अपना उद्धार स्वयं करना होगा..
संसार में शायद ही ऐसा कोई होगा, जो अपना उद्धार न चाहता हो। आत्मकल्याण के सभी इच्छुक रहते हैं। शास्त्रों ने भी मनुष्यों के लिये आत्मकल्याण को ही जीवन का लक्ष्य माना है। मनुष्य का आंतरिक कल्याण ही आत्म कल्याण है, आत्म उद्धार है। इसके मुख्य दो रूप हैं- एक तो जन्म-मरण से मुक्ति और दूसरा भगवत्-प्राप्ति। धन लिप्ता से हानि किन्तु आजकल प्रायः लोग भौतिक समृध्दि को ही अपना आत्मकल्याण मानते हैं, इसीलिए लोग अपने अमूल्य समय का एक-एक क्षण भौतिक सुख की प्राप्ति में लगाते हैं। इतना अमूल्य समय क्षणिक सुख की उपलब्धि में व्यतीत करना वैसा ही है, जैसा मिट्टी के मोल में अमूल्य रत्न दे देना। मनुष्य को आत्मोध्दार के मार्ग से विचलित कर उल्टी दिशा में बहा ले जाने वाली प्रवृत्ति अमानवीय वृत्ति से संचालित होती है। जब व्यक्ति में तमोगुण की प्रधानता हो जाती है तो अमानवीय वृत्ति अपने पूरे प्रभाव में आ जाती है। ऐसी स्थिति में बुध्दि अधर्म को ही धर्म मान बैठती है। हानि को लाभ, बुरे को भला, अनित्य को नित्य और असत् को सत् मान बैठती है। ऐसी बुध्दि व्यक्ति को मानवता से गिराकर घोर अमानवीय बना देती है। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति भगवान, आत्मा, परलोक, धर्म, कर्तव्य, त्याग, आदि उपयुक्त सद्भावों को त्यागकर भोगपरायण बन जाता है। उसके जीवन के दो ही लक्ष्य रह जाते हैं- अर्थ और अधिकार। व्यक्ति इन दोनों की प्राप्ति के लिये उचित अनुचित एवं न्याय-अन्याय का द्वंद्व छोड़कर प्रमत्त की भांति जुट जाता है। कामना और क्रोध प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। जीवन के अंतिम क्षणों तक उपलब्धि की चिन्ता से ग्रस्त रहकर अनाचार-पापाचार की परवाह न करते हुए, जैसे भी हो, धन और अधिकार के अर्जन का प्रयास चलता ही रहता है। प्रत्येक व्यक्ति जो अपना आत्मोध्दार करना चाहता है, उसकी जिज्ञासा रहती है कि वे कौन-से उपाय हैं, जिनके अनुकरण से अपना उद्धार संभव हो सकता है। इस संबंध में महापुरुषों एवं शास्त्रों ने जो उपाय बातये हैं, वे यहां संक्षिप्तीकरण करके प्रस्तुत किये जा रहे हैं। सर्वाधिक आवश्यक बात यह है कि व्यक्ति को निषिध्द कर्मों का त्याग कर देना चाहिये। सफाई पसंद व्यक्ति यदि सदैव कीचड़ में ही लौटता रहेगा तो वह साफ कैसे रह सकेगा। उसे कीचड़ को दूर करना होगा, तभी वह साफ रह सकेगा। ठीक इसी प्रकार नरक के जो तीन द्वार बताये हैं काम, क्रोध और लोभ। इनका त्याग करना आत्मोध्दार के लिए आवश्यक है। इनसे जो अपने को मुक्त कर सत्कार्य करता है, वह आत्मोध्दार के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है। विवेक की आवश्यकता एक और आवश्यक बात यह है कि व्यक्ति जो भी क्रिया करे, परमात्मा को अर्पित करके करे। यह एक महान साधन है। व्यक्ति कुछ न कुछ करता ही रहता है। अतः आवश्यकता इतनी ही भर की है कि कर्मों के साथ-साथ भगवद्-अर्पण भी बना ली जाये।भगवद्-अर्पण से क्रिया पवित्र हो जाती है। दूसरी बात यह भी है कि जब अर्पण बुध्दि हो जाती है तो धर्म-विरुध्द क्रिया का होना भी रूक जाता है, बल्कि यूं कहें तो अधिक उचित होगा कि सारी क्रियाएं अपने आप ही शास्त्रविहित बनती चली जाती हैं। फलतः ये क्रियाएं आत्मध्दार का मार्गस्शस्त कर देती हैं। आत्मोध्दार के लिये भगवान के पवित्र नाम का स्मरण एवं जप अत्यंत प्रभावकारी होता है। विशेषकर कलियुग में तो यह एक सशक्त एवं सफल उपाय है।एक और बात आवश्यक है कि आत्मोध्दार का इच्छुक व्यक्ति महात्माओं का संग करे। महात्माओं के हृदय के उच्चतम अनुभवपूर्ण भावों में अपने हृदय को मिला देना एवं उस भाव से स्वयं भावित हो जाना ही असली सत्संग है। भगवत्प्राप्त महापुरुषों के अनुभवयुक्त वचनों में बड़ा प्रभाव होता है। उनका एक वचन भी जीवात्मा का उद्धार करा सकता है।किन्तु यह आवश्यक है कि वह महात्मा वास्तव में महात्मा हो। सच्चे महात्मा के प्रति व्यक्ति में श्रध्दा का भी होना आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण का कथन है कि, जितेंद्रिय, साधानापरायण और श्रध्दावान मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के अर्थात् तत्काल भगवान प्राप्तिरूप परमशांति को प्राप्त कर लेता है।आत्मोध्दार के लिये विवेक भी आवश्यक है। क्या सत् है, क्या असत्य? क्या आत्म है, क्या अनात्म? क्या विनाशी है, क्या अविनाशी? क्या कल्याणकारक है, क्या पतनकारक? उक्त संबंधों में भेद-ज्ञान ही विवेक है। यह विवेक शास्त्र-विचार एवं महापुरुषों के संग से जाग्रत होता है।विवेक-जागरण के पश्चाप व्यक्ति को चाहिए कि असत्, अनात्म, विनाशकारी एवं पतनकारी वस्तुओं के प्रति वैराग्य की भावना जाग्रत करे। सांसारिक वस्तु व्यक्ति के प्रति वैराग्य-भावना से युक्त हो उनके साथ व्यवहार-बर्ताव बरतने एवं हृदय में भगवान का ध्यान धारण करने से आत्मोध्दार संभव हो जाता है। ध्यान अमृत है। अति कल्याणकारी है। साकार एवं निराकार, दोनों ही प्रकार के साधकों के लिये अभीष्ट एवं उपादेय है। परमात्मा का अमर पद प्रदान करने वाला है। ध्यान की क्रिया प्रारंभ हुई कि शांति की वर्षा शुरू। ध्यान से उठने के बाद एक अजीब आनंद, एक नया जीवन, एक नया उल्लास अनुभव में आता है, जिसका शब्दों में वर्णन संभव नहीं। आत्मोध्दार के संबंध में अंतिम बात यह है कि व्यक्ति को हर समय सावधान होकर अपने कल्याण के साधन में तत्पर रहना चाहिये। अहंकार एवं देहाभिमान से रहित हो परमात्मा की शरण ग्रहण कर अपने उद्धार के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिए।