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राज्यपालों की भूमिका पर विचार जरूरी

राज्यपालों की भूमिका पर विचार जरूरी

-अजीत द्विवेदी-

इन दिनों राजनीति में इस्तेमाल किए जा रहे मुहावरे के हिसाब से कहें तो आजादी के 75 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि राज्यपालों के ऊपर सर्वोच्च अदालत को इतनी सख्त टिप्पणियां करनी पड़े, जितनी अभी करनी पड़ रही है। आजादी के बाद कई बार राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठे हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि सांस्थायिक रूप से राज्यपाल राज्य सरकारों के कामकाज में दखल दें, विधेयक रोकें, सरकारों पर गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी करें और समानांतर सरकार चलाने की कोशिश करें। राज्यपालों के ऐसे आचरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कई बार बेहद तीखी टिप्पणियां की हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि न राज्यपालों पर इसका असर पड़ र है और न केंद्र सरकार इस पर ध्यान दे रही है। उलटे ऐसा लग रहा है कि सरकार भी चाहती है कि वे ऐसा ही आचरण करें। यह दुर्भाग्य है कि राज्यपालों ने राजभवनों को समानांतर सरकार चलाने का केंद्र बना दिया है। ऐसा सिर्फ उन्हीं राज्यों में हो रहा है, जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि राज्यपालों को अचानक संविधान से मिले अपने अधिकारों की याद आ गई है और वे अपने को वास्तविक शासन प्रमुख समझने लगे हैं। जहां भाजपा की सरकार है वहां ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की सारी सरकारें बहुत बढिय़ा और संविधान सम्मत तरीके से काम कर रही हैं, जबकि विपक्षी पार्टियों की सरकारें संविधान के प्रति सम्मान नहीं दिखा रही हैं। ऐसा लग रहा है कि पानी सर के ऊपर से निकलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के स्थायी समाधान का फैसला सुनाया है। सर्वोच्च अदालत ने दो टूक अंदाज में कहा है कि राज्यपाल कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को बदलने का प्रयास नहीं कर सकते हैं। यह बहुत बड़ा फैसला है। इससे पहले सर्वोच्च अदालत ने इस मामले को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन एक के बाद एक तीन राज्यों- केरल, तमिलनाडु और पंजाब के एक जैसे मामले कोर्ट में आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से सुनवाई की और फैसला सुनाया। सर्वोच्च अदालत ने सिर्फ यह आदेश नहीं दिया कि राज्यपाल लंबित विधेयकों को जल्दी से जल्दी क्लीयर करें, बल्कि यह कहा है कि विधानसभा से पास विधेयकों को रोकने से कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया प्रभावित होती है। ध्यान रहे कानून बनाने का अधिकार संसद और राज्यों की विधानसभाओं को है। अगर किसी राज्य की विधानसभा ने कोई विधेयक पास किया है तो राज्यपाल उसे रोक कर कानून निर्माण की प्रक्रिया को बाधित करते हैं। इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि इससे संघवाद का सिद्धांत प्रभावित होगा। केंद्र में जिसकी सरकार होगी वह राज्यपाल के जरिए राज्य सरकारों के बनाए कानून को रोकता रहेगा। तभी अदालत ने संविधान के अनुच्छेद दो सौ का हवाला देते हुए कहा कि उसमें निश्चित रूप से यह नहीं लिखा गया है कि राज्यपाल कितने समय में किसी विधेयक को मंजूरी दें लेकिन यह जरूर लिखा है कि जल्दी से जल्दी मंजूरी देंÓ। इसका मतलब है कि संविधान बनाने वालों की भावना यह रही है कि विधानसभा से पास होने के बाद जब विधेयक राज्यपाल के पास जाए तो वे उसे तुरंत मंजूरी दे। अगर उनको लगता है कि विधेयक में कुछ सुधार किया जाना चाहिए तो उसे वे तुरंत विधानसभा को लौटा दें। दूसरी बार विधेयक भेजे जाने के बाद राज्यपाल के लिए उसे मंजूरी देना अनिवार्य होता है। लेकिन वह मंजूरी भी जल्दी से जल्दी हो जानी चाहिए। अदालत ने साफ किया है कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनंतकाल तक नहीं लटका सकते हैं। उन्हें विधानसभाओं के बनाए कानून को वीटो करने का अधिकार नहीं है। सवाल है कि क्या राज्यपालों को इस टिप्पणी के बाद कुछ शरम आएगी और क्या वे उसी अंदाज में काम करेंगे, जैसे भाजपा के शासन वाले राज्यों में राज्यपाल कर रहे हैं? इसकी उम्मीद कम है और इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि भाजपा और उसकी विरोधी पार्टियों के बीच विभाजन इतना ज्यादा हो गया है कि भाजपा जहां भी विपक्ष में है वहां उसे सरकार के हर काम का विरोध करना है। और चूंकि संगठन के तौर पर भाजपा भले दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है लेकिन हकीकत यह है कि जहां भी वह विपक्ष में है वहां वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ नहीं लड़ पा रही है। बतौर विपक्ष भाजपा कोई भी आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रही है और न राजनीतिक लड़ाई लड़ पा रही है। तभी राजभवनों को लड़ाई का हथियार बनाया गया है। ऐसा लगता है कि जहां भी भाजपा विपक्ष में है वहां विपक्ष की लड़ाई राजभवन लड़ रहे हैं। पश्चिम बंगाल से लेकर केरल और तमिलनाडु से लेकर पंजाब और दिल्ली तक हर जगह राज्यपाल ही मुख्य विपक्ष दल के तौर पर लड़ते दिखते हैं। हर बात के लिए वे सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं। उनकी लड़ाई अब सिर्फ विधेयक रोकने या विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति रोकने तक सीमित नहीं है, बल्कि कानून व्यवस्था से लेकर करप्शन तक के मसले पर राज्यपाल बयानबाजी करते हैं। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी के बाद पंजाब के राज्यपाल ने दो विधेयकों को मंजूरी दी तो तमिलनाडु में राज्यपाल ने रोक कर रखे गए 10 विधेयक वापस लौटा दिए। हालांकि उसके तुरंत बाद सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर उन विधेयकों को फिर से पास किया और राज्यपाल के पास भेज दिया। इसी तरह केरल में राज्यपाल ने एक विधेयक को मंजूरी दी और सात विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए रोक लिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केरल के राज्यपाल को लेकर तीखी टिप्पणी की और पूछा कि वे दो साल तक विधेयक रोक कर क्या करते रहे? सर्वोच्च अदालत ने यहां तक कहा कि वह केरल सरकार के इस अनुरोध पर विचार कर रही है कि राज्यपालों के लिए एक दिशा-निर्देश तैयार किया जाए कि वे किन स्थितियों में किसी विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए रोक सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी निश्चित रूप से सरकार को अच्छी नहीं लगी होगी। इससे टकराव बढ़ सकता है। अदालत ने हर बार कहा कि संविधान में बहुत साफ साफ शब्दों में लिखा हुआ है कि राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह से काम करेंगे। पिछले कुछ समय से यह देखने को मिल रहा है कि राज्यपाल मंत्रिमंडल के समानांतर काम कर रहे हैं या मंत्रिमंडल के फैसलों को रोक रहे हैं। इससे भारत में शासन और प्रशासन का पूरा ढांचा बिगड़ सकता है। पंजाब के राज्यपाल ने जिस कैजुअल तरीके से कह दिया था कि वे राज्य सरकार के खिलाफ राष्ट्रपति को सिफारिश कर देंग, उससे नए खतरे का आभास होता है। पंजाब बेहद संवेदनशील राज्य है, जहां जनता के वोट से चुनी हुई प्रचंड बहुमत की सरकार है। उसके बारे में इस तरह की टिप्पणी बेहद गैरजिम्मेदार मानी जाएगी। लेकिन दुर्भाग्य से कई राज्यपाल इस तरह की टिप्पणियां कर रहे हैं या ऐसे आचरण कर रहे हैं, जो पद की गरिमा और संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। उम्मीद करनी चाहिए कि अदालत की सख्ती के बाद इसमें कुछ सुधार होगा।

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