कहानी: थार मरु..
-सारा राय-
हवाएं रेत पर चित्र बना देती थीं। सभी चित्र एक से नहीं होते थे। कभी गोले के अंदर सर्पिल गोले, जैसे तालाब में उठती हिलोरें, कभी किनारों पर उथले, बीच में गहरे भंवर, तो कभी बालू पर एकदम बराबर से बनी हुई सिलवटें। कैसी सुडौल, सुंदर आकृतियां थीं। जैसे किसी कलाकार ने बड़ी मेहनत और हाथ की सफाई से उन्हें बनाया हो। मगर हवाएं तो बस यूं ही चला करती थीं दिन भर, और चलने में ही यह निशान छोड़ जाती थीं…।
महानगर के अस्पताल का कमरा अस्पताल के कमरे की तरह ही शून्य था। साफ सुथरा, चमाचम। दीवारों पर खुशनुमा तस्वीरें, पर्दों पर फूलों की छींट। ए.सी. से निकलती हवा दिल तक ठंडक पहुंचा रही थी। मगर इन कमरों में रौनक कब हुआ करती है? ऊंची पलंग की झक सफेद चादर पर अमृता आंखें मूदें लेटी थी। डाक्टर ने हाथ मलते हुए कहा था-आइ ऐम सॉरी, सो सॉरी। इट इज वेरी सैड। यह रोग बिलकुल दबे पांव आता है। मरीज को खबर ही नहीं होती। और घातक कोशिकाएं हवा की रफ्तार से बदन में सफर करती हैं। एक से एक बढ़ते बढ़ते वे कहां से कहां पहुंच जाती हैं। अच्छे स्वस्थ सैल्स को निगल जाती हैं। कुछ महीनों के लिए केमोथेरपी तो देनी ही पड़ेगी…।
यह तो हो गई कई दिनों पहले की बात। दस दिन या पंद्रह दिन। महेश को ठीक ठीक याद नहीं रहा। महेश डाक्टर की बात सुन रहा था। डाक्टर की पीठ के पीछे खिड़की थी। थोड़ी देर के लिए खिड़की खोली गई थी। खिड़की के बाहर एक गाड़ी आकर रुकी थी। एक आदमी नीली कमीज और काला पैंट पहने आकर गाड़ी में बैठा और गाड़ी आगे बढ़ गई। महेश के जी में आया था कि काश वह भी उस गाड़ी में बैठ इस स्थिति के बाहर जा सकता। कहीं जहां पच्चीस साल पहले वाली स्वस्थ और हंसमुख अमृता जिससे उसने तभी शादी की थी, उसका इंतजार कर रही होती। मगर अमृता तो यहीं थी, अस्पताल के कमरे में इस भयंकर बीमारी से जूझती हुई, अस्पताल के ही बिस्तर पर सोई हुई।
नींद की सुरंग में अमृता गुड़मुड़ायी हुई सो रही थी। सुरंग गहरी थी। कहां से शुरू हुई थी, कहां खत्म? उसका तो बस होना ही महसूस किया जा सकता था। कैसा लगता था, नींद की इतनी गहराई में उतर जाना? न दृष्टि थी, न स्वप्न, न स्पर्श। सब कुछ सुन्न पड़ा था। बस अंधेरे में से बहता हुआ अंधेरा। फिर अंधेरे की कगार पर चमकता हुआ रुपहली रेत का टीला कहीं दूरी में दिखता धीमे धीमे उग आया। अभी अभी तो था नहीं, अभी अभी हो गया।
वह थार मरु था, मीलों तक फैला। रेत ही रेत। रेत से लदी आंधियां आती थीं। सपाट भूगोल का चेहरा मिटता था और बनता था। अभी दो साल भी तो पूरे नहीं हुए थे उन्हें राजस्थान में थार मरु गए। और थार मरु में ही थे सम के टीले। कैसे लगे थे टीले। जैसे सचमुच जिंदा हों। वे सिर्फ बालू के टीले नहीं थे। वे सांस लेते, जागते जीव थे। सुबह की हवा उनकी कोमल गोलाइयों को सहलाती थी तब वे लहरों से चमचमा उठते थे। उन पर लगी छोटी छोटी कटीली झाड़ियां और पेड़ों के ठूंठ धूप की तेजी में सिहरने लगते। चमकीली रेत से बने यह अस्थायी टीले हवा के इशारे पर उड़ते बैठते रहते थे। वे भी रेगिस्तान के यात्री थे, ऊंटों के कारवां और गाय बकरियों के झुंड की तरह।
अमृता उन टीलों और उन पर बनी आकृतियों को मंत्रमुग्ध होकर देखा करती थी। उसको लगता था वह अनंतकाल तक बैठी उन्हें देखती रह सकती थी। वह टीले पर कस कस के पैर गड़ाती ऊपर चढ़ जाती थी। फिर उतरती थी उसी तरह, मगर दूसरी तरफ से। पूरे टीले पर ढेर सारे पैरों के निशान बन जाते थे। फिर दूर बैठी वह हवा को उन्हें मिटाते देखती रहती थी। थार की रेत सारी आवाजें अंदर खींच लेती थी। पैरों के चाप सुनाई नहीं देते थे और एक ऐसी खामोशी उतरती थी जो सिर्फ आवाज की अनुपस्थिति भर नहीं थी।
अमृता अपने शरीर के अंदर दिल के धौंकने, फेफड़ों के घरघराने और पेट के गुड़गुड़ाने को कितनी सफाई से सुन सकती थी, मगर बाहर की पूरी फिजा पर एक सुनहरी खामोशी की चादर पड़ी रहती थी। वह बालू पर बैठ कर देखने और सुनने के सम्मोहन में फंस जाती थी। उस समय भी, जब वह अपने शरीर के अंदर की आवाजें सुना करती थी, क्या उसी शरीर में उन भयावह कोशिकाओं की यात्रा शुरू हो गई थी?
जैसलमेर में एक रात बिताने के बाद वे थार मरु के सुनसान विस्तार में पहुंचे थे। और जहां मरुभूमि शुरू होती थी, उसके आगे जाके थे सम के टीले। वैसे तो जैसलमेर से सिर्फ चालीस या बयालीस किलोमीटर की दूरी पर थे वे टीले, पर उनको वहां पहुंचने में घंटे भर से ऊपर लग गया था जब कि अफसर के पास बड़े बड़े पहियों वाली क्वालिस गाड़ी थी। अफसर महेश के ही विभाग का स्थानीय नुमाइंदा था जिसके निमंत्रण पर वे यहां आए थे। जहां तक सड़क साफ समतल थी, क्वालिस मीलों को तेजी से निगलती चली गई थी, जैसे वह जाने कब की भूखी हो। मगर यहां तो रेत ही रेत थी, जिस पर तेजी से आगे बढ़ने में अड़चन होती थी।
वे तीन ही जन थे। आखिरी वक्त पर अफसर की पत्नी आते आते रह गई थी। महेश और अफसर यानी पंकज माथुर, तो सहकर्मी थे। रास्ते भर वे दोनों आगे वाली सीट पर बैठे विभाग की ही बातें करते रहे थे। अमृता को इनसे कोई मतलब नहीं था, न ही वह सुन रही थी। उसकी आंखें खिड़की के बाहर धीमी रफ्तार से बदलते परिदृश्य पर टिकी थीं। जैसे वह चलचित्र देख रही हो। कीकर और अकेशिया के कंटीले झाड़, कहीं कहीं नागफनी के बड़े बड़े घेरे। दूर दूर तक और कुछ नहीं, बस बालू के ढूह और सन्नाटा।
सड़क पर एकदम आगे, शायद क्षितिज के बस पहले, जहां पर उसका देखना खत्म होता था, पानी सी चमकती मरीचिका दिखाई देती थी, जो पास पहुंचने पर और आगे खिसक जाती थी। भूले भटके कीकर के दुर्लभ साए में ऊंट जुगाली करता दिख जाता। यहां फिर आएंगे, उसने सोचा था। तब मंटू को भी साथ लेते आएंगे। कहेंगे चार दिन की छुट्टी ले लो। लड़का तो कहीं जाता ही नहीं था। बैंक में नौकरी क्या कर ली थी मानो दफ्तर से चिपक ही गया था। जैसे भी हो उसे लेकर ही आएंगे, चाहे घसीट कर ही लाना पड़े। यह जगह तो कमाल की थी। इस तरह बिना किसी रुकावट के देखने का सुख तो आंखों को पहली बार मिल रहा था।
जब सम से लगभग पांच किलोमीटर की ही दूरी बची रह गई थी, पंकज माथुर ने गाड़ी रोक दी थी।
यहां से ऊंट पर जाएंगे। उसने मुस्कुराते हुए कहा था।
मगर गाड़ी…
उसे यहीं छोड़ना होगा।
तभी चमकती रेत और चैंधियाने वाली रोशनी में से एक ऊंट नमूदार हुआ था और उसके पीछे एक और ऊंट। जैसे कि वह बस पंकज के यह कहने भर के लिए वहां रुके हुए हों? जाने कहां छुपे हुए थे ये ऊंट कि अब तक बिल्कुल दिखाई ही नहीं दिए थे। उनका रंग एकदम रेत के रंग का था। ऊंटों की बड़ी बड़ी और लंबी पलकों वाली आंखों में बहुत गहरे तक रेत की ही परछाईं थी, जैसे कि पूरी मरुभूमि उन्हीं की आंखों में इस छवि का प्रतिबिंब हो?
ऊंट हांकने वाला एक छोटा बच्चा था। उम्र मुश्किल से आठ नौ बरस होगी। उसका नाम अलिफ था। दूसरे ऊंट के साथ इरफान था। उसकी एक आवाज पर ऊंट बैठ गए। तब अलिफ ने अमृता का बैग वगैरह ऊंट की जीन में बनी हुई टांगने की जगह पर टांग दिया और वे ऊंट की पीठ पर बैठे, अमृता आगे और उसको पकड़ कर महेश पीछे। फिर ऊंट खड़ा हुआ तो लगा भूचाल आ गया। बड़ी तेजी से वे आगे की तरफ लुढ़के, फिर पीछे की तरफ। मगर जल्दी ही संतुलन बन गया। एक छोटी सी लकड़ी से अलिफ ने ऊंट की पीठ पर मारा और जोर से चिल्लाया-गो! माइकिल जैकसन गो!
और ऊंट अपने लंबे पैरों को मोड़ता समेटता बड़ी लचक के साथ चल पड़ा। उसके गले में पड़ा बड़े बड़े रंगीन मोतियों और कौड़ियों से बना सुंदर गोरबंध उसके घुटनों तक लटक रहा था। ऊंट की चाल के साथ साथ वह भी झूम उठता था। उसके गले में घंटी भी थी जो जब तब बज जाती थी।
अमृता को ऊंट का नाम सुन कर हंसी आ रही थी। माइकिल जैकसन! दुनिया का यह सुदूर कोना और यहां माइकिल जैकसन? मगर वह माइकिल जैकसन से जरा भी कम नहीं था। ऐसा दौड़ा कि माइकिल जैकसन भी क्या नाचता। अलिफ भी ऊंट की बगल में उसी रफ्तार से दौड़ रहा था।
अरे रोको! रोको! अमृता चिल्लाई थी। उसे लगा हड्डी पसली चूर, अंतड़ी पचैनी सब बाहर आ जाएगी। अलिफ ने फौरन ऊंट को रोक लिया था और एक टेढ़ी सी मुस्कुराहट के साथ गाने लगा –
क्यों हाल बिगड़ गया मम्मीजी।
बड़ा शरीर था! अभी इतना कमसिन जो था। पंकज माथुर के ऊंट का नाम राजा था। वह इतनी तेज नहीं चल रहा था। जबकि उस पर सिर्फ अफसर ही अकेला बैठा था। अफसर ने टोपी लगा ली थी और धूप का चश्मा भी। उसका चेहरा साफ नहीं दिख रहा था।
अलिफ बड़ा बातूनी था।
मालूम है? वह बोला-यह रेत तो हमेशा से यहीं है। यह तो मुझसे भी पहले की है।
अच्छा। महेश ने आंख मार कर आश्चर्य जताया था-तुझसे भी पहले की है? तो बता कितने सौ साल हुए?
सौ नहीं बाबू जी, हजारों साल! उसने गंभीरता से कहा था-मगर ये टीले देख रहे हैं, न? ये तो एक जगह पर टिकते ही नहीं। पूरे के पूरे उड़ जाते हैं। अभी यह रास्ता है न, शाम तक यहां टीला बन जाएगा। रोज रास्ते बंद होते हैं और नए रास्ते खुलते हैं यहां। सचमुच ऐसा ही था। अमृता ने पीछे घूम कर देखा था कि माइकिल जैकसन के पैरों के निशान फौरन ही मिट चले थे। कैसी दुनिया थी यह जिसमें कुछ भी स्थायी नहीं रहता था। जब जमीन पर ही भरोसा न हो तो और किस चीज पर होगा? ऊंट चलते चले जा रहे थे। जिधर देखो उधर रेत फिसलती हुई, दूर तक बालू से जन्मे टीलों की हल्की गोलाइयां। टीले समतल बालू में से धीरे से उठ आते थे जैसे कि आने वालों की आंख बचा कर चुपचाप खड़े हो जाने का कोई खेल खेल रहे हों, आंख मिचैली जैसा। रेत में ऊंट के पैर धंस जाते थे पर वे अविचलित आगे बढ़े जा रहे थे। बालों और भौहों में आंख नाक कान सब में बालू ही बालू था और बोलने के लिए मुंह खोलो तो दांतों के नीचे भी रेत की किरकिराहट महसूस हो रही थी। इसलिए वे सभी चुप थे। आवाज होती थी तो बस बीच बीच में ऊंटों के बलबलाने की। पंकज के ऊंट राजा की रफ्तार कुछ बढ़ी थी। अब वह बगल में ही चल रहा था। कभी अमृता को ऊंट के चैड़े और पीले दांतों की झलक मिल जाती थी। क्षितिज तक का भूगोल एकदम साफ था। न आदमी न आदमजात। ऊपर आसमान का विशाल गुंबद और नीचे रेत का अनंत।
दूर पर, एकदम दूर वाले टीले पर कुछ हिलता हुआ दिखा। एक काला भूरा सा तिकोन जो एक बार हल्का सा खिसका, फिर स्थिर हो गया। कैसा आकार था वह, पेड़ या परछाईं? वे देर तक उसे देखते रहे पर उसमें फिर से हरकत न हुई। रेत के रंग से थोड़ा गहरा, बस मिलता जुलता ही, वह हिला न होता तो शायद वे उसे देख ही न पाते। वह क्या है? महेश ने उसकी तरफ इशारा करते हुए पूछा था। दूरबीन तो बैग में ही बंद हो गई थी, जिसे हिलते हुए ऊंट पर निकालना मुश्किल था।
अलिफ की तेज आंखों ने पहले ही उसे देख लिया था।
वह तो सोहन पक्षी है, रेत का राजा। हम लोग उसे गोदान पंछी कहते हैं। यहीं बालू पर उसका ठिकाना है। मुझ पता है आप लोग इंग्रेजी में उसे क्या कहते हैं।
क्या?
बास्टर्ड! उसने बड़े गर्व के साथ कहा।
पंकज ठहाका मार कर हंसा-इसका मतलब है बस्टर्ड द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड। यह तो कानून के तहत संरक्षित है। अरे अलिफ! तूने तो रेत के राजा को अभी अभी गाली दी। अलिफ ने मानो सुना ही नहीं वह बोलता जा रहा था-बस खुले में ही बैठता है यह। जिसमें दूर दूर तक देख सके। दिन में तो हिलता ही नहीं। वह अभी हिला था न? क्योंकि उसने हमें आते देख लिया है। अब वह चुप्पे बैठा रहेगा सिर छुपा कर। मगर चांदनी रातों में इसे देखो… सांप, टिड्डा, छिपकिली सब खा जाएगा। और जब उड़ता है तो बस देखते रह जाओ। कितना सुंदर! आप से भी ज्यादा सुंदर! उसने शरारत भरी निगाह अमृता पर डाली।
अरे, अरे! इसे देखो तो। अमृता सकपका कर बोली थी-बित्ते भर का है और बातें गज भर की। तुझे किसने बताया यह सब इसके बारे में?
अरे मैं तो यहीं रहता हूं। मुझे यहां की एक एक बात पता है। अब वह देखो बालू में फिसलते हुए निशान? वह तो बिस्तुइया ने बनाए हैं और वह चिड़िया के पैरों के निशान देख रहे हैं? यहां चील भी आती है और बाज भी… और यह नन्हें एकदम नन्हें छेद गुबरैले कीड़े ने बनाए हैं। यहां गाय बकरी सभी आते हैं न। अलिफ ने शेखी बघारने के अंदाज में कहा।
कैसी मायावी दुनिया थी वह। हर चीज एक संकेत थी, हर निशान का कोई मतलब था। जैसे कि जो दुनिया दिख रही हो आंखों से, उससे कहीं बड़ी जीती जागती एक और दुनिया भी जो सदा आंखों से ओझल मगर सांस लेती रहती थी। एक अदृश्य दुनिया जो कायम थी हजारों साल से। यह दुनिया बदलती खिसकती रहती थी मगर थी कितनी प्राचीन। अमृता को यह एक विरोधाभास की तरह जान पड़ा था। यहां रेत के टीले तो दिन भर में गायब हो जाते थे और मरुभूमि थी कि जाने कब से इसी जगह बनी हुई थी?
वे टीलों के पार सूर्यास्त देखने जा रहे थे। थार मरु में आए हुए सैलानियों के प्रोग्राम में सूर्यास्त देखने की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। दूर दूर से वे आते थे, दुनिया के हर कोने से और सूरज के डूबने को खामोशी से देखते थे। सूरज तो रोज ही ढलता था, उनके देश में भी, मगर थार मरु के टीलों पर सूरज को डूबता देखने के लिए वे कितनी लंबी यात्राएं करते थे। इन सैलानियों के ठहरने के लिए बड़े बड़े पंचसितारा तंबू भी गड़े थे जिनमें सोने का कमरा, बाथरूम वगैरह अलग अलग बने हुए थे।
जब राजा और माइकिल जैकसन अपनी सवारी लेकर टीले पर पहुंचे थे तो काफी लोग दूरबीन और मोबाइल फोन लिए पहले से ही वहां मौजूद थे। जैसे कि उनका सूर्यदेवता को दूरबीन में फंसा कर, उनसे मोबाइल पर बातें करने का इरादा हो। सारी भीड़ एक ही टीले पर नहीं थी। लगभग सभी टीलों की ढलान पर लोग खड़े थे। गुलाबी आसमान पर उनकी प्रतिच्छाया गहरी हो चली थी। ढलती रोशनी के इस खेल में मालूम देता था जैसे आसमान पर ढेर सारे दफ्ती के कटआउट चिपका दिए गए हैं। लाल सुनहरे सूरज का गुरूब होता हुआ गोला दूर रेत के टीले के पीछे गायब हो गया। खामोश इंतजार का जो माहौल बना हुआ था एकदम से टूटा और अलिफ की ही उम्र के बच्चे पानी पेप्सी और फ्रुटी बेचते हुए सैलानियों के बीच फिरने लगे।
रेगिस्तान में बसेरा करने वाले गवइयों के छोटे छोटे झुंड भी जहां तहां गा रहे थे। इनमें अकसर बच्चे भी शामिल रहते थे। जैसे रेगिस्तान की निर्जन प्रकृति से ही उपजे, यह ज्यादातर लांगा और मंगनियार होते थे जो एक जमाने से इस इलाके के गानेवाले रहे थे। उनके गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित, लंबी, अकेली तारों भरी रातों से ही फूट कर जन्मे थे और उनका स्वर थार मरु के फैले हुए एकांत में गूंजता था। एक छोटा लड़का बिजली की तेजी के साथ खड़ताल बजा रहा था और उसके साथ बड़ा सा नीला साफा बांधे बूढ़ा कमैचे पर गाने लगा-केसरिया बालम आओ म्हारे देस…
उसकी बूढ़ी आवाज की दरारें किसी पुरानी चिटकी हुई चट्टान की सी थीं जो अपने आप में बेइंतिहा कशिश से भरी हुई मालूम दे रही थी। पूरी पार्टी शायद एक ही परिवार की थी। एक छोटी बच्ची हाथ हिला हिला कर नाचे जा रही थी। यह छोटे बच्चे भी कैसे कलाकार थे। क्या यह गाते बजाते ही पैदा हुए थे? उन्होंने ऐसे मुश्किल ताल और सुर कब सीख लिए?
गाने से एक समां बंध गया था और गाना खत्म होते ही सैलानी बिखरने लगे थे। बस दूर वाले टीले पर इक्का दुक्का लोग दिखाई दे रहे थे। तारे एकदम से नीचे लटक आए थे। वे तीन रेत में वहीं पलट गए थे। महेश ऊंट पर बैठ उचकते उचकते काफी थक गया था। पंकज उनसे थोड़ी दूर अपनी टोपी पर सिर रख कर लेट गया था। बस अमृता थकने की बजाय और तरोताजा महसूस कर रही थी। सम का वातावरण ठंडी चांदनी, ऊंटों के गले की घंटियां, नई जगह के यह सारे आकर्षण उसके अंदर एक नए जोश के एलान की तरह आए थे।
कैसा सन्नाटा है! उसने कहा। वह बोली तो धीमे से थी मगर गूंजती हुई खामोशी में उसकी आवाज कुछ ज्यादा ही जोर से सुनाई दी।
हम मंटू को भी लेकर यहां दोबारा आएंगे, नहीं महेश? कितनी ठंडी रेत है। इसमें पैर घुसाओ तो जी चाहता है कि पूरे के पूरे अंदर लेट जाओ। महेश…?
हमम।
रेगिस्तान कितना पुराना है?
महेश ने हंसकर जवाब दिया-अलिफ से भी ज्यादा पुराना।
मजाक मत करो। मैं सच में जानना चाहती हूं।
मुझे क्या मालूम। होगा दस पंद्रह हजार साल पुराना…।
उसने ऐसी आसानी से यह जुमला फेंका जैसे उसने दस पंद्रह हजार न कहकर सिर्फ दस पंद्रह ही कहा हो।
मगर अमृता का दिमाग वर्षों का पीछा करते करते हजारों साल को बेधने की कोशिश करने लगा था। तब कैसा रहा होगा यहां? रेत के टीले तो यकीनन तब भी ऐसे ही रहे होंगे। और झाड़ झंकाड़, अकेशिया और कीकर और सोहन पक्षी? सृष्टि के इवलुशन के बारे में वह ज्यादा कुछ नहीं जानती थी मगर उसको लगा कि यहां के जीव जंतु जानवर किसी पूर्वनिर्धारित क्रम में ही पैदा हुए होंगे। इनसान का विकास तो और बाद में शायद सबसे बाद में हुआ होगा।
सम के रास्ते में एक गांव पड़ा था जो ढाई सौ साल पुराना था। एकदम निर्जन था; खाली सड़कें, खाली घर, बिना दरवाजे खिड़की के खाली दर, सभी कुछ मिट्टी के रंग का। वहां कोई कुआं नहीं था, न ही पानी का और कोई स्रोत। तभी गांव वाले गाय गोरू लेकर वहां से चले गए थे। यहां के सभी रहने वाले, इनसान और जंतु, यहां तक कि टीले भी खानाबदोश थे। एक ठिकाने पर टिक ही नहीं पाते थे। बस यहां घर खड़े थे, एक संकेत और प्रमाण की तरह कि कभी यहां कोई रहता था। अमृता उन्हें देख कर रोमांचित हो उठी थी। लेकिन यह तो महज दो ढाई सौ साल पहले की बात थी। दस हजार या और भी ज्यादा साल पहले तक तो उसकी कल्पना पहुंचती ही नहीं थी।
महेश, क्या यह रेगिस्तान दस पंद्रह हजार साल आगे तक भी रहेगा?
अरे तुम भी कैसे अटपटे सवाल पूछती हो! मैं क्या खुदा हूं जो तुम्हारे इन सवालों का जवाब दे पाऊंगा? महेश बेरुखी से बोला था। उसे नींद आ रही थी।
अमृता के साथ ऐसा ही था। उसका दिमाग धुंधले ख्यालों से भरा रहता था और कल्पना की किसी डोर को पकड़े पकड़े वह जाने कितनी दूर निकल जाती थी। वह ठोस सच्चाइयों के घेरे में बंधना नहीं चाहती थी; उनसे उसका दम घुटता था। महेश के साथ उलटा ही था। उसका ठोस यथार्थ में ही विश्वास था और वह धरती पर पैर जमा कर रखता था। उसके लिए मतलब उन्हीं चीजों का था जिन्हें वह छू सके, सूंघ सके, पकड़ सके। अमृता का रोमांच की तरफ सदा खिंचता अव्यवहारिक सा स्वभाव उसे आकर्षित तो जरूर करता था मगर जहां तक उसका अपना सवाल था, वह यथार्थ को ही सत्य मानता था। अमृता के साथ रहते रहते वह अपने को उसका संरक्षक जैसा कुछ मानने लगा था। उसको लगता था वह अमृता को उसकी व्यर्थ की आकांक्षाओं से उबरने में मदद कर सकता है। रोजमर्रा की दिनचर्या, वास्तविक जीवन, वह समझता था जिंदगी की गिरफ्त खुद ही अमृता को तराश कर असलियत का सामना करने लायक बना देगी।
रात को वे सोते तो वह अपनी एक टांग अमृता के बदन पर डाल कर उसे अपने घेरे में ले आता था। उस घेरे में बंद, अमृता उसकी बराबर से चलती हुई सांसों को सुनती रहती थी। रात के अंधेरे सन्नाटे में उसको महेश की यह जीवन शक्ति किसी बहुत बड़े राज से भरी मालूम देती। फिर एकदम से बेचैनी उसे बेतरह घेरने लगती और उसका मन तड़प उठता कि कहीं चली जाए, कहीं भी, बस इसी वक्त।
थार मरु की टूरिस्ट कुटिया में उस रात वह देर तक जागती हुई पड़ी रही थी। महेश बेखबर सो रहा था। उसकी एक टांग अमृता के निचले धड़ पर लापरवाही से पड़ी थी। ऊंटों को लेकर अलिफ अपने साथी के साथ कब का जा चुका था। ऊंटवालों का डेरा टूरिस्ट कुटिया के सामने ही तो करीब दो सौ गज की दूरी पर था। अमृता ने महेश की भारी टांग अपने बदन पर से हटाई और जाकर खुली खिड़की के सामने खड़ी हो गई। रेगिस्तान पर चांदनी सिहर रही थी, परत दर परत, वर्क की तरह। तारों से लदे आकाश के नीचे ऊंट की काली छाया विचित्र लग रही थी। इतने ढेर सारे नए दृश्य और आवाजों से अमृता का दिमाग एकदम सजग हो चुका था और उसकी रात जागती हुई बीती।
भोर में वह फिर खिड़की पर खड़ी थी और उसने आश्चर्य से देखा था कि चांद चमकता हुआ अभी आकाश में मौजूद था और दूसरी तरफ उदय होते हुए सूरज का गोला भी धीरे धीरे आसमान में चढ़ रहा था। चांद और सूरज का इस तरह आकाश में एक साथ होना उसे बहुत आश्चर्यजनक लगा था। यहां की पूरी दुनिया ही आश्चर्यजनक थी। उन लोगों की बेहद मामूली रोजमर्रा की जिंदगी से कितनी फर्क थी।
सुहाने दिनों की खास सिफत होती है कि वे बहुत जल्दी हो जाते हैं। उन्हें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लौटने में वक्त नहीं लगा था। आखिर तो चार दिन कितने लंबे चलते। सम की तिलिस्मी दुनिया को भी वह इल्म हासिल नहीं था जो चार दिन को खींच कर शाश्वतकाल में बदल देता। चार दिन। जिनमें से एक तो जैसलमेर में ही निकल गया था। वे दिन पूरे के पूरे उड़ गए थे, बालू के टीलों की तरह। दिन महीने में बदले, फिर साल में और फिर दो साल में।
अस्पताल का कमरा। जिंदगी कितनी कठोर थी मगर कितनी हसीन। अमृता को सोच कर बहुत अजीब लगा कि तभी, जब वह सम की जादुई दुनिया के सम्मोहन में फंस रही थी, ठीक उसी वक्त उसके शरीर के अंदर एक दूसरी भयावह दुनिया बननी शुरू हो गई थी। कहां से कहां तक फैली थी इस दुनिया की सीमाएं? डाक्टर बोली थी-आप दो साल पहले आई होतीं तो… दरअसल यह सैल्स बहुत तेजी से बढ़ते हैं। माइक्रोस्कोप के नीचे देखिए तो शरीर के अंदर एक दूसरी ही दुनिया बसी हुई है। देखने में बहुत रंगीन है यह दुनिया, मगर जितनी रंगीन है, उतनी ही खतरनाक। आइ एम सारी।
जिस वक्त वह सम के पर्यावरण के जादू में फंसी थी, तभी उसके शरीर का लैंडस्केप बदल रहा था। कितने गहरे तक उतरती चली गई थी वह सम की दुनिया में। उसका जी चाहा था कि अनंतकाल तक बैठी वह बालू के टीलों पर हवा की लिपि को पढ़ती रहे। यह जीवन का कैसा विरोधाभास था कि यह दो जगत एक साथ चल रहे थे, एक बाहर वाला इतना सुंदर, खुशनुमा और दूसरा इतना विकृत, विक्षिप्त? और एक तीसरी दुनिया भी तो थी, जिसे उसने महसूस किया था उसके संकेतों में मगर जो आंखों से ओझल ही रही थी?
वह आंखें बंद किए पड़ी थी। सोने का नाटक कर रही थी। शायद आंख लग ही गई थी। अस्पताल के कमरे में उसको कितनी नींद आती थी। ऐसी नींद तो उसे घर पर भी कम ही आती थी। रोजाना उसकी यही शिकायत रहती थी, कि नींद नहीं आती और यहां तो बस आंख बंद करते ही वह अंधेरे में लुढ़क जाती थी। शायद उसकी दवाओं में नींद की गोली भी शामिल हो।
उसकी आंखें खुलीं तो वह फौरन महेश की परेशान आंखों से मिलीं। दोनों की आंखों के बीच की किसी गुमनाम जगह पर वह खौफनाक सत्य लटक रहा था जिसका सामना करने की गंभीर कोशिश में दोनों मुबतिला थे। इन दोनों की आंखों के अलावा उस तीसरे की आंखें भी थीं। मंटू की। मंटू, उनका चैबीस साल का संजीदा बेटा। जिसकी आंखों में अम्मां का आंचल पकड़े वह तीन साल का मंटू लौट आया था जैसे वह कहीं गया ही न हो।
अम्मां…। खोए हुए बच्चे की आवाज फैले हुए थार मरु के निःसीम, निर्विकार शून्य में गूंजती हुई, हवा पर डूबती उतराती लौट आई।
अम्मां! मंटू मां के सिरहाने पहुंच गया था-तुम जरा भी घबराना नहीं। मैं नौकरी छोड़ कर फुल टाइम तुम्हारी देखभाल करूंगा।
ऐसी बेबकूफी की बात फिर मत करना। अमृता बोली-मेरे लिए जो कुछ हो सकता है वह तुम्हारे पापा तो कर ही रहे हैं। नौकरी छोड़ने से क्या होगा? क्या बार बार मिलती रहती है नौकरी? महेश…?
हां अमि! कुछ कह रही हो?
महेश, थार का रेगिस्तान क्या दस हजार साल आगे तक भी रहेगा?
फिर वही सवाल। दो साल पहले भी उसके दिमाग में यही प्रश्न आया था। और आज भी वह यही पूछ रही थी। उसके दिमाग में तो थार मरु जैसे बस ही गया था। क्या लेना देना था उसे थार से? इतनी भीषण बीमारी और उसे पड़ी थी थार मरु की।
बताओ महेश, रहेगा?
प्रश्न वजनी होकर कमरे की फिजा में लटक गया था। दीवारें वही पूछ रही थीं, उन पर टंगी तस्वीरें पूछ रही थीं, फूल वाले पर्दे वही सवाल दोहरा रहे थे, ए.सी. के निरंतर गुनगुनाने में वही प्रश्न था और खिड़की के बाहर महानगर के मैले आसमान में प्रदूषण की धुंध प्रश्नचिह्न के आकार में ठहर गई थी।
मैं कोई खुदा हूं… महेश के अंदर से उत्तर उभरा, फिर उसे बीच में ही लोकते हुए उसने कहा-दस हजार नहीं, दसियों हजार साल तक रहेगा थार रेगिस्तान…।
अमृता फिर नींद में ढलंग गई। किसी नवजात शिशु की तरह जो न सुनता है, न देखता है, न बोलता है, बस अहसास की गीली चादर में लिपटा पड़ा रहता है। अंधेरे में से अंधेरा फिर बहने लगा। आसमान और जमीन के दो विशाल प्यालों में अंधेरा उंड़ेला जा रहा था। आसमान से जमीन पर, जमीन से आसमान पर और फिर आसमान से जमीन पर। अंधेरे का एक अनवरत उंड़ेलना। न आरंभ न इति। बस उंड़ेलना।
लगता है अम्मां सो गई है! महेश ने बेटे से कहा।
चलो कैंटीन में चाय पी के आते हैं। देयर इज नथिंग लाइक अ कप ऑफ हॉट टी।
सियासी मियार की रीपोर्ट