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बंद गली

बंद गली

-जसविंदर शर्मा-

मैं मानती हूं कि मेरी इस उम्र में शरीर कई बीमारियों का घर बन जाता है परन्तु मेरी ज्ञानेन्द्रियों के साथ इन दिनों एक विशेष प्रकार की समस्या होती जा रही है। मैं लोगों को बताती हूं मगर वे यकीन नहीं करते। वे कहते हैं कि ऐसा भी कभी हो सकता है कि शरीर में आई इतनी बड़ी खराबी क्या कुछ देर बाद ठीक हो जाए और कुछ देर बाद फिर वैसी ही हो जाए।

मगर यह सच है कि साल के कुछ महीनों में मैं गूंगी तथा बहरी हो जाती हूं। ऐसा तब ही होता है जब मैं अपने बड़े बेटे रणबीर के पास शहर में जाकर रहती हूं। और जैसे ही मैं छह महीने बाद गांव में अपने छोटे बेटे बलबीर के पास आती हूं तो मेरी सुनने व बोलने की सारी शक्तियां लौट आती हैं और मैं सामान्य इनसान की तरह हो जाती हूं।

जब मैं शहर में बड़े बेटे के पास होती हूं तो छोटी बहू का फोन हर रोज आता है और वह मुझे गांव आने के लिए कहती रहती है। उसे मुझसे कोई खास लगाव नहीं है। उसकी नजर तो मेरी बीस हजार रुपए की मासिक पेंशन तथा मेरी बैंक में रखी एफडी पर रहती है। मेरे पास जो सोना है उसे यह खटका रहता है कि कहीं झांसे में आकर मैं बड़ी बहू को न दे दूं।

मेरे पास बहुत सारे जीवन के अनुभव, बातें व अनगिनत किस्से हैं मगर मेरे इतने बड़े कुनबे में किसी के पास समय नहीं है कि कुछ देर मेरे पास बैठकर मेरी कोई सलाह या अनुभव की बात सुने। ये सब लोग मेरे लिए अजनबी बन चुके हैं। शहर में तो मुझे पूरा दिन चुप होकर बैठना पड़ता है। जैसे आर्मी में किसी दूसरी यूनिट से आए सिपाही की हालत नए यूनिट में होती है, कोई उससे बात नहीं करता, वैसे ही शहर के घर में मेरे साथ बुरा व्यवहार होता है। सारा दिन मैं अपने मुंह, कान, दिमाग और आंखें बन्द करके पड़ी रहती हूं।

शहर में हर तरह आसमान को छूते कंकरीट के जंगल सरीखे फ्लैट ही फ्लैट खड़े हैं। बेटे रणबीर का गुलमोहर सोसायटी में चार कमरों वाला फ्लैट है। वे मुझे सात गुणा सात फुट का अन्दर वाला छोटा-सा सुनसान, अंधेरा और बेरौनक-सा कमरा देते हैं जिसमें बामुश्किल एक बेड आ सकता है। इस कमरे में बाहर की दुनिया से जोडऩे वाली केवल एक छोटी-सी खिड़की है जहां से इस गुलमोहर सोसायटी का मुख्य बड़ा पार्क नजर आता है। वहां से देखकर मैं छह महीने का समय काटती हूं।

यहां समय काटना ही सबसे बड़ी समस्या है मेरे लिए। मैं टी वी वाले कमरे में नहीं जा सकती, मेहमान वाले लिविंग रूम में मेरी जाने की मनाही है। मैं बाहर के गैलरी वाले बरामदे में उठ, बैठ या टहल नहीं सकती क्योंकि ऐसा यहां कोई नहीं करता। छत पर तो जाने का सवाल ही नहीं उठता। अब मेरे में इतना दमखम कहां है। सब के सब अन्दर से कुंडी लगाकर रखते हैं, जैसे जेल में बन्द कैदी हों। मजाल है किसी को किसी की शक्ल नजर आ जाए।

मुझे समय पर भोजन मिलता है। कोई यह नहीं पूछता कि मुझे क्या खाना अच्छा लगता है। रसोई वाली जो कुछ बनाकर मेरे सम्मुख रखती है, मैं वह खा लेती हूं। मैं उससे बात करूं तो उसके पास भी समय नहीं है मुझसे सिर खपाने का। वह मुझ पर झल्ला पड़ती है। जब मेरे अपने ही मुझसे कोई बात करके राजी नहीं तो फिर वह तो बेगाना जीव है। मेरे पास एक पुराना -सा रेडियो है। कभी-कभार उसके पुराने घिसे हुए बटन मरोड़ती हूं तो उसमे से घर्र-घर्र की कुछ गाने जैसी आवाज आती है। कभी मुझे अच्छी लगती है तो कुछ देर सुन लेती हूं। आज का शोर वाला संगीत सहन कर पाना मेरे बूते की बात नहीं है।

यहां की कालकोठरी में मेरे लिए एक सुखद समय सिर्फ वही होता है जब इस सोसायटी के ये पत्थरदिल इनसान होली का त्योहार मनाते हैं। उस दिन पता नहीं कैसे ये तालाबन्द दिलों वाले लोग झुण्ड के झुण्ड बाहर खुले पार्क में नमूदार होते हैं और बनावटी चेहरे से खोखली हंसी हंसते हैं।

सुना था कि सांप सारी सर्दियों में अपने बिल में रहकर समय काट देता है और गर्मी आने पर बाहर आकर अपनी केंचुली छोड़ता है। वैसे ही ये हर वक्त घर के अन्दर दुबके रहने वाले लोग अपनी केंचुली उतारकर होली के दिन खुले में जश्न मनाते हैं।

उस दिन मै पूरा दिन खिड़की से चिपकी यह अद्भुत नजारा देखती रहती हूं। ये लोग अपने खोल से बाहर आते हैं मगर इनकी सारी खुशी व हुड़दंग नकली और खोखला दिखता है। अपने घर में ये किसी का आना सहन नहीं करते क्योंकि इनके कीमती कालीन तथा सोफे खराब हो सकते हैं। होली के दिन न ही ये अपने घर में कोई मीठी गुजिया, चाट पापड़ी या पकोड़े आदि बनाते हें। सारा ताम झाम बाहर होटल से मंगवाया जाता है-वो बेकार सी नूडल, पिज्जा व डोखला वगैरा।

ऐसा ही आयोजन ये लोग नए साल के आगमन पर भी करते हैं। दो सौ के लगभग लोग पार्क में जमा होते हैं। स्टेज पर पता नहीं किस तरह का गाना-बजाना होता है, शोर-शराबा अधिक सुनाई देता है। सात-आठ स्थान पर आग जलाते हैं, शराब पीते हैं और वहीं नूडल, पीजा और पेस्टरी आदि से पेट भरते हैं। साल की शुभकामनाएं देकर अपने-अपने दड़बों में घुस जाते हैं और फिर अगले साल ही मिलते हैं।

मुझ जैसे बूढ़ों का ऐसे आयोजनों में जाना वर्जित है। हम न तो अन्य बूढ़ों से मिल सकते हैं और न ही किसी अन्य पीढ़ी के लोगों से। हर कोई बूढ़ा इतनी अलग-अलग जगह टंगा हुआ है, कोई पन्द्रहवीं मंजिल पर है तो कोई आठवीं पर। नई पीढ़ी तो अंग्रेजी में ही गिटपिट करती है और उनके मां-बाप भी उन जैसे ही हो गए हैं मानो सब के सब किसी दूसरे देश के बाशिन्दे हों।

तभी तो मेरे साथ यही समस्या आ जाती है जिस का बयान मैंने कहानी के शुरू में किया था। मैं सब कुछ देख सकती हूं, सब कुछ महसूस कर सकती हूं मगर मैं न तो सुन सकती हूं और न ही बोल सकती हूं। बोलूं तो क्या बोलूं, किस से बोलूं और किस जुबान में बोलूं, सब कुछ अनजाना और अबूझ है चारों तरफ।

मैंने अपना सारा जीवन गांव में ही काटा है। मेहनत से बच्चों को पढ़ाया। जब तक मेरे पति जिन्दा थे, सब कुछ ठीक था मगर अब मेरी उम्र पिचासी से ज्यादा हो गई है। अब घर की कमान मेरे हाथ में नहीं है। अब मैं कमजोर हूं, चलने फिरने में असमर्थ हूं और दूसरों पर पूरी तरह से निर्भर हूं। अब मैं एक प्रकार से सब पर बोझ बन गई हूं।

अन्य बुजुर्गों के बनिस्पत मेरे पास अपना कहने को थोड़ा सोना है, बैक में पैसा है और मासिक पेंशन है जिसकी गर्ज ये अपने लोग भी मुझे थोड़ा-बहुत पूछते हैं। अगर मैं आर्थिक रूप से पूरी तरह उन पर आश्रित होती तो अब तक कब की भुगत गई होती। कौन महंगे अस्पतालों में मेरा इलाज करवाता।

अब भी मेरे लिए सुकून की बात है कि जब मैं गांव में अपने छोटे लड़के बलबीर के पास होती हूं तो मुझे बहुत कम दिक्कतें पेश आती हैं। मेरी कई सहेलियां आकर मेरे पास बैठती हैं, मुझे अपने साथ ले जाती हैं, गपशप होती है, हंसी ठिठोली होती है। इससे मेरा समय अच्छा गुजरता है। घर के लोगों की उपेक्षा भरी बातें दिमागमें नहीं घुमड़तीं।

समय के साथ-साथ मेरी दोनों बहुओं में खींचतान बढ़ती जा रही है कि कौन मुझे ज्यादा देर तक अपने साथ रखेगी। मुझ से कोई खास लेना-देना नहीं है उन्हें। उन्हें मेरे पास बैंक में रखे नोटों से सरोकार है या मेरी पेंशन की चिन्ता है। मैं जहां रहती हूं पेंशन उन्हें ही देती हूं। तभी तो दोनों बहुओं में एक अलिखित समझौता हो चुका है कि छह महीने मैं एक के पास रहूंगी और छह महीने के बाद दूसरी बहू के पास। एक दिन ज्यादा नहीं हो सकता इस हिसाब- किताब में। पिछले कई सालों में मेरा यही सफर है रोलिंग स्टोन की तरह-इधर से उधर। मेरी मर्जी कोई नहीं पूछता कि मैं क्या चाहती हूं। मैं भी मुंह बन्द करके यह सारा तमाशा देखती रहती हूं।

छोटा-सा पौधा होता तो आसानी से कोई भी मुझे उखाड़कर इधर से उधर रोप लेता। मगर मैं तो पूरा वृक्ष बन चुकी हूं। शहर जाती हूं तो मेरी कई जड़ें गांव में ही रह जाती हैं। वहां के कंकरीट के जंगल में पुराने तो क्या, नए पौधे नहीं पनप पाते। वहां के पत्थर घरों में इनसान नहीं, रोबोट सरीखे मशीनी मानव रहते हैं जो दिन-रात चूहा दौड़ में ही रहते हैं। तभी तो मैं वहां जाकर सूखने लगती हूं, कुम्हला जाती हूं और अपनी मौत आने से पहले ही मर-मर कर दिन काटती हूं। और उधर गांव में कृष्णा, कमला, जानकी और मेरी अन्य सहेलियां हैं। तभी तो मेरी आवाज छह महीने कुन्द हो जाती है। गांव आकर मैं खुलकर बोलती हूं, प्यार भरी नजरों से दुनिया को देखती हूं, अपनों की आवाजें सुनती हूं। जो मैं कहती हूं, वे सुनते हैं। और मैं जीवंत हां उठती हूं।

सियासी मियार की रीपोर्ट