशुराम वंदनीय हैं। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु-पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल और समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे, लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। भगवान परशुराम केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं। वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है। कहा कि यह चौबे परिवार का परम सौभाग्य है कि ईश्वर ने भगवान परशुराम के साथ-साथ आदि गुरु शंकराचार्य भगवान के भी विग्रह के प्राण-प्रतिष्ठा के निमित्त इस परिवार को बनाया है।

इसके पहले शिवाशंकर चौबे ने सपत्नीक अपने सुपुत्र अभिनव चौबे और लालजी पाण्डेय के साथ शंकराचार्य जी महाराज का पूरे वैदिक विधि-विधान से पूजन किया। स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती जी महाराज ने आभार जताया।

शंकराचार्य ने कहा कि सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलियुग में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कलयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचना कर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षित कर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्र ग्रन्थों की संरचना कर, विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ, परकाय प्रवेश कर, नारद कुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकट कर तथा प्रस्थापित कर सुधन्वा सार्वभौम को राज सिंहासन समर्पित कर सप्ताम्नाय-सप्तपीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।

सियासी मीयार की रिपोर्ट