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किताबों से गूगल संस्कृति तक…

किताबों से गूगल संस्कृति तक…

-ऋषभ कुमार मिश्र-

‘विद्यालय सरकारी’ से लेकर ‘इण्टरनेशनल’ तक अपने अनेक कलेवर के साथ हमारी जरूरत बन गया है। बच्चे के छह वर्ष की उम्र के आसपास पहुंचते ही अभिभावक के जीवन में एक बार पुनः विद्यालय का पदार्पण इस सवाल के साथ होता है कि बच्चे को किस स्कूल में प्रवेश दिलाएं? अभिभावक की इस चिंता का मूल उसके दिमाग में घर कर बैठा वह विश्वास है जिसके अनुसार शिक्षा और ज्ञान का ब्रह्मास्त्र विद्यालय की प्रयोगशाला में ही तैयार होता है। शिक्षा क्या है? और क्यों है? इस सवाल के उत्तर को खोजने का यह लोकप्रिय नाजरिया बच्चे को सीखने की दुनिया के संस्थागत ढांचों जैसे-विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में ढकेलता है। विद्यालय से यह परिचय और सहभागिता लगातार इस भ्रम को बनाये रखते हैं कि यह संस्थागत हस्तक्षेप अबोध बालक को सुबोध नागरिक बनाएगा। यहां ध्यान देने योग्य है कि दोनों ही स्थापनाएं- अबोध बालक और सुबोध नागरिक मिथक हैं और ऐसे समाज की देन है जो ज्ञान और प्रकारांतर से जीवन को उपयोगितावादी बना देती हैं। सुबोध नागरिक बनने और बनाने की चाह और इसके लिए विद्यालय की फैक्ट्रियों में हो रहे निर्माण ने जीवन में जड़ता को भर दिया है, जड़ता जो तथाकथित सफलता का आघूर्ण है, जो जीवन की नैसर्गिक यात्रा को त्वरित कर उसके प्रवाह को विच्छिन्न कर रहा है, जो व्यक्ति को उसकी जड़ों से काटकर केवल पत्तों को सींच रहा है, जो उत्साही किंतु प्रतिस्पर्धी और बाजारोन्मुख मस्तिष्क की रचना करने में व्यस्त है। बड़ा सवाल है कि आखिर सीखने में यह यांत्रिकता और जड़ता क्यों है?

सीखना एक स्वाभाविक और नैसर्गिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में कृत्रिमता के जो पक्ष आप देखते हैं काफी हद तक उसका प्रवेश विद्यालय के द्वारा ही होता है। इस कृत्रिमता का प्रथम लक्षण विद्यार्थियों को सूचनाओं के जाल में फंसाना है। विद्यार्थी भी अपना अधिकतम समय इस जाल से सूचनाओं को छांटने, उन्हें याददाश्त के बैंक में जमा करने और इस जमा पूंजी के निवेश करने के तरीकों को सीखने में लगा देते हैं। खुद के और अपने बच्चों के विद्यालयी अनुभवों को खंगालिए तो आप पाएगें कि पिछली आधी शताब्दी में केवल सूचना के स्रोत और उस स्रोत तक शिक्षार्थी को पहुंचाने के तरीके बदले हैं। हम किताबों की संस्कृति से अब गूगल संस्कृति तक पहुंच चुके हैं लेकिन इस यात्रा में हमारी चेतना ने अपना चोला नहीं बदला है वह अभी भी विकास की भौतिकवादी सीढियों को पार करने को उतावली है। ऐसी सीढ़ी जिसके हर कदम पर केवल मैं है जो दूसरे के होने से विचलित हो जाता है और भागकर सबसे पहले उस मंजिल को हासिल कर लेना चाहता है जो मृगमरीचिका की तरह किसी को भी आज तक प्राप्त नहीं हुई। इस दौड़ ने समाज और विद्यालय के बीच एक दीवार खड़ी कर दी है जहां विद्यालय का दायित्व बन गया है कि वह न केवल हमें समाज के दैनिक सरोकारों में उलझने से बचाए बल्कि उपलब्धि की अंधी दौड़ का विजेता बनने की ट्रेनिंग दे।

विद्यालय की रचना जिन तत्वों से हुई हैं वे सभी समाज और विद्यालय के बीच की दीवार को मजबूत करने का कार्य करते हैं। विद्यालय में प्रवेश के साथ ही हर व्यक्ति या तो विद्यार्थी बन जाता है या शिक्षक। विद्यालय के ये दोनों भागीदार विद्यालय आने से पूर्व अपने रोजमर्रा के अनुभवों की पोटली को विद्यालय और समाज के बीच की दीवार पर टांग देते हैं और एक असामाजिक, असांस्कृतिक और अराजनैतिक व्यक्ति के रूप में विद्यालय के अंदर कदम रखते हैं। ये दोनों भागीदार विद्यालयी जीवन के इतने जबर्दस्त अभ्यस्त बन चुके होते हैं कि वे बिना समय गंवाएं क्रमशः सीखने और सिखाने में जुट जाते हैं। चूंकि उनके अनुभवों की पोटली तो विद्यालय के बाहर है तो अब उन्हें किताबों की नई दुनिया उपलब्ध कराई जाती है जो पाठ्यचर्या के पन्नों में बंधी हुई है और काले छपे अक्षरों को पढने से खुलती है। इस नई दुनिया को अपनाने की प्रक्रिया में लगा विद्यार्थी, खुद को अपनी दुनिया से काट लेता है और अपना सब कुछ किताबों में बसने वाले ज्ञान को जानने और समझने में झोंक देता है। यदि विद्यालय को ऐसा आभास होता है कि विद्यार्थी अपने को अपनी दुनिया से काट नहीं पा रहा है तो वह अनुशासन की कैंची से कटाई-छटाई करके व्यक्ति को विद्यालय की दुनिया में फिट कर देता है। किताबों में डूबा बचपन किताबों से पार भी नहीं जाना चाहता क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनके सफलता का तिलस्मी खजाना किताबों की चाभी से ही खुलता है। इस प्रकार से विद्यालय, समाज से अपने आप को अलग करते हुए मान कर चलता है कि हम जो जानते हैं वही पढ़ाते है और हम श्रेष्ठ ही जानते हैं। वस्तुतः होता इसका उल्टा है हम जो होते हैं वही करते हैं। होने और करने की इन प्रक्रियाओं के बीच विद्यालय में पढना और पढ़ाना एक बहुत ही छोटा हिस्सा है लेकिन हम सभी केवल इसी छोटे हिस्से को मांजने और चमकाने में लगे हैं। विद्यालय के बाहर की वह दुनिया जो हमारे जीवन का प्राण है वह छूटती जा रही है जिसका नतीजा है कि हमारे पहचान की सारी रचनाएं विद्यालय की उपलब्धियों के चारों ओर बुन दी जा रही हैं जिसे हम ताउम्र ढोने को तत्पर हैं।

दुनिया का कोई भी विद्यालय बाल विरोधी नहीं होना चाहता है। लेकिन न मालूम क्यों कोई भी बच्चा विद्यालय में रहना नहीं चाहता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि विद्यालय भी समाज के अपेक्षाओं के बोझ के तले दबे हैं! ये अपेक्षाएं उत्कृष्टता के उन पैमानों का प्रतिफल है जो हमारे अपने नहीं है। बल्कि उनके हैं जिनके जैसा हम अपने बच्चों को बनाना चाहते हैं। ज्यादातर हम अपने बच्चों को वैसा ही बनाना चाहते हंै जो हम स्वयं बन नहीं पाये। होने और बनने की इस दुविधा में बच्चा भी फंसा हुआ है और इस दुविधा को दूर करने में विद्यालय भी जुटा हुआ है। इसके लिए विद्यालय ने एक पूरे तंत्र का विकास कर लिया है जहां प्रवेश, परीक्षा और प्रमाण-पत्र का सतत चक्र चल रहा है। ये तीनों ही गेट पास अपने क्रिया-करण, रीतियों व नीतियों के द्वारा विद्यालय को समाज से तो अलग कर ही रहे हैं साथ ही साथ इस चक्र से गुजरने वाले विद्यार्थियों को उनके लोक से भी अलग कर दे रहे हैं। इस तर्क का उदाहरण किसी भी विद्यालय के विज्ञापन में देख सकते हैं। आज कल तो इण्टरनेशनल विद्यालयों की बाढ़ आ गई है। ऐसे विद्यालय उन्हीं चीजों को महत्वपूर्ण बताते हैं जो विद्यार्थी के अपने परिवेश में नहीं हैं यथा-विद्यालय का अंग्रेजी माध्यम में होना, वाहन का होना, ए.सी. का होना आदि। इस दृष्टि से विद्यालय की प्रतिष्ठा का मानदंड इस बात से तय होता है कि वह विद्यार्थी को उसके परिवेश से कितना दूर ले जाने की संभावना रखता है? बाजार ने समाज और विद्यालय के बीच की दीवार को और भी ऊंचा किया है। इसी बाजार की उपज इण्टरनेशल स्कूलों ने तो उन खिड़कियों को भी बंद कर दिया है जिनसे कभी-कभार समाज विद्यालय में और विद्यालय समाज को झांक आया करता था। बाजार के प्रभाव में विद्यालयों ने अपने भागीदारों, शिक्षक और शिक्षार्थी को, ज्ञानमार्गी बना दिया है लेकिन यहां ज्ञान, जिज्ञासा को बनाए रखने और सीखने की ललक जगाए रखने के लिए नहीं है बल्कि वह तटस्थ, निरपेक्ष और सार्वभौमिक है। ज्ञान के अंतिम सत्य के माध्यम से वे सभी सुविधाओं को इकट्ठा कर लेना चाहते हैं जो समाज में उनका आभामंडल बनाने में मदद करे। इस ज्ञान मार्ग द्वारा विद्यालय सरल कार्य को जटिल बना देता है। वह सरलता और स्वाभाविकता के बदले शब्द जाल द्वारा एक माया की रचना करता है। माना कि बौद्धिक चिंतन और उत्कर्ष के लिए ज्ञानानुशासन और शोध में जटिलता होनी चाहिए। लेकिन इस जटिलता की भूमिका एक दुनिया को दूसरे दुनिया से अलग करने की नहीं है बल्कि एक दृष्टि को प्रदान करने की है जिससे आप अपनी दुनिया को जान सके और दूसरे को उसकी दुनिया जानने में सहयोग कर सके। यह तभी सभंव है जब शिक्षा और विद्यालय को अपेक्षाओं के बोझ से मुक्त किया जाए। वे अपेक्षाएं जो बाजार के प्रभाव में समाज में उपजती हैं और जो समाज और विद्यालय के बीच की दीवार को मजबूत करती है। अपनी वर्तमान और भावी पीढ़ी को दुनिया का अर्थ विद्यालय की चहारदीवारी के बाहर की वास्तविक दुनिया के माध्यम से समझाना होगा तभी हम यथास्थिति को बदलने का हौसला रखने वाले जिज्ञासु, सक्रिय और स्वतंत्रचेता व्यक्तित्व का निर्माण कर पाएंगे।

(सहायक प्रोफेसर शिक्षा विभाग, म.गा.अ.हि.वि.वि, वर्धा)

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