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घुमक्कड़ी और टूरिज्म में होता है फर्क..

घुमक्कड़ी और टूरिज्म में होता है फर्क..

घुमक्कड़ी और टूरिज्म के फर्क को समझना जरूरी है। जहां घुमक्कड़ी एक जुनून है वहीं टूरिज्म एक व्यवसाय। घुमक्कड़ प्रकृित के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ नहीं करता वहीं पर्यटक सिर्फ मौजमस्ती पर बल देता है। हम जब वाइल्ड लाइफ के बीच जाते हैं तो वन्य जीवों की सुिवधा-असुविधा का ख्याल रखना चािहए। इससे जंगलों में वन्य जीवों के मूल अधिवास में हस्तक्षेप होता है। वाइल्ड लाइफ टूरिज्म के कायदे बता रहे हैं हम…

15 नवंबर से सारे रिजर्व फारेस्ट पर्यटकों के लिए खुल गये हैं। भारत के उष्ण कटिबंधीय क्लाईमेट को देखते हुए अंग्रेजों ने जो वन अधिनियम बनाया था, उसके अनुसार 15 जून से 14 नवंबर तक जंगल के रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। और उन दिनों सिर्फ वे ही जंगल में जा सकते हैं जो वन प्रांतर में घिरे क्षेत्रों में रहते हैं। बाकी के पर्यटकों का प्रवेश उन दिनों तक के लिए निषिद्ध रहता है। वन प्रांतरों के द्वार खुलते ही पर्यटकों की भीड़ उनमें टूट पड़ती है। इसमें सबसे ज्यादा भीड़ उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व में पहुंचती है।

पर पर्यटकों की लगातार आवाजाही से वन में रहने वाले पशुओं की दिनचर्या प्रभावित होती है और वे स्वयं उस वन प्रांतर से घबराकर भागने लगते हैं और वन की सीमा पर बसे गांवों में पहुंच जाते हैं जहां अकसर पालतू पशु और खेत काटने आए मजदूर उनके आसान टारगेट बन जाते हैं। इसके बाद हल्ला शुरू होता है कि अमुक शेर आदमखोर हो गया है तथा उसे मारने के लिए पेशेवर शिकारियों की टोलियां निकल पड़ती हैं। लेकिन यह सवाल भी उतना ही मौजूं है कि जंगलों के पर्यटन स्थल बना दिए जाने तथा उनके आसपास अवैध निर्माण होने के कारण ही वन पशु मनुष्यों की आबादी में प्रवेश करते हैं पर कोई भी सरकार इस तरह के गूढ़ प्रश्नों पर गौर नहीं करती।

घुमक्कड़ी और टूरिज्म में फर्क है। घुमक्कड़ी एक लगन है, एक जुनून और इसके लिए पैसों की जरूरत नहीं होती। लेकिन टूरिज्म एक व्यवसाय है। एक घुमक्कड़ दुनिया घूमता है कुछ नया जानने के लिए और कुछ नया समझने के लिए। वह शांतिपूर्वक, धैर्य के साथ कहीं भी, किसी भी जगह रह लेगा और बसर कर लेगा। लेकिन एक पर्यटक बिना शोर-शराबे के नहीं रह सकता। वह जहां जाएगा सबको बता देगा कि वह कुछ खास है। इस इलाके को उपकृत करने के मकसद से आया है। इसीलिए आप पाएंगे कि पर्यटन ने सारे संसार का नक्शा बिगाड़ दिया है। उसे भांति-भांति की शराब चाहिए, मस्ती चाहिए और हर तरह के व्यंजन। बैंकाक हो, मकाऊ हो, मनीला हो या दुबई, आज इसीलिए बदनाम हैं। लेकिन वहां की सरकारें इसे अच्छा समझती हैं।

यही हाल अपने देश में होता जा रहा है। पर राज्य सरकारें पैसों के लालच में पर्यटकों को लुभाने के लिए वह सब करती हैं जिनसे वहां की जलवायु प्रभावित होती है और संस्कृति का ढंाचा बिगड़ता है। आज अगर जगह-जगह परदेसियों को बाहर करने की मांग उठ रही है, उसके पीछे यही मानसिकता है। पर्यटक दक्षिण भारत में जाकर मटर-पनीर अथवा दाल मखानी या तंदूरी चिकन की मांग करेगा और उत्तर में आकर डोसा, वड़ा एवं इडली मांगेगा। उसे समझ में नहीं आता कि अपनी इस तरह की हरकत से वो बायो डायवर्सिटी को चैपट कर रहा है।

हमारे देश में बाघों को बचाने के लिए टाइगर प्रोजेक्ट की स्थापना उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1971 में कपूरथला के महाराजा ब्रजेंद्र सिंह की अगुआई में की थी। उसे राज्य सरकारों ने पैसों के लालच में चैपट कर डाला है। जिम कार्बेट जैसे अभयारण्य इन्हीं पर्यटकों की बेशुमार आवाजाही से खत्म होते जा रहे हैं। यदि जिम कार्बेट को बचाना है तो केंद्र सरकार इसे अपने हाथों में ले लेे और इसे अफसरों की बीवियों और धनाढ्य पर्यटकों के लिए सैरगाह न बनाए। यहां वही आ सकें जिनकी वाइल्ड लाइफ में दिलचस्पी हो वरना उन्हें गेट से ही बाहर कर दिया जाए। इसके लिए जिम कार्बेट के हर प्रवेश द्वार पर सुशिक्षित और प्रशिक्षित लोग रहें जो पर्यटकों को अंदर प्रवेश की अनुमति तभी दें जब वे खुद उनके संयम से संतुष्ट हो जाएं। दुख है कि उत्तराखंड सरकार जिम कार्बेट का व्यवसायीकरण करे डाल रही है। इस पर अंकुश बहुत जरूरी है।

अभी पिछली 25 दिसंबर को मेरा सपरिवार जिम कार्बेट जाने का कार्यक्रम बना। जिम कार्बेट के बारे में पहले मैंने अपने परिवार को पूरी जानकारी दी। हिमालय की तराई में शिवालिक पहाड़ियों के आसपास का सारा जंगल रामगंगा के दोनों तरफ लंबी-लंबी घास के जंगलों से घिरा है। इन्हीं घास के जंगलों में बाघ रहता है। सूर्य की रोशनी उसके शरीर में लंबी घास के बीच में से आती है। इसीलिए बाघ के शरीर में चारों तरफ लाइनें होती हैं। जबकि तेंदुआ सागौन के पेड़ों के ऊपर रहता है इसीलिए पत्तों के बीच से छनकर आई रोशनी उसे मिलती है। उसके बदन पर चित्तियां होती हैं। जंगल के कुछ कायदे-कानून होते हैं, उन्हें हमें फालो करना चाहिए। किसी भी अभयारण्य में हथियार लेकर अथवा कोई मादक पदार्थ लेकर नहीं जा सकते। अभयारण्य का मतलब ही है कि हम वाइल्ड लाइफ के बीच जा रहे हैं। यह उनका घर है इसलिए हमें उनकी सुविधा-असुविधा का ख्याल रखना चाहिए। हम वहां जंगल में गेस्ट हाउस के बाहर कुछ खाएं पीएंगे नहीं। कोई पोलीथीन नहीं इस्तेमाल करेंगे और कोई चीज फेंकेंगे नहीं। न ही हम वहां शोर-शराबा अथवा मोबाइल इस्तेमाल करेंगे।

सियासी मियार की रीपोर्ट