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पुस्तक समीक्षा-कविता संग्रह: थकान से आगे.

पुस्तक समीक्षा-कविता संग्रह: थकान से आगे.

पिछले दिनों किसी काम के सिलसिले में जयपुर जाना हुआ, जयपुर जाना हो और भाई मायामृग (बोधि प्रकाशन वाले) के दफ्तर की चैखट बिना छुए वापिस आ जाऊं ऐसा मुमकिन ही नहीं है। दो-तीन घंटे की अदबी गुफ्तगू के बाद जब वापिस आने लगा तो मेरी निगाह एक खूबसूरत से आवरण वाली किताब पर पड़ीं, माया जी ने कहा कि बतौर तोहफा ये किताब लेकर जाओ और पढ़कर अपनी राय से अवगत जरूर करवाना।

अगले ही रोज दिल्ली आकर जब उस किताब के पन्ने पलटने लगा तो फिर ये सिलसिला तब तक नहीं थमा जब तक पूरी किताब पढ़ न गया। मैं जिस किताब का जिक्र कर रहा हूं उस किताब का नाम है थकान से आगे जो कि हिसार (हरियाणा) के युवा कवि प्रदीप सिंह का पहला काव्य-संग्रह है। किताब का मनमोहक आवरण, मनोज छाबड़ा जी की तूलिका का कमाल है और यह आवरण-चित्र आंखों को खुद पर दो घड़ी ठहरने पर मजबूर करता है। युवा कवि प्रदीप की ये खुशनसीबी है कि उनका पहला काव्य-संग्रह साहित्य-जगत में एक अलग मेयार बना चुके बोधि प्रकाशन से छपा है। इस काव्य-संग्रह में तकरीबन 85 आजाद नज्में यानि छंद मुक्त कवितायें है।

यह मज्मुआ जब मैं पढने लगा तो ठीक पुश्त पर कवि का तआरूफ पढने को मिला जिसकी तीसरी पंक्ति ने मुझे हैरत में डाल दिया, लिखा था… . दैहिक सीमाओं के चलते औपचारिक शिक्षा के लिए प्रदीप विद्यालय नहीं जा सके… . तभी कवि प्रदीप के बारे में जानने की उत्सुकता ने भाई मायामृग को फोन लगाने पे विवश किया और मालूम हुआ कि प्रदीप जिस्मानी तौर पर तकरीबन 99 फीसदी अपाहिज है। यह सब जानकार अल्लाह की इस नाइंसाफी पर बड़ा अफसोस भी हुआ। भाई प्रदीप के तम्हीद (भूमिका) में लिखे दो शब्द पढ़ते ही लगा कि रचनाकार ने किताब के आगाज से अंजाम तक तहजीब का दामन नहीं छोड़ा है।

इस मज्मुआ ए कलाम की पहली कविता ने ही जेहन के साथ-साथ दिल के दरवाजे पर ऐसी दस्तक दी कि मैं इस शायर का मुरीद हो गया। कविता नाम के उन्वान से लिखी इस नज्म के ये मिसरे वाकई इस बात की जमानत देते हैं कि प्रदीप नाम के इस तख्लीककार के भीतर भी काव्य की लौ जल रही है:… ..

दिनचर्या एक बेस्वाद च्यूंगम है.. जिसे चबाये जा रहें हैं हम

कविता— इस च्यूंगम को बाहर निकाल फेंकने की कोशिश है बस…

कविता सच में प्रदीप के लिए वक्त बिताने का नहीं वक्त बदलने का जरिया है।

अपने ही ख्वाबों में शीर्षक वाली दूसरी कविता की ये पंक्तियां अपने आप में मुकम्मल कविता है… . अपने ही लगाए कैक्टस में.. घायल अपने हाथों से.. मैं.. कैसे बिछाऊं तुम्हारी राहों में फूल… . मज्मुए की तीसरी कविता मैं और तुम उन्वान से है और तीन दृचार मिसरों की 24 टूकड़ों में बंटी ये नज्म मैं और तुम को बेहद खूबसूरती से परिभाषित करती है। मिसाल के तौर पर कुछ टूकड़े… ..

तुम वो वक्त.. जो गुजरता ही नहीं.. बस मैं घड़ी सा चलता रहता हूं..

तुम वो आदत.. जिसे मैं छोड़ नहीं सकता… और मैं वो लत.. जिसे तुम कब का छोड़ चुके हो…

मैं वो क्षण.. जो बीतता ही गया.. तुम वो पल.. जो कभी आया ही नहीं..

तुम वो दरवाजा जो खुलता ही नहीं… मेरी जख्मी दस्तकें.. चिपकी हैं अब भी उसी से… ..

थकान से आगे… . पढ़ते हुए आंखों को रत्तीभर भी थकान नहीं होती बल्कि पढने वाले की हैरानी का पारा ये सोच कर बढता जाता है कि प्रदीप सिंह एक दिन भी किसी स्कूल में नहीं गये, अपने जीवन के 27 सावन घर की चार दीवारी में व्हील चेयर पर ही गुजारें है… मुझे नहीं लगता कि कभी बारिश की एक बूंद भी प्रदीप के जिस्म पर पड़ी हो, मुझे नहीं लगता कि प्रदीप ने कुदरत के नजारे, कुदरत के कहर को भी अपनी आंखों से देखा हो मगर जिन्दगी के तमाम पहलुओं को महज अपने अध्ययन के बूते पर अहसास की चाशनी में से निकाल कर प्रदीप ने कागज की थाल पर कविता के रूप में परोसा है।

बाहरी दुनिया और सियासत से कोसो दूर रहने वाले प्रदीप लोकतंत्र को अपने ही नजरिए से देखते हैं और लोकतंत्र शीर्षक की उनकी ये छोटी सी रचना पढ़कर ऐसा लगता है कि प्रदीप एक मंझे हुए रचनाकार है:—

मेरी ऊंगली पे.. लगा काली स्याही का निशान.. प्रमाण है.. कि मैंने हथियार थमा दिए हैं फिर.. उसे.. जो करेगा इस्तेमाल मेरे ही खिलाफ…

शायरी का बुनियादी उसूल है कि आप बीती को जगबीती और जग बीती को आप बीती बनाकर किसी खयाल को कागज पर उतारा जाता है मगर प्रदीप के जीवन में आपबीती तो बस एक ही है कि ईश्वर ने न जाने कौनसे जन्म का बदला उससे लिया है मगर उनकी तमाम रचनाएं जगबीती से तअल्लुक रखती हैं। जीवन के नीले, पीले हरे सफेद तमाम रंगों के साथ साथ प्रदीप ने जिन्दगी के ऐसे फलसफे (दर्शन) को नज्म बनाया है जिस फलसफे से सब दूर भागते हैं। मैं उन्वान से लिखी गयी उनकी ये मुख्तसर सी नज्म मेरी बात की तस्दीक करती है य—

मैं… सिर्फ और सिर्फ मैं… सारी जिन्दगी… बस… मैं ही मैं.. मेरे लिए.. इस मैं से बड़ी… . सजा और क्या होगी…

प्रदीप की रचनाएं सीधी और सादा लफ्जों में है, प्रदीप अपने भीतर की उथल दृपुथल को कविता का जामा पहनाने में लफ्जों के साथ कोई पहलवानी नहीं करते सीधे- सीधे आम बोलचाल की जुबान में वह अपनी बात कह देते हैं कोई लाग लपेट किसी भी तरह की चतुराई प्रदीप की नज्मों में नजर नहीं आती मगर मगर उन्वान की एक कविता से ये भी जाहिर हो जाता है की लफ्जों की जादूगिरी प्रदीप को आती तो है:—-

कुफ्र है… गुनाह है… मगर.. साथ में अल्लाह है।

अभाव है.. दबाव है… मगर… हंसना अपना स्वभाव है..

सवाल है.. बवाल है.. मगर… जिन्दगी कमाल है…

प्रदीप की रचनाओं से यह भी प्रतीत होता है कि कलम को किसी ने तराशा जरूर है और प्रदीप इस बात का जिक्र खुद अपनी लिखी भूमिका में करते है,

कविता के तमाम पेचो-खम प्रदीप ने अपने गुरु मनोज छाबरा जी से सीखें हैं।

शायरी में उस्ताद का अपना महत्व है, शायर अपना शेर तब तक जुबान से बाहर नहीं निकालते जब तक कि उस्ताद उस पर मोहर न लगा दे। हिंदी कवियों में उस्ताद- शागिर्द की रवायत जरा कम है मगर प्रदीप ने रवायत का भी दामन नहीं छोड़ा है।

प्रदीप के भीतर जो हौसला है उसका साफ मुजाहिरा उनकी कविताओं में होता है अपनी जिस्मानी दिक्कतें, अपने अपाहिज होने को वे अपने किरदार अपने हौसले पे हावी नहीं होने देते आत्मकथ्य शीर्षक से लिखी उनकी एक कविता पाठक की आंखों को नम कर देती है और उसे लगता है कि प्रदीप जेहन और दिल से कितने सबल हैं लितने ताकतवर हैं भले जिस्मानी तौर पे न हों। टीस और हौसले का जबरदस्त मिश्रण है ये पंक्तियां य—–

मेरे विकलांग होने से… पिता के.. दायें हाथ की जिम्मेवारियां.. बहुत बढ़ गयी हैं…

मेरे विकलांग होने से… भाई ने पाया है… अनोखा आत्मविश्वास.. अकेले ही…

मेरे विकलांग होने पर भी… नहीं हो पाता हूं मैं विकलांग…

मैं अंधेरे का दीपक हूं… और… दीपक तले का अंधेरा भी… अगर तुम फिर भी सोचते हो.. कि विकलांग हूं मैं… तो तुम्हारी सोच को जरूरत है मेरी व्हील चेयर की……

प्रदीप उम्र के लिहाज से भले ही 27 बरस के हुए हो मगर उनकी रचनाएं फिक्र और संजीदगी के लिहाज से 72 साल की तजुर्बेकार नजर आती है… . मिसाल के तौर पे ये दिन उन्वान से लिखी कविता की ये पंक्तियां:—

तुम्हारे लिए.. एक दिन में… कितने ही मकसद छुपे होते हैं.. और.. मेरा

दिन में अक्सर एक ही मकसद होता है… कि… ये दिन बिताऊं कैसे…

यह काव्य-संग्रह छोटी उम्र में लिखा प्रदीप सिंह का पहला प्रयास है इस मज्मुए में से बहुत सी रचनाएं उम्दा हुई हैं जिनका कोई जवाब नहीं है मगर फिर भी प्रदीप को अदब की दुनिया में एक अलग मुकाम अगर हासिल करना है तो उन्हें अपनी ये साधना मुसलसल जारी रखनी होगी क्यूंकि अदब को प्रदीप से बहुत उम्मीदें हैं। इस किताब को एक नजर देखते ही पूरी किताब पढ़ने का मन करता है यह काव्य-संग्रह आपके घर की बुक-सेल्फ की शान में यकीनन इजाफा करेगा क्योंकि संवेदना, टीस और हौसले का संगम होने के साथ साथ

थकान से आगे काव्य-संग्रह की कवितायें बेरंग हो चुकी जिन्दगी को खुश रंग जिन्दगी की तरह जीने की प्रेरणा देती है।

युवा कवि प्रदीप सिंह को इस शानदार मज्मुआ ए कलाम के लिए मुबारकबाद पेश करता हूं और अदब के इलाके में उनके शानदार मुस्तकबिल के लिए दुआ करता हूं और आखिर में इसी संग्रह में से मां के हवाले से लिखी गयी उनकी इसी रचना के साथ ये गुजारिश कि अगर संभव हो तो थकान से आगे एक बार जरूर पढ़े और अपने तास्सुरात प्रदीप सिंह तक पहुंचाएं ताकि प्रदीप साहित्य की डगर पर उसी जोश और हौसले के साथ बिना थके

चलता रहे जिस हिम्मत से अभी तक वो चलते आ रहे हैं….

मां.. जब भी कभी देर से उठती है सुबह…