संभालें अधखिली कलियों को…
पेरैंट्स अपनी व्यस्तताओं के बीच अपनी बच्चियों के लिए समय क्यों नहीं निकाल पाते कि उम्र के नाजुक दौर में वे कोई गलत कदम न उठा पाएं…, क्यों पेरैंट्स नहीं समझ पाते कि अपनी बड़ी होती बच्चियों के सामने वे सही आचरण का उदाहरण बनें, ताकि बच्चों के मन में बगावत न उठे…, क्यों पेरैंट्स ऐसे नहीं बन पाते जिनसे वे अपने मन की बात बेहिचक कह पाएं और क्यों उनके एक कदम पर वे इस कद्र खफा हो जाते हैं कि उनकी जान तक लेने से नहीं हिचकिचाते।
दोस्त बनें:- बच्चे को जन्म देने से ही आप पेरैंट्स नहीं बन जाते, बल्कि दोस्तों की तरह उसकी समस्याओं, उलझनों और जरूरतों को महसूस करें तथा उन्हें न केवल सुलझाएं, बल्कि उसे समझाएं भी, क्योंकि आपका सही मार्गदर्शन उन्हें भटकने से बचा सकता है। समाज में घटती घटनाओं का उसके किशोर मन पर गहरा असर होता है। उसे एहसास दिलाएं कि आप हमेशा उसके साथ हैं और उस पर पूरा विश्वास करते हैं। उनके मन की उलझनों को सुलझाएं न कि उसके लिए उसे दोषी ठहराएं। उससे ऐसा व्यवहार करें कि घर का नौकर, कोई रिश्तेदार या फिर स्कूल में उसके साथ र्दुव्यवहार हो तो वह बेहिचक आपको बता सके, क्योंकि वह जानती है कि आप दोषी को सजा दिला कर उसे सुरक्षित भविष्य देंगे। शायद ऐसे ही हम अपनी अधखिली कलियों को बचा सकते हैं।
टीवी-इंटरनैट की दुनिया:- स्कूल से घर आने पर या तो उन्हें दरवाजे पर ताला मिलता है या फिर नौकर और आया मशीनी अंदाज में दरवाजा खोल उनका स्वागत करते हैं। मां कहां होती है जो पूछे कि स्कूल में आज क्या किया, दिन कैसा बीता, बेटा परेशान क्यों लग रही हो, कुछ हुआ है क्या या फिर तुम जल्दी से चेंज कर लो, फिर खाना खाते हुए दिन की डिटेल डिस्कस करते हैं।
अपनी महत्वाकांक्षाओं की दौड़ में पेरैंट्स ये कहां जानते हैं कि उनके बच्चे बढ़ती उम्र के साथ क्या सीख रहे हैं या किस राह पर जा रहे हैं। अपनों की दूरी और दिन भर का सूनापन उन्हें टीवी के रिमोट पर कोई चैनल देखने की स्वतंत्रता देता है और उनकी उंगलियों की एक क्लिक पर कई बार ऐसी दुनिया कम्प्यूटर पर खुल जाती है, जो उनकी उम्र के अनुसार नहीं होती और वे उसे देखते हुए उम्र से पहले परिपक्व हो, जीवन में उसका अनुभव भी पाना चाहते हैं।
ऐसे में अपनी ओर बढ़ा हाथ थामने से पहले उन्हें सोचने की समझ कहां होती है। ऐसे में यदि कहीं पेरैंट्स में से किसी एक के भी अवैध संबंध वे अपनी आंखों से देख लें तो बगावत ऐसी कि स्वयं भी उस रास्ते पर कदम उठा लेते हैं, क्योंकि पेरैंट्स से तो कुछ कह नहीं पाते। रास्ते दोनों के गलत हैं, परंतु परिणाम भुगतना पड़ता है कच्ची उम्र के इन बच्चों को जो उसके अंजाम से अनजान हैं।
एकल परिवार-अकेले बच्चे:- इसे निम्न से लेकर उच्च वर्ग तक की समस्या माना जा सकता है, क्योंकि एकल परिवारों में एक-दूसरे पर विश्वास की कमी होती है, रिश्तों के कई भ्रम हर दिन टूटते हैं। भौतिक सुविधाएं जुटाने को आज मां-बाप दोनों ही कामकाजी हैं और उनकी व्यस्तता में अकेले रह जाते हैं मासूम बच्चे।
झूठी इज्जत के भ्रम में जी रहे ये पेरैंट्स बच्चों विशेषत:- बेटियों की वास्तविक जरूरतों को समझ ही नहीं पाते। संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, ताऊ-ताई या चाचा-चाची के बीच पलते बच्चे कभी अकेलापन महसूस नहीं कर पाते थे और यदि कभी वे किसी तरह की मानसिक समस्या में घिरते भी तो दादा-दादी की पारखी नजर तुरंत उसे ताड़ कर समस्या का निदान कर देती।
बाहर का अपनापन है भटकाता:- 13 से 18 साल तक के किशोरों को सबसे ज्यादा जरूरत होती है इस बात की कि कोई उनका अपना हो, जिससे वह हर बात शेयर कर सकें। यही नहीं, इस उम्र में अक्सर किशोरों के इन मनोभावों का फायदा उठा लेते हैं बाहर के लोग, जो झूठा अपनापन और सहानुभूति जता कर उन्हें अपने वश में कर लेते हैं।
यही सब उनके
का कारण बन जाता है और शायद यही आधुनिक समाज की तस्वीर बन रही है कि कभी घर के नौकरों तो कभी बाहर के लोगों के साथ या तो अकेली रहती बेटियों के संबंध बन जाते हैं या फिर वे लोग उनका शोषण करने लगते हैं, क्योंकि जानते हैं कि पेरैंट्स के पास वक्त कहां कि उनकी शिकायत सुनें या उन पर विश्वास करें और यह सिलसिला शुरू हो जाता है, उस अवसाद के साथ उनके जीने का।
सियासी मियार की रीपोर्ट