काला गुलाब…
सर्दियों में जब पाला पड़ता था और शरीर की हड्डियां तक सुन्न होने लगती थीं, धुन्ध के कारण पास खड़े व्यक्ति की शक्ल तक दिखायी नहीं देती थी, ऐसी सुबहों में वह गांव से पैदल चलकर कस्बे के हाई स्कूल में पढ़ने जाता था।
उसके गांव के लोग बहुत भोले थे। गांव में छत्तीस जातों की करीब साठ-सत्तर देहरियां रही होंगी। छोटा-सा गांव था सिकन्दरपुर। किसान भी और कमेरे भी, कुल मिलाकर साठ-सत्तर घरों का गांव। गांव था हिंडन नदी के किनारे। गांव के लोग नदी माई को हरनन्दी माई कहते थे। नदी के किनारे एक मन्दिर था-मन्दिर के नाम गांव की दस बीघा धरती थी। इस धरती की उपज धर्म के काम में लगती थी।
पूरा गांव एक परिवार की तरह था। यहां हर कोई एक-दूसरे से किसी-न-किसी रिश्ते में बंधा था। कोई किसी का ताऊ, कोई किसी का काका। कोई किसी का दादा, कोई पाता। गांव की हर लड़की पूरे गांव की लड़की थी और हर बहू पूरे गांव की इज्जत थी। किसी की जात-बिरादरी से इन रिश्तों का कोई सम्बन्ध नहीं था। रिश्ते अपनी जगह! जात-बिरादरी अपनी जगह! लोग सुबह दिन निकलने से पहले ही हल-बैल लेकर खेतों की ओर चल देते थे। दोपहर होते-होते घर से उनका खाना आ जाता था। एक बरौली में लस्सी और छह-सात मोटी-मोटी गोचनी या बेझर की रोटियां।
जब फसल पकती, तब उनके चेहरे की आभा देखने लायक होती थी। संध्या को जब वे चैपाल पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते तब वे दुनिया के सबसे सुखी व्यक्ति होते थे।
वे कपास उगाते थे पर उनके शरीर पर कपड़ा पूरा नहीं था। एक अधिया धोती और एक मोटा अधिया कुरता! बस, यही उनका पहनावा था। गांव में किसी एक-आध आदमी के पास कोई ढंग का कुर्ता-धोती होता था। लोग उसे ही मांग-तांग कर बारी-बारी से गांव गमीने करते रहते थे-पिछली बार तू गया था, इब के मैं जाऊंगा।
फसल पकती, वे बहुत खुश होते। स्त्रियां मंगलगीत गातीं। हुमकती-ठुमकती फसल काटती। वे त्योहार मनाते।
वे सारी उपज को गाड़ी में भर कर शहर ले जाते-सेठ के यहां। अनाज हो या कपास!
तब सेठ उनसे बड़े प्यार से बात करता था-लम्बरदार के लिए हुक्का ताजी कर हो, बब्बन!
बब्बन, सेठ का नौकर था। दुकान पर सेवा-टहल करता था। बरसों से यहां हुक्का भर रहा था बब्बन। पहले बब्बन का बाप सेठ के यहां चाकरी करता था। वह मर गया तो यह काम बब्बन ने सम्भाल लिया। बब्बन का लड़का तो अभी से सेठ के यहां चाकरी करने लगा है।
यह बब्बन का ताजे-ठंडे पानी से ताजा किया हुक्का गुड़गुड़ाते रहते। फिर अपने धन्धे से लग जाते। कोई किसी खरीद-फरोख्त में लग जाता तो कोई किसी। सेठ की आढ़त के साथ ही दूसरी दुकान में इनकी जरूरत का सारा सामान मिल जाता था। जिसे जो भी चीज चाहिए-तंबाकू, नमक, कपड़ा, वह उसी को अपनी गठरी में बांध लेता।
ब्याह-शादी, भात-छूछक में जरूरत के सामान के अलावा नकद रुपया भी सेठ की बही में अंगूठा टिका कर मिल जाता था। तब अंगूठे का निशान इनके खेत के काफी हिस्से को ढक लेता था। किसी का खेत आधा रह जाता, किसी का चैथाई।
इन्होंने सेठ की दुकान से कितनी कीमत का सामान लिया, इन्हें मालूम नहीं था। ये जो अनाज, कपास या दूसरी उपज अपनी गाड़ी में भर कर लाये थे, वह कितने का बिका, इन्हें नहीं मालूम था। इन्हें तो केवल यह पता था कि सामान-माल जो चाहिए, सेठ की दुकान से ले लो। जो कुछ खेत में पैदा हो, उसे सेठ के यहां डाल जाओ।
उनके यहां जो कुछ पैदा होता है, उसका एक-एक पाई-रत्ती वे सेठ के यहां डाल जाते हैं। फिर भी उनके खेत का आकार क्यों घट जाता है, यह बात उनकी समझ में आज तक नहीं आयी थी।
एक बार सिद्दीक काका ने शकीला के ब्याह के टैम सेठ की बही में अंगूठा टिका दिया था। उसके बाद खेत में जो कुछ भी पैदा हुआ, उसका एक छदाम भी उन्होंने घर में नहीं रखा। कई बार तो सारे गेहूं सेठ के यहां डाल कर, अपने खाने के लिए मोटा सस्ता अनाज भगर सेठ के यहां से लेकर गये।
और एक दिन पता चला कि अंगूठे के निशान ने काका के आधे खेतों को ढक लिया है। आधे खेतों का मालिक सेठ बन गया। कैसे हो गया यह सब?
काका को तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। भज्जन लम्बरदार गांव के कई लोगों को लेकर सेठ के यहां गया था-हिसाब-किताब जांचने। काका भी उनके साथ गये थे।
सेठ ने हिसाब समझाया था, ‘लम्बरदार जी, ब्याज लगेगा तो रकम तो बढ़ेगी ही। फिर सिद्दीक तो खाने का नाज तक यहां से ले जाता था। क्यों भई सिद्दीक! अब बोलता क्यूं नी? कितने बार भगर ले के गया यहां से?’
‘पर सेठ जी, मैं गेहूं तो सारा यहीं लाया। घर-खर्च को भी नहीं रखा-धौन-दस धड़ी।’ काका के मुंह से बामुश्किल निकला।
‘अरे, गेहूं लाया तो वो हिसाब में जुड़ गया न। सेठ ने मुंह बिगाड़ कर कहा।
काका चुप रह गये।
‘कौन से हिसाब से जुड़ा, सेठ जी?’ लम्बरदार ने थोड़ा परेशान होकर पूछा।
‘हिसाब? सब हिसाब है, लम्बरदार!’ सेठ ने सीधे तन कर बैठते हुए कहा था, ‘अरे मुनीम जी! जरा लम्बरदार को सिद्दीक का हिसाब दिखाओ तो!’ फिर दूसरी तरफ घूमकर बब्बन को आवाज लगायी, ‘बब्बन! ओ बब्बन! अबे लम्बरदार की हुक्का ताजी नहीं की अभी तक।’
फिर बताते हैं कि सेठ का मुनीम बड़ी-बड़ी बहिया खोल-खोल कर उनके सामने पटकता गया।
बब्बन हुक्का ताजी करके, उसमें कड़वे तम्बाखू की गर्म चिलम रख कर हुक्के की नै लम्बरदार के हाथों में पकड़ा गया।
काका, कसाई के सामने खड़ी गूंगी गाय की तरह उन्हें बिटर-बिटर देखते रहे। लम्बरदार सिर खुजलाते रहे, हुक्का गुड़गुड़ाते रहे। कड़वे तम्बाकू से धुआं उठता रहा। हुक्के की नै एक हाथ से दूसरे हाथों में जाती रही।
तब वह दूसरी या तीसरी या चैथी कक्षा में पढ़ता था। उसने यह सारा किस्सा चैपाल में बतियाते बड़े-बूढ़ों के मुंह से सुना था। उसे बड़ा गुस्सा आया था। वह चैपाल के एक कोने में दीवार से कमर टिकाये खड़ा था। यह किस्सा सुनकर उसकी मुट्ठियां कसती चली गयी थीं। तब उसने अपने दिमाग के एक कोने में एक सपना बोया था-खूब पढ़ेगा वह। हिसाब-किताब करना भी सीखेगा और सेठ के हिसाब की जांच-पड़ताल जरूर करेगा।
तब से उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। खूब पढ़ा है। पेट भरा हो या भूखा, तन पर कपड़ा हो या नहीं। उसने अपना ध्यान केवल पढ़ाई की ओर रखा।
जब उसने मैट्रिक पास किया और आगे पढ़ने की बात चली तो बापू तो एकबारगी नाट ही गये थे, ‘न, भैया, न। हम गरीबों के बस का नहीं है और ज्यादा पढ़ाना।’
ये तो सिद्दीक काका थे जो सख्त पड़ गये, ‘इसे पढ़ने दे, शिब्बन। यह पढ़े-लिखेगा तभी तो सेठ के हिसाब-किताब की पड़ताल कर सकेगा। नहीं तो कैसे करेगा?’ कहते-कहते उनका गला भारी हो गया था।
सिद्दीक काका की जिस धरती पर सेठ का स्वामित्व हो गया था, उस पर हल अब भी सिद्दीक काका ही चलाते हैं। बीज भी काका बोते हैं, खाद-पानी भी काका ही करते हैं। फर्क इतना है कि अब फसल पकते ही सेठ के लड़के अपनी मोटर कार में बैठकर खेतों के चक्कर लगाने लगते हैं कि एक दिन सारी फसल कटवा कर, ट्रकों में भर कर शहर ले जाते हैं। काका बुझी हुई आंखों से यह सब बिटर-बिटर देखते रहते हैं।
सेठ के लड़के चलते समय काका से कह जाते हैं, ‘खाद-पानी हिसाब में लग जायेगा।’
काका चुप खड़े गर्दन हिला कर अपनी मूक सहमति उन्हें दे देते हैं। सेठ के लड़कों की किसी अन्य बात की प्रतिक्रिया उन पर नहीं होती। बस, बरबस काका की आंखों से दो आंसू टपकते हैं और खेत की सूखी मेड़ पर जा गिरते हैं।
वह यह सब याद करता है तो उसकी आंखों से चिंगारियां-सी फूटने लगती हैं।
सेठ उनके पास के कई गांवों में बहुत-सी धरती का मालिक बनकर बैठा हुआ है। हर गांव में एक न एक सिद्दीक तो जरूरी ही है जो उसकी धरती को जोतता है, बोता है, सींचता है और फसल पक जाने पर सेठ के लड़कों को सारी उपज ट्रक में भर कर ले जाते हुए देखता रहता है। बारहवीं कक्षा में अव्वल दर्जे में पास होकर वह बीए में आ गया था। कॉलेज में उसकी सारी फीस माफ हो गयी थी। अव्वल आने के कारण सरकार से वजीफा भी मिलने लगा था। कॉलेज के प्रिंसिपल ने उसे छात्रावास में रहने की सुविधा भी निरूशुल्क प्रदान की थी। पर उसके सीने में सुलग रही आंच उसी तरह गर्म थी, जैसे हारे की राख में दबे उपले की आंच भीतर-भीतर गर्म रहती है और सुलगती रहती है। जब वह सिद्दीक काका के बारे में सोचता था-उनका बुझा-बुझा, थका-हारा, झुर्रियों जड़ा-बूढ़ा चेहरा उसकी आंखों में घूमने लगता था। उसे लगता जैसे काका जोत रहे हैं, हल चलाते-चलाते पसीने से तरबतर हो रहे हैं। दोनों बैल थककर हांफ रहे हैं। उनमें एक डग भी आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं है पर काका वह हलाई पूरी करना चाहते हैं। वह बैलों को पुचकारी देते हैं, ‘पुच..पुच३पुच। हिम्मत हारते हो, काका उनकी कमर और पुट्ठे सहलाते हैं, ‘बस्स् यह हलाई पूरी करके चलते हैं।
उसकी जबान पर तेजाब-सा घुल जाता है। मुंह से लेकर सीने तक तीखी जलन होती है। वह बेचैन हो जाता है। तभी उसके सामने काका के खेतों में खड़ी सुनहरी फसल की कटाई शुरू हो जाती है। सेठ के लड़के सारी फसल को ट्रकों में भर लेते हैं। काका बुझी आंखों से उन्हें देखते हैं। लड़का चलते हुए कहता है, ‘खादी-पानी।’
काका और बैलों द्वारा बहाये गये पसीने का कहीं कोई जिक्र नहीं है। खाद-पानी का खर्च। स्सालो, खाद-पानी से ही फसल उगती और पकती है तो अपने घर के गोदाम में ही अनाज क्यों नहीं उगा लेते?
गांव से जो भी शहर आता है, छात्रावास में उससे मिलने जरूर आता है, ‘अरे, कुसल हो, बिटवा? शिब्बन गांव में बिल्कुल ठीक है। तुम्हारी काकी भी ठीक है। रेशमा गाय ने बछड़ा दिया है इस बार।’
घर की सारी कुशल क्षेम उसे दे जाते। आते समय कभी लस्सी की पीपी, कभी दही की पीपी भरकर जरूर लाते। एक बार सिद्दीक काका उसके लिए घी लेकर आये थे।
‘बिटवा, दूध तो तुम्हें मिलता नहीं। थोड़ा घी-घा ही फालतू खा लिया करो। सेहत का ख्याल रखा करो। बिटवा, जी है तो जहान है।’ काका बड़ी देर तक उसके सिर पर हाथ फिराते रहे थे, पीठ को सहलाते रहे थे।
फिर एक दिन उसके सपने की मंजिल पर उसका पांव टिक ही गया। वह भारतीय पुलिस सेवा के लिए चुन लिया गया। जिन दिनों प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम निकला, वह गांव में ही था। गांव में बधाई देने के लिए सबसे पहले आने वाले सेठ जी ही थे। वे अपनी मोटर कार में बैठ कर आये थे। मोटर कार उनके घर के दरवाजे पर ही आकर रुकी थी। सेठ जी ने मोटर से उतरकर बापू को आवाज लगायी थी।
गांव वाले तो एकबारगी डर ही गये थे-न जाने बेचारे शिब्बन से क्या भूल हो गयी जो सेठ सीधा उसके घर पर ही जा चढ़ा है।
तभी सेठ के कारिन्दों ने मोटर से मिठाई का टोकरा उतारा और उनके घर में ले आये थे, ‘ओ री काकी! ले, इसे अन्दर रखवा ले।’
गांव के कई लोग सेठ के गिर्द इकट्ठे हो गये थे। बापू भी आ गये थे। भज्जन लम्बरदार, सिद्दीक काका, सद्दन काका, छक्कन, सूरज, बलबीरा-घणे ही आदमी जुड़ गये थे।
‘अरे, बधाई हो, शिब्बन। तुम्हारा बेटा पुलिस में बड़ा अफसर बन गया है, भाई। सेठ ने बापू को गले से लगाकर कहा था, ‘मुझे तो जैसे ही खबर मिली भाई, सीधा चला आया।’
गांव में परीक्षा-परिणाम निकल आने और अरुण के उसमें चुने जाने की पहली सूचना सेठ जी ही लाये थे।
गद्गद हो गये थे गांववासी यह समाचार सुनकर।
‘हमारा कैसा बेटा है, सेठ जी? बेटा तो आपका है, इन लोगों का है।’ कहते-कहते बापू की आंखों में आंसू आ गये थे, ‘इन्हीं लोगों को बधाई दो, सेठ जी।’
उसकी आंखों के सामने एक और दृश्य घूमने लगा था-उस दिन वह किसी काम से सेठ जी की आढ़त पर गया था। वहां उसे श्यामा ने देख लिया। श्यामा उसके साथ कॉलेज में पढ़ती थी। वह सेठ जी की लड़की थी।
दुकान के पीछे के भाग में गोदाम था। उसके ऊपर सेठ जी ने अपना निवास बनाया हुआ था। श्यामा उसे देखकर नीचे आ गयी थी, ‘अरे अरुण! तुम यहां! आओ, अन्दर आओ।’
इसके पहले कि वह कुछ कहता, वह उसका हाथ पकड़कर अन्दर खींच ले गयी। वह झिझकता हुआ उसके पीछे-पीछे चला गया। ‘मां! ओ मां! देखो, यह है अरुण। इसी के बारे में मैंने तुम्हें कई बार बताया था।’ श्यामा ने अपनी मां से अरुण को मिलाते हुए कहा था।
मां ने उसके सिर पर हाथ फिराया था। वह उसे ऊपर अपने कमरे में ले गयी थी।
‘तुम यहां बैठो। मैं अभी आयी।’ उसे सोफे पर बिठा कर वह बाहर चली गयी।
उसके जाने के कुछ ही देर बाद एक नौकर काजू, पिश्ते और किशमिश की प्लेटें उसके सामने सजा गया था।
श्यामा के वापस आने से पहले, उसके कानों में सेठ जी के बोल पिघले हुए गर्म सीसे की भांति पड़े थे, ‘ये गांव के गंवार लोग हें। इन्हें ज्यादा मुंह नहीं लगाना चाहिए। ढोल, गंवार।’
‘ओ नो पापा! वो मेरा क्लास फैलो है।’ श्यामा ने गुस्से और झुंझलाहट से कहा था।
उसके हाथ में एक काजू था जो उसके मुंह तक पहुंचते-पहुंचते रह गया था। उसने उसे उल्टा प्लेट में रख दिया था और खड़ा हो गया था।
पोली में खाटें डल गयी थीं। सेठ के लिए एक खाट पर दुतई बिछा दी गयी थी। सब लोग वहीं आ गये थे।
‘बैठो, सेठ जी!’ लम्बरदार ने कहा था।
‘अरे, अब तो बैठेंगे ही।’ सेठ के चेहरे पर एक मसनवी मुस्कान आकर टिक गयी थी, ‘मिठाई भी खायेंगे।’ सेठ ने बैठते हुए कहा था, ‘श्यामा भी जिद कर रही थी आने की। उसे बड़ी मुश्किल से समझाया-बिटिया, तू बाद में चलना। मान ही नहीं रही थी।’ सेठ कहते जा रहे थे, ‘बड़ा चाहती है तुम्हारे अरुण को हमारी श्यामा।’
उसके कानों में एक बार फिर कोई गर्म सीसा उड़ेल रहा था।
बापू अभी तक खाट पर नहीं बैठे थे। वे तो हाथ जोड़े खड़े थे। उसने गौर किया था-सेठ को देखते ही एक बार जो बापू के हाथ प्रणाम करने के लिए जुड़े थे, वे जुड़े ही रह गये थे और अभी तक जुड़े हुए थे।
लम्बरदार ने हुक्के की नै पकड़कर एक जोरदार लम्बा कश लगाया था, ‘गुड़..गुड़-ड़-ड़।
‘शिब्बन, तम्बाकू तो भौत अच्छा है।’ लम्बरदार ने ढेर-सा धुआं बाहर छोड़ते हुए कहा था।
‘भाई लम्बरदार जी। अगर शिब्बन राजी हो तो हम अपनी बिटिया का ब्याह भी तुम्हारे अरुण बाबू से करने को तैयार हैं।’ सेठ ने बातों पर घी का लेप लगा कर कहा।
गांव के लोगों पर, बापू पर, लम्बरदार पर, काका पर सेठ की घी चुपड़ी बातों का क्या असर हुआ, यह तो उसे ठीक से नहीं मालूम हुआ पर उसे ऐसा जरूर लगा कि सेठ की नीयत इस बार गांव की धरती पर नहीं-गांव के मानस पर खराब है। इस बार उसका निशाना यहां अनजाने ही उग आये एक काले गुलाब पर है। शिब्बन के घूरे पर उग आये एक काले गुलाब पर। गांव के साझले छोरे पर।
गांववालों ने सेठ के हिसाब-किताब की जांच करने के लिए जो पौधा पाल-पोस पर बड़ा किया था, सेठ उसे जड़ से उखाड़कर अपने आंगन में लगाना चाहता था।
शायद चिलम में कोई कर्सी कच्ची रह गयी। उससे उठा धुआं सिद्दीक काका की आंखों में लग गया लगता है। अपने मैले साफे से वे बुझी हुई आंखों को मल रहे हैं। आंखों से लगातार कड़वा पानी निकल रहा है और वे पोंछते जा रहे हैं।
लगता है कि काका और बापू की नियति केवल धरती पर हल चलाना, मिट्टी के कणों में अपना पसीना मिलाकर उसे भुरभुरी बना, सोना उगलने लायक बनाना३गुलाब उगाना और दिन-रात जागकर उसे पालना-पोसना ही है। उसका सुख लेना उनके भाग्य में नहीं है।
सियासी मीयार की रिपोर्ट