Monday , December 30 2024

रबरबैंड..

रबरबैंड..

उसका बिस्तर से उठने का मन नहीं कर रहा था। करवट लेने पर उसे लगा कि बिस्तर बेहद ठंडा है। उसने आंखों पर हाथ रखा, उसे वे भी ठंडी लगीं पलकें उसे भीगी लग रही थीं। तो क्या वह रो रही थी?

नहीं, वह क्यों रोएगी? और उसने फिर अपनी पलकों को छुआ। उसने पलकें झपकाईं। उसे बहुत खिंचाव का अनुभव हो रहा था। वह चाहकर भी पूरी तरह आंख नहीं खोल पा रही थी मानो किसी ने जबरदस्ती उसकी पलकें पकड़ लीं हों। उसे लगा उसे बाथरूम में जाकर वॉश कर लेना चाहिए। पर वह नहीं चाह रही थी कि दिन इतनी जल्दी शुरू हो जाय। रात कैसे इतनी जल्दी खत्म हो गई? उसे लग रहा था कि यह पहाड़-सा दिन उससे काटे नहीं कटेगा।

उसकी पीठ के नीचे कुछ चुभ रहा था। हाथ डालकर देखा उसकी चोटी का रबर बैण्ड था। उसने अपनी चोटी आगे की ओर कर ली और तभी उसे खयाल आया कि वह सारी रात अजीबो-गरीब सपने देखती रही है। किसी ने उसके बाल काट दिए हैं उसको सपने वाली अपनी शक्ल याद आ रही थी उफ कितनी घृणित लग रही थी वह। उसने याद करने की कोशिश की, वह बाल काटने वाला कौन था? उसकी शक्ल बहुत-कुछ भाई से मिलती-जुलती थी। उस भाई जैसी शक्ल वाले ने उसके बाल काटकर उसे खम्भे से बांध दिया था। और उसे सैमसन याद आ रहा था।

उसकी हालत ठीक सैमसन की तरह हो रही थी वह चीखती जा रही थी और जोर-जोर से खम्भे को हिलाने की कोशिश कर रही थी। उसने आंखें बन्द कर लीं। उसके सामने सपने वाला दृश्य ज्यों-का-त्यों आ गया था। उसे लग रहा था कि उसमें सैमसन वाली शक्ति क्यों नहीं आ गई थी काश वह खम्भे को गिरा सकती। और तभी उसे लगा कि वह बेकार की बातें सोच रही हैं। सपना केवल सपना होता है किसी सपने का कोई अर्थ नहीं होता और यदि होता भी है तो कम-से-कम आज के दिन उसे कुछ नहीं समझना हैं।

उसने जीभ अपने गालों पर फिराई। उसे महसूस हो रहा था कि उसने मुंह से दुर्गन्ध आ रही है। उसे लगा कि उसे ब्रश कर ही लेना चाहिए। वह झटके से उठकर बिस्तर पर बैठ गई और अपने पैर नीचे लटका दिए। ठंडी-ठंडी जमीम का स्पर्श पा उसके सारे शरीर में झुनझुनी-सी पैदा हो गई। पर उसको वह ताजा ठंडा-ठंडा स्पर्श भला लग रहा था। वह कल रात की बात सोच रही थी और उसे भाई की बात याद हो आई। मां की चिन्तित मुख-मुद्र पतिा का बूढ़ा खांसता चेहरा उसे लगा कि अब घर की हरेक चीज ठण्डी हो गई है और जो नहीं भी हुई है वह भी जल्दी ही हो जाएगी।

उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। रसोईघर से बरतनों को रखने की आवाज आ रही थी। मां जरूर गुस्सा होंगी। मां सारी रात-भर कैसे सो पाई होंगी उसे समझ नहीं आ रहा था। वह रात को पानी पीने उठी थी तो साथ वाले कमरे से पिता की खांसी की आवाज आ रहा थी और बीच-बीच में पता नहीं मां क्या बोल रही थीं जो वह नहीं सुन पाई थी और न सुनने की कोशिश ही की थी। उसे बेहद प्यास लग रही थी और वह मटके में से दो गिलास पानी निकालकर गटागट पी गई थी। उसने सोने से पहले मीनू की तरफ देखा था जो बेखबर उसकी साथ वाली चारपाई पर सो रही थी। फिर उसे भाई का खयाल हो आया था और इससे पहले कि वह भाई के निश्चय की बात याद करती उसने आंखें बन्द कर ली थीं। वह केवल सो जाना चाहती थी वह भूल जाना चाहती थी कि भाई कल रात के प्लेन से कनाडा जा रहे हैं और उन्होंने मां से स्पष्ट कह दिया है कि वे आर्थिक तौर पर अब कुछ भी सहायता नहीं कर पाएंगे। भाई ने ऐसा निश्चय क्यों कर लिया, उसे समझ नहीं आ रहा था। उसने सोचा था कि वह भाई से इसका कारण पूछेगी, पर भाभी की मुद्रा देखकर उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी और वह बिना कुछ कहे सो गई थी।

अब साथ वाले कमरे से खांसी की आवाज तेज हो गई थी। वह बिस्तर पर से उठी और बाथरूम में घुस गई। आंखों पर उसने ढेर सारी ठंडे पानी की छीटें मारीं। उसे लग रहा था कि अब आंखों का खिंचाव कुछ कम हो गया है। बाहर बरामदे में भाई की जोर-जोर से ब्रश करने की आवाज आ रही थी। यह आवाज कल नहीं आएगी। उसने सोचने की कोशिश की। बिना भाई, भाभी और बेटू के घर कैसा लगेगा? केवल मां, वह, मीनू और रिटायर्ड पिता की खांसी रह जाएगी। उसने अब ब्रश करना शुरू कर दिया था।
नीतू!! मां रसोईघर से पुकार रही थीं।
हूं!! उसका मुंह पेस्ट के झाग से भरा हुआ था।
नीतू!! और उसे गुस्सा आ रहा था। मां इतनी जल्दी बेताब क्यों हो जाती हैं?
उसने जल्दी-जल्दी दांतों पर ब्रश घिसा और कुल्ला कर रसोईघर में पहुंच गई।
क्या है? उसकी आवाज कठोर हो गई थी और उसने दूसरे ही क्षण सोचा कि इस तरह से बोलने के कारण उसे अब डांट पड़ेगी। पर मां उसी तरह आलू छीलती रहीं।
चाय बना दे।

उसने स्टोव में पम्प भरना शुरू कर दिया। उसने मां के चेहरे की तरफ देखा। मां किसी गहरे सोच में थीं। उसे लगा कि कल रात से मां अब अधिक बुढ्ढी लगने लगी हैं। उसने ध्यान से देखा, उसे लगा ठोड़ी के पास मां की झुर्रियां बढ़ गई हैं। मां का पल्ला कन्धे पर गिर गया था और उनके अध-खिचड़ी बाल इस तरह से बिखर आए थे कि वह अपनी उम्र से करीब दस-पन्द्रह वर्ष बड़ी लग रही थीं। वह पम्प भरती चली जा रही थी और मां के कांपते हुए हाथों से आलू छीलना देखती जा रही थी।
मरेगी क्या? मां लगभग चीख पड़ी थीं।

और उसे ध्यान आया कि वह मां की मुद्रा देखने में इतनी व्यस्त थी कि बेतहाशा पम्प भरे जा रही थी। क्या अच्छा होता यदि यह स्टोव फट पड़ता। खत्म हो जाय यह झंझट, यह उदासी, आतंक और अनिश्चय की स्थिति। उसे ध्यान आया कि यदि स्टोव फट पड़ता तो वही नहीं मां भी आग की लपेट में आ जातीं। अच्छा ही होता। उससे मां का दुख देखा नहीं जाता। उसने स्टोव पर पानी चढ़ा दिया था। वह अब प्याले लगा रही थी।

मां, तुम कुछ सोच रही हो।
नहीं तो।
तुम कहो तो मैं। और वह आगे नहीं बोल सकी, यह सोचकर कि मां को धक्का लगेगा।
तू क्या?
जवाब में वह चुप रही।
बोल, तू क्या? मां अधीर हो रही थीं। उसे लगा कि यदि वह जवाब नहीं देगी तो शायद मां रो पड़ें।
मैं सोच रही थी कि बलजीत कौर से कहकर देखूं, मुझे अपने स्कूल में जगह दे सकती है। वह डरते-डरते बोल ही पड़ी।
क्या? मां को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था।
इसमें हर्ज ही क्या है?
मैं तेरी रोटियां खाऊंगी?
मां, तुम समझने की कोशिश करो। उसे लग रहा था कि वह मां से सात-आठ साल बड़ी हो गई है। मां की आंखें गीली हो गई थीं। उसे बुरा लग रहा था कि उसने ऐसा क्यों कहा। कल से उसे मां पर बहुत दया आ रही थी।
मैं मर जाऊं तब जो जी में आए करना। उसका मन हुआ कि वह मां को झकझोर कर रख दे। पर वह स्टोव की नीली-हरी लौ की ओर एकटक देखती रही। उसने फिर मां की ओर देखा। उनके चेहरे पर आतंक और पीड़ा नाच रही थी। उसका मन कर रहा था कि दूसरे कमरे में जाकर भाई से खूब जोर-जोर से लड़े ठीक वैसे ही जैसे सात साल पहले वह अपनी मिठाई के हिस्से के लिए लड़ती थी।
चाय बन गई? भाई तौलिए से रगड़-रगड़कर मुंह पोंछ रहे थे।
दोनों में से किसी ने जवाब नहीं दिया। वह सोच रही थी कि मां जवाब दे देंगी, पर मां केवल आटा गूंधती रहीं।
कितनी देर है?
उसे लगा अब उसे बोलना ही पड़ेगा। बस अभी लाई।
जरा जल्दी कर। और भाई बैठक में चले गए थे।
उसने केतली में पत्ती डाली और चाय बनाई।
आलू के पराठे बना रही हो? मां आलू मीस रही थीं।
हां, ला थोड़ी-सी कुरैरी भी भून दूं। उसे मालूम था कि भाई को नाश्ते में आलू के पराठे बेहद पसन्द हैं। उसने चाय की ट्रे ले जाकर सेंटर-टेबल पर रख दी।
नीतू, जरा बिस्कुट का डिब्बा ले आ मेरी अलमारी सेय चाय मैं बना देती हूं। भाभी सोफे पर से उठती हुई बोलीं। वह भाभी के कमरे में चली गई। उसने चारों ओर नजर घुमाई। कमरा कितना खाली-खाली लग रहा था। भाई का सारा सामान पैक हो गया था। उसने अलमारी खोली। पूरी अलमारी में केवल एक बिस्कुट के डिब्बे और सिलाई की मशीन के सिवाय कुछ न था।
यह लो। वह डिब्बा थमाते हुए बोली। भाभी ने चाय बना दी थी।
उसने एक सिप लिया।
चाय बहुत स्ट्रांग है। भाभी के माथे पर दो-तीन रेखाएं खिंच गई थीं। सुबह-सुबह अपनी बुराई सुनना उसे भला नहीं लगा और बिना कुछ कहे वह अन्दर चली गई।
रसोईघर से घी की महक आ रही थी। मां ने चार-पांच पराठे सेंक लिए थे।
मुझे बुलाया क्यों नहीं? उसे समझ नहीं आ रहा था कि इतने सारे पराठे सेंकने के बावजूद भी न मां ने उसे आवाज ही दी थी और न खुद ही लेकर आई। उसकी नजर फिर मां के चेहरे पर टिक गई।
पिताजी को चाय पहुंचा दी है? मां अनसुना करती हुई बोलीं।
ओह, मैं भूल ही गई। और वह बिना पराठे लिये ही बैठक की ओर भाग गई।
कमरे में उसकी उपस्थिति का भान होने के बावजूद भी पिता ने सिर ऊपर नहीं उठाया था।
चाय पी लो। उसने प्याला तिपाई पर रखते हुए कहा।
ऊं? पिता कुछ इस तरह से चैंके मानो लम्बी नींद से जागे हों।
अभी पी लो, नहीं तो ठंडी हो जाएगी। और उसने गौर किया कि पिता ने अखबार को तह करके इस तरह से रख दिया था मानो सारीं खबरें पढ़ चुके हों। उसे विश्वास हो गया था कि जब वह कमरे में घुसी थीं तो उनकी झुकी हुई आंखें अखबार नहीं पढ़ रही थीं बल्कि कुछ सोच रही थीं। उसका मन कह रहा था कि जो बात उसने मां से कही हैं वही बात पिता से भी कहकर देखे, पर उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

प्लेन कितने बजे है? वे प्याला प्लेट पर रखते हुए बोले।
शाम के सात बजे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये पहाड़-से दस घंटे कैसे कटेंगे।
तू भी हवाई अड्डे जा रही है? पिता कुछ इस ढंग से पूछ रहे थे मानो कह रहे हों तू भी कनाडा जा रही है।
पता नहीं, भाई से पूछूंगी। उसने देखा कि चाय का बाकी आधा प्याला पिता ने एक घूंट में खाली कर दिया है।
और लाऊं? उसे लगा उसने यह सवाल बेकार किया है क्योंकि वे हमेशा दो कप चाय पीते हैं।
नहीं, इच्छा नहीं है।
क्यों?
और जवाब में पिता की खांसी का सिलसिला फिर शुरू हो गया। उसने प्याला उठाया और चैके के नल के नीचे रख दिया।
बुआजी, ममी कह रही हैं इसमें बटन टांक दो। बेटू अपनी बुश्शर्ट लेकर खड़ा हुआ था। उसने बेटू के हाथ से बुश्शर्ट ले ली। बटन टांकते हुए उसने गौर किया बेटू ध्यान से उसकी सुई का चलाना देख रहा था। न जाने क्यों सहसा उसने बेटू को पास खींचकर प्यार कर लिया।
बेटू, तू कब आएगा?
चार साल बाद। उसने अपनी पांचों उंगलियां हवा में नचा दीं। और उसे खयाल आया कि भाई ने कहा था, बेटू बड़ा हो रहा है मुझे उसका भी तो हिसाब देखना है। मैं पैसे भेजने के बारे में कुछ नहीं कह सकता।
पर और पिता न जाने क्या सोचकर चुप हो गए थे।

उसने एक बार फिर बेटू की तरफ देखा। उसे लगा कि सारे झगड़े की जड़ वही है। पर फिर भी वह उसे दोषी नहीं कर पा रही थी।

उसने बाहर बरामदे में देखा। मनीप्लांट की बेल के ऊपरी भाग पर धूप पड़ रही थी। तो क्या अभी दस ही बजे हैं? मनीप्लांट की वह बेल उसकी घड़ी का काम देती थी। बरामदे में बैठकर पढ़ने से उसे अन्दाजा हो गया था कि जब धूप ऊपर वाले हिस्से पर पड़ती है तब दस बजता है और जब बीच में पड़ती है तब एक और जब नीचे होती है तब तीन या चार का समय होता है। उसे लग रहा था कि धूप बहुत धीरे-धीरे खिसक रही हैं। उसका मन कर रहा था कि किसी तरह से सूरज के गोले को पश्चिम की ओर घुमा दे ताकि यह दिन जल्दी खत्म हो। वह मां को नार्मल देखना चाहती थी और खुद नार्मल हो जाना चाहती थी। भाई के जाने के बाद क्या होगा वाली स्थिति जितनी जल्दी आ जाए उतना ही अच्छा है। कम-से-कम इस अनिश्चय की स्थिति से तो छुटकारा मिलेगा।

वह बरामदे में चली आई। उसकी नजर एक बार फिर मनीप्लांट के पत्तों पर गई। पत्तों पर धूल जम रही थी। उसने हाथ से एक बड़े पत्ते पर लकीर बनाई। छिः कितने गन्दे हो रहे हैं। और वह पानी लेने चली गई। उसने ढेर सारा पानी गमले में डाल दिया। वह अब ऊपर के पत्तों को धो रही थी। वह पत्तों पर इस तेजी से पानी डाल रही थी माने पत्तों को धो नहीं रही हो बल्कि उस धूप को नीचे खिसकाने की कोशिश कर रही हो जो ऊपर वाले पत्तों पर नाच रही थी।

स्नेह हैं?
उसने पीछे मुड़कर देखा। भाभी की कोई सहेली पूछ रही थी। उसने अपने हाथ का लोटा नीचे रख दिया। पानी डालते-डालते उसकी सलवार के पायंचे गीले हो गए थे। उसे बड़ी शर्म आ रही थी क्या सोच रहा होगा वह आदमी जो उसके संग खड़ा है?
हां, अंदर आइए। उसने पर्दा एक तरफ हटाते हुए कहा, और खुद सरककर एक कोने में खड़ी हो गई।
बैठिए। उसने पंखा चला दिया था।
मैं अभी बुलाकर लाती हूं। और वह फर्श पर अपने गीले पैरों के निशान छोड़ती अन्दर चली गई।
भाभी, तुमसे मिलने कोई आया है। भाभी नहाने की तैयारी कर रही थीं।
कोन है?
मालूम नहीं, शायद कोई सहेली है।
और भी कोई है साथ में?
हां, शायद उसका हस्बैंड है। वह मन-ही-मन सोच रही थी कि वह लम्बा-तगड़ा व्यक्ति उसका भाई तो हो नहीं सकता जरूर उसका पति ही होगा।
भाभी ने शीशे में एक बार चेहरा देखा और बालों पर हाथ फेरती हुई अन्दर चली गई। उसे याद आया कि लोटा और बाल्टी तो वह बाहर बरामदे में ही छोड़ आई हैं।
उसे अपने गीले कपडों की हालत में फिर से बैठक में जाना अच्छा नहीं लग रहा था, पर यह सोचकर कि बाहर चीजें नहीं छोड़नी चाहिए, वह बैठक की ओर मुड़ी।

तू सच बहुत लकी है। वह स्त्री शायद भाभी से कह रही थी। उसने देखा उसके पति को शायद यह वाक्य पसन्द नहीं आया था, क्योंकि उसकी मुद्रा कठोर हो गई थी और बजाय अपनी पत्नी की बात में हां-में-हां मिलाने के सामने रैक पर रखी किताबों के नाम पढ़ने की कोशिश कर रहा था।

बेचारा उसके होंठ बुदबुदाए और दूसरे ही क्षण उसको हंसी आ गई। उसने गौर किया वह उसी की ओर देख रहा था और शायद उसने उसकी हंसी भी देख ली थी। वह एकदम झेंप गई और जल्दी से बाल्टी लेकर अन्दर चली गई।

मां फिर से चाय बना रही थीं। उसे खयाल आया था कि आज तो सारे दिन मेहमान आते रहेंगे। और फिर से उसके कानों में गूंज गया, तू बहुत लकी है।
हुंह, लकी है। वह धीरे से बुदबुदायी।
क्या? मां को लगा कि उसने कुछ कहा।
कुछ नहीं। उसका मन कर रहा था कि कोई मां से आकर कहे कि सच तू बड़ी लकी है।
मीनू के इम्तहान की फीस कब जाएगी? मां के दिमाग में अभी भी भाई का वाक्य घूम रहा था।
अगले महीने के अन्तिम सप्ताह में। उसे लगा मां ने एक लम्बी सांस ली, क्योंकि अभी डेढ़ महीना था। वह साफ देख पा रही थी कि मां के चेहरे का तनाव कुछ कम हो गया था।

मां, तुम फिक्र क्यों कर रही हो? उसे इस तरह से बोलना बड़ा अजीब लग रहा था। शायद मां को भी, क्योंकि उनकी नजरें केतली से उठकर उसके चेहरे पर टिक गई थीं।
नहीं, मैं क्यों फिक्र करूंगी? मां व्यर्थ ही सफाई दे रहीं थीं। और उसका एक बार फिर मन किया कि भाई को झकझोर कर रख दे।

बाहर टैक्सी आ गई थी। सारा सामान रखा जा चुका था। पिता की खांसी बढ़ गई थी शायद उत्तेजना के कारण। भाभी और बेटू पहले से ही टैक्सी में बैठ चुके थे। भाई ने अपने हाथ का ब्रीफकेस रखकर मां के पैर छुए। भाई का इस तरह से नीचे झुककर मां के पैर छूना उसे बड़ा अटपटा और अजीब लग रहा था, क्योंकि उसने आज तक भाई को मां के पैर छूते नहीं देखा था। उसको लगता था जैसे यह काम केवल घर की बहुओं का ही हो।

किसी भी चीज की जरूरत हो तो लिखना। भाई ने ब्रीफकेस हाथ में ले लिया था। उसका मन कर रहा था कि जोर से बोले, किसी भी चीज की जरूरत नहीं होगी। पर इससे पहले कि वह अपने होंठ खोलती, भाई उसके गाल थपथपा रहे थे नीतू, चिठ्ठी लिखेगी न। उसने भाई की तरफ देखा तो उसे लगा कि भाई ने वह बात मुंह से नहीं दिल से कही हैं। उसका धैर्य जवाब दे रहा था। उसे लगा यह घड़ी इतनी जल्दी कैसे आ गई। वह यह भूल चुकी थी कि सुबह से वह चाह रही थी कि वक्त जल्दी-जल्दी कटे।

ड्राइवर ने ऐक्सिलरेटर दबा दिया था और एक झटके से टैक्सी ने स्पीड पकड़ ली थी। भाई सड़क के नुक्कड़ तक हाथ हिलाते रहे थे। टैक्सी के ओझल हो जाने के बाद न जाने क्यों उसे लगा कि वह बहुत हल्की हो आई है। उसने पीछे मुड़कर देखा मां रो रही थीं और उनके आंसू थम नहीं रहे थे। वह मां को सहारा देकर अन्दर ले गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां किसलिए रो रही हैं इसलिए कि भाई चले गए हैं या फिर इसलिए कि और एक बार फिर उसके कान में भाई का वाक्य गूंज गया।

एक रात में मां कितनी बदल गई हैं। रात खाना भी नहीं खाया। उसे तो बड़ी तेज भूख लग रही थी, पर घर में किसी ने नहीं खाया। वह पलंग पर अधलेटी ऊपर पंखे को एकटक देख रही थी। घूं घूं घूं पंखा पूरी रफ्तार से चल रहा था, पर फिर भी उसका पसीना नहीं सूख रहा था। घूं घूं घूं भाई अब भी प्लेन में ही होंगे। उसने गौर किया था कि मां आज जल्दी ही उठ गई थीं और धीरे-धीरे सारे काम निपटा रहीं थीं एक मशीन की तरह जिसके सारे सारे पुर्जे घिस चुके हों। पिताजी कल रात बहुत देर तक खांसते रहे थे और भाई के खाली कमरे में सोते हुए उसे खांसी में अकेलापन की आवाज सुनाई पड़ रही थी। उसे कमरा बहुत ज्यादा बड़ा और खाली नजर आ रहा था, पर उसे अभी तक मां और पिताजी की तरह अकेलापन नहीं लग रहा था। पहले सोचती थी तो उसे लगता था कि भाई के चले जाने पर वह अकेली पड़ जाएगी, उसे भाई की अनुपस्थिति खलेगी। पर अब ऐसा कुछ नहीं हो रहा था। उसका इस तरह इतनी दूर चले जाना और महज आठ घंटों के लिए आफिस जाने में, उसे न जाने क्यों, कोई भेद नजर नहीं आ रहा था। उसे खुशी हो रही थी कि मीनू भी रोज की तरह स्कूल चली गई थी।

मां अलमारी से कुछ निकालने आई थीं। उसने देखा मां के चेहरे के भाव वे नहीं थे जो कल तक थे। वे कुछ सन्तुष्ट नजर आ रही थीं। उसका मन हुआ कि पूछे- किससे सन्तुष्ट हो, इस स्थिति से या मुझसे? उसकी नजर फिर मां के चेहरे से हटकर ऊपर चलते पंखे के बीच बने स्टील के तवे पर पड़ती अपनी परछाई पर चली गई। वह उसमें कितनी छोटी लग रही थी। उसने दायां हाथ जोर से हिलाया, ऊपर की परछाई ने भी ठीक ऐसा ही किया। मां शायद उसकी यह हरकत गौर कर रही थीं, बोली-क्या सुबह से अलसा रही है? ग्यारह बज रहा है। अभी तक नहाई-धोई भी नहीं।
जल्दी क्या है, अभी?

न सही जल्दी, पर तू

कह रही थी कि बलजीत कौर से बात करेगी, तो फिर वहां कब जा रही है?
उसे लगा पूरी रफ्तार से चलता पंखा उसके ऊपर गिर पड़ा है। घूं घूं घूं उसके कानों में घुसी जा रही थी। वह कभी नहीं सोच पाई थी कि मां खुद उससे ऐसी बात कर सकती हैं। इतना बड़ा निर्णय मां ने कब और कैसे ले लिया।

सियासी मियार की रपोर्ट