मन की व्यथा…
-दिव्या यादव-
रीत गया है
मन का घट अब
शेष नहीं
कुछ और विकार
खाली घट में झाँका मैंने
तो देखी एक दरार
एक समय था
जब मन का हर कोना महका था
बची नहीं कोई दरकार
अब तो अन्तर्मन में
छाया रहता है अन्धकार
जितना घट में भरते जल को
रिसता जाता बारम्बार
जाने कितनी चोटें खाकर
मन करता था अब प्रतिकार
माटी का घट बना सहज था
सह नहीं पाया ठसक अपार
मात्र एक छोटे झटके से
करने लगा वह हा-हाकार
मन की प्रकृति और सहज थी
उडता फिरता था चहुं ओर
बहुत तेज थी उसकी रफतार
समय ने कुछ करवट ली
छीन लिए सारे अधिकार
घट से अब जल रुठ गया था
पाता नहीं था विस्तार
और अन्त में वही हुआ था
जिसका था कब से इन्तजार
घट भी उतर गया अब मन से
फेंका गया समझ निष्प्राण
किन्तु टूटकर सिसक रहा था
मानो पूछ रहा हो जग से
ये कैसा अन्याय?
जब तक मैं भी नया नया था
जल से मैं भी भरा भरा था
प्यास बुझाता था इस जग की
चाह नहीं थी मेरे मन की
किन्तु आज मैं हुआ निरर्थक
व्यर्थ हुआ सब आज परिश्रम
ये कैसी अनहोनी प्रभु की
समझ न पाया रीत जग की
मुझे इस तरह व्यर्थ न पाते
पत्थरों के बीच न फिंकवाते
भरते माटी मेरे अन्दर
और रोपते पौधा सुन्दर
मैं उसका आश्रय बन जाता
मोक्ष किन्तु मैं फिर भी न पाता
रिसकर भी जीवन दे जाता
मुक्ति इस तरह पा जाता
मन भी इसी तरह कराहता
पाना मुक्ति वह भी चाहता
रीते मन की यही व्यथा है
पहचानी सी यही कथा है
टूटा है फिर भी जीता है
मरकर भी जीवन देता है।।