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कहानी : झूठ मत समझना..

कहानी : झूठ मत समझना..

-रतन लाल जाट-

रचना तुम कैसी हो? तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? और हाँ, कभी मैं आऊँगा तुमसे मिलने।

यह बात कभी फोन पर हुई थी रमन की। रमन और रचना ने एक-दूजे को कभी देखा नहीं है। पर कोई यह नहीं कह सकता है कि वे आपस में अपरिचित हैं। दोनों के बीच कहने को दूरी है। वरना दोनों को एक-दूसरे के बारे में पल-पल की खबर है।

अभी रचना कोचिंग से आ गयी होगी। कुछ देर बाद रूम पर आकर आराम करेगी और उसके बाद खाना बनायेगी। और शाम को सात-आठ के बीच अपनी सहेली के साथ घूमने जायेगी। इस तरह की कल्पना करते हुए रमन अपने आप में खो जाता था।

उसे याद आया था कि उनकी बहन के द्वारा रचना की पहली बार रमन से बात हुई थी वह भी फोन पर ही और छह माह हो जाने के बाद तक मैं रचना से मिल नहीं पाया था। पर एक बार मैंने मजाक में उसको फोन पर कहा था कि रचना तू अभी कहाँ है? मैं दस-पन्द्रह मिनट बाद तुम्हारे वहाँ आ ही रहा हूँ और हाँ, मैं तुम्हारे रूम पर नहीं आ सकता हूँ। इसीलिए तुम रानी बाजार चौक में आकर मुझसे मिलना।

रचना ने इसके जवाब में बस इतना ही कहा था कि रमन तुम यहाँ पर नहीं आये हो और ना ही मैं कहीं पर आ रही हूँ। तब रमन ने हँसते हुए केवल यही कहा था कि रचना तुमने तुरंत कैसे पहचान लिया कि मैं यहाँ पर नहीं आया हूँ।

मेरा दिल कह देता है कि तुम कब सच बोलते हो और कब मजाक करते हो? हँसते हुए रचना ने कहा था।

एकदिन अचानक रमन को अपने बीमार दादाजी को लेकर जाना पड़ा था उसी शहर में। जहाँ पर रचना रहते हुए अपनी पढ़ाई कर रही थी। घर से निकलते वक्त ही रमन ने बता दिया था कि रचना मैं तुम्हारे ही शहर में हूँ। यह कहते हुए रमन को पहले वाली मजाक याद आ गयी थी और अचानक मन में एक डर उत्पन्न हो गया कि रचना इस बार कहीं यह नहीं कह दे कि मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ कि तुम अभी यहाँ नहीं हो। उसका मन किया, मैं रचना को कह दूँ कि तुम इस बात को झूठ मत समझना। मैं सच बोल रहा हूँ। पर इसके विपरीत रचना ने जबाव दिया था कि रमन तुम आ जाना रूम पर ही। यह सुनकर रमन का दिल गदगद हो उठा था। मन किया कि मैं रचना को अब कभी मजाक नहीं करूंगा। वह मजाक करने लायक नहीं है। वह तो हमेशा दिल से पूजने और श्रद्धा के योग्य है।

फिर रचना ने पूछा था कि तुम और किसके साथ आये हो?

हाँ, मैं अपने दादाजी को लेकर हॉस्पीटल आया हूँ।

क्यों क्या हुआ है उनको और कब तक रहोगे यहाँ पर? अगर तुम नहीं आ सकते हो, तो मैं खुद आती हूँ कुछ समय बाद।

रमन को पता ही नहीं चला था कि एक-डेढ़ घंटा बीत गया था। तभी रचना का कॉल आया कि रमन तुम किस वार्ड में हो? मैं हॉस्पीटल में पहुँच गयी हूँ।

तुम आ गयी हो! यह कहते हुए ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे रचना का आना बहुत ही आश्चर्यजनक बात थी।

जब रमन उसे लेने पहुँचा, तो उसे और भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। क्योंकि रचना के एक हाथ में रोटी का टिफिन था, तो दूसरे हाथ में एक बैग जिसमें चादर और दरी थी। जब रमन ने शिकायत करते हुए कहा कि तुम यह क्यों लेकर आयी हो? इनकी क्या जरूरत थी रचना?

तुम और दादाजी दोनों सोओगे, तो यह तुम अपने बिछा लेना। दरी की तरफ इशारा करते हुए रचना ने कहा था और यह भी कहा था कि रमन यह चादर अपने दादाजी के लिए। रात को ठंड लगेगी तब ओढ़ने के लिए।

बस, रमन चुपचाप उसकी तरफ देखता रह गया था और सोचता रह गया कि हम अचानक आ गये थे हॉस्पीटल और सोचा ही नहीं था कि यहाँ दादाजी को भर्ती कर लेंगे। इसीलिए कुछ भी सामान नहीं लेकर आये थे। पर यह रचना को पता कैसे चला कि हम चादर-दरी भी नहीं लेकर आये हैं।

ठीक है रचना। कल सुबह शायद छुट्टी मिल जायेगी। तुम सात-आठ बजे आ जाना अपना सामान लेने के लिए।

रमन वो तो ठीक है। पर तुम्हें जब भी थोड़ा-सा समय मिले, तब अपने रूम पर आ जाओ। क्योंकि मैं खाना केवल दादाजी के लिए ही लेकर आयी हूँ। तुम्हारे लिए नहीं, समझे। कहते-कहते रचना थोड़ी-सी मुस्कराने लगी थी। तब पहली बार रमन को पता चला कि रचना केवल हँसती ही नहीं, मुस्कराती भी खूबसूरत है।

खाना तो हम दोनों के लिए बहुत होगा। दादाजी वैसे ही एक रोटी से अधिक नहीं खाते हैं।

थोड़ी देर दोनों चुप रहे थे। रचना ही बोली, रमन तुम यही खड़े-खड़े बातें कर रहे हो। अपने दादाजी से मुझे मिलाओगे नहीं। चलो, किस वार्ड में हैं वे? मुझे लेकर चलो।

दादाजी के अभी बोतल लगवाकर ही बाहर आया हूँ। चलो, तुम मिलना चाहती हो तो इधर की तरफ।

फिर वे दोनों मेल वार्ड में चले गये थे।

सियासी मियार की रीपोर्ट