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किताब समीक्षा : “उपासना की हांड़ी, ज़िंदगी एक स्क्रिप्ट भर से आगे”..

किताब समीक्षा : “उपासना की हांड़ी, ज़िंदगी एक स्क्रिप्ट भर से आगे”..

किताब – दरिया बंदर कोट
लेखिका – उपासना
प्रकाशन – हिन्द-युग्म
समीक्षक – कृष्णमणि मिश्रा, गोरखपुर

मेरी लिए साहित्य पढ़ना एक अलग सी यात्रा होती है। बेहद निजी और एकांत में कुछ सोच समझ देने वाला समय, जैसा पुरुषोत्तम अग्रवाल जी कहते हैं ” ढ़ने के समय का एकांत और चिंतन।” ख़ासकर कहानियां जो कि पढ़ने वाले को एक अलग ही यात्रा पे ले जाती हैं। फिर एक अनुभव दे कर कायदे से छोड़ देती हैं पढ़ने वाले को अपने एकांत के साथ कुछ और सोचने-समझने के लिए। हर अफ़साना कुछ कहता है, सिखाता और अनुभव से समृद्ध करता है। बहुत पहले गुलज़ार साहब की एक नज्म सुनी थी, जो कि उन्होंने फ्रैंकफर्ट में सम्मेलन में आए हुए तमाम लेखकों को देख कर लिखी थी।

“उबलती हांडियां, और इतनी सारी।
सभी ने जिंदगी चूल्हे पे रखी है,
ना पकती है, न गलती है, मगर ये जिन्दगी यूँ ही चलती है।
ये दानिश्वर, सभी मिल कर बिलोते हैं समंदर, निथारा करते हैं अमृत,
मगर तिड़की हुई कुम्भी में कुछ रुकता नहीं है,
जो भरते हैं वो बह जाता है पानी में,
उबलती हांडियां, और इतनी सारी।”

बहरहाल, मैंने भी देखा है हांड़ी में नानी को भात पकाते। देखा है हांड़ी में से भाप को गुड़ गुड़ कर के उठते हुए। मगर जब मैं आज नज़्म पढ़ चुकने के बाद उपासना के दिमाग की हांड़ी को गुड़ गुड़ाते देख यानि पढ़ रहा हूँ तो सारी कहानियां किसी तस्वीर की मानिंद मेरे सामने आ खड़ी होती हैं। यूँ तो उपासना के हांड़ी की भाप से पहले भी सामना हुआ है। मगर तब किसी अलग रंग में हुआ था “एक जिंदगी-एक स्क्रिप्ट भर में।”

मैं सर्वाइवल शुरू करता हूँ तो उस लड़के में खुद का भूतकाल देखने को मिलता है। नौकरी एक बेहद आम ग्रामीण परिवार से आ कर आप को जीने को और घर पे देने लिए क्या चाहिए, नौकरी। उस पूरे दौर का तसव्वुर आप के सामने होता है। वो तमाम जद्दोजेहद, अन्तर्द्वन्द्व हम सब महसूस कर के जिंदगी में आगे बढ़ जाते हैं। मगर उपासना सा कोई अगर उस दौर का खाका खींच दे ये कहते हुए कि “सदर बाजार की भीड़-भाड़ वाली गली का एक दबड़ेनुमा फ्लैट ही जीवन था या फिर उसकी गंवई माँ कह दे “माफ़ करना सबसे बड़ा गुण है, हर कोई अपनी मजबूरियों से बंधा है”, तो लगता है अरे वाह! ये तो मेरी और तमाम लोगों की कहानी है। यही बात एक लेखक को समाज के केंद्र में बैठा देती है जिससे उसकी जिम्मेदारी हो जाती है हर बात पे नज़र रखते हुए, समाज से जुड़े रह कर समाज के सामने एक आइना ले कर खड़ा रहे।

इस मोड़ पर सुस्ताने के बाद मिठाईलाल और पपली की दुनिया में जाना हुआ। मुझे लेखन और निजी जीवन में सहजता और सच्चाई बेहद है। उपासना की कहानियों के पात्र सहज सरल और सच मालूम होते हैं। कहानियों में बेवजह का यूटोपिआ या परीलोक नहीं लगता। उनके बच्चे का रोना बकाइयाँ चलना, आस-पास के लोगों की बैठकी। कमा के आते आदमी के रुपया पैसा चोरी होना। आपस की पारिवारिक नोक झोंक सब बेहद असल है। पुरबिया आदमी होने के कारण छठ का माहौल बेहद आत्मीय लगता है मुझे। मिठाईलाल का शीशे पर से बिंदी चोरी करना बेहद रोमांटिक प्रकरण है। हालाँकि उसका पपली पर आरोप लगाना बेहद बुरा लगा। मगर अंत में जो पापली ने लोहार वाली चोट की “सुख सिलाई मशीन से नहीं, आदर सम्मान से मिलता है”, इस बात ने मिठाईलाल के दिमाग को ठिकाने लगा ही दिया होगा।

उदास अगहन, मेरी नानी इसी तरह हिंदी महीने गिना करती थी। लेखक की सबसे बड़ी उपलब्धि में यही होता है की वो जनमानस से जुड़ जाए अपने पात्रों और कहानियों से। इस पैमाने पर उपासना खरी उतरती हैं। इन दोनों कहानियों में फणीश्वर नाथ रेणु की सी आंचलिकता महसूस होती है। लेखक के अपने समय, बीते हुए समय और भविष्य, तीनों जगह पे जो पारखी नज़र है वो ज़ाहिर होती है। “हर आदमी के अंदर एक शहर था जैसे और हर शहर एक आदमी का चेहरा था” मेरे लिए ये पंक्ति सबसे ख़ास है। एक और बात यहाँ पर कहना गलत न होगा, उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग बहुत समय से कलकत्ता कमाने जाते हैं। सो कलकत्ते का जिक्र बेहद जरुरी हो जाता है। मिर्ज़ा ग़ालिब, एक दफे कलकत्ता आए तो शहर देख कर बोले। अगर मैं मुज़ररिद (कुंवारा ) होता और ख़ानादारी (पालन पोषण) की जिम्मेवारियां मुझपर हायल ना होती तो मैं यहीं का हो के रह जाता। ग़ालिब के लफ़्ज़ों में “कलकत्ते का जो ज़िक्र तूने हमनशीं, एक तीर मेरे सीने पे मारा की हाय हाय।

अनवर जलालपुरी कहते हैं कि, एक अच्छा लेखक बनने के लिए आप के पस-मंज़र में 100 बरस का माझी होना चाहिए। उपासना की कहानियों में उनका वचारिक पस-मंज़र (पृष्ठभूमि) काफ़ी ज़रखेज (अमीर) दिखाई पड़ता है। जितनी सफाई और हक़ीक़त के साथ वो आंचलिकता और देहात के दृश्य को अपने वैचारिक कैनवास पर रखती है वो काबिले तारीफ है। मुझे-सुनो न सौरभ, ये कहानी बेहद ज्यादा जरुरी विषय है। सौरभ की कोय जैसी आँखे बेहद मासूम और निर्दोष लगती हैं। एक आम आदमी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान देना चाहता है। वो चाहता है पीढ़ी को सब दे पाए जो उसे नहीं मिला। मगर शिक्षा को मात्र व्यापर बना देने जैसे समकालीन बेहद ज़रुरी मुद्द्दे को उठाना बहुत अच्छा लगा। उपासना ने प्यारे से सौरभ जिसकी कोया जैसी आँखे हैं, उसका बड़ा ही प्यारा मंज़र पेश किया है। बच्चे कितने निर्दोष और पवित्र हैं कहानी में दीखता है।

शिक्षिका व्यक्तिगत अन्तर्द्वन्द्व आखिर वो भी उम्मीदों से भरी इंसान है। उसका जद्दोजेहद साफ दिखाई देता है जब कहती है, “मुझे रौशनी से ज्यादा अँधेरा प्रिय रहा है हमेशा। एक गहरे सम्बन्ध जैसा – जो जब मिलता है कितनी ही भूली बिसरी यादों की केंचुल उतार देता है। कितनी चीजें जिन्हें हम बीत चुका समझते हैं वो साक्षात् हमसे बतियाने लगती हैं। सब कुछ बरसों पुराना ज्यों का त्यों धरा है दिल के आले पर। ऐसे में अँधेरा कितना आत्मीय मित्र हो जाता है, कितना कोमल, नर्म कि हमें कास लेता है हर सू। सोचिए हम दुनिया को इतना साफ सुन्दर नहीं बना सके कि किसी को अँधेरे से दोस्ती करनी पड़े।

सरकारों की नालायकी शिक्षा के क्षेत्र में कितनी ज्यादा है साफ महसूस होती है। कभी 3 साल की डिग्री 5 साल में होती है। पर्याप्त उच्च शिक्षा के संस्थान न होना कितना ज्यादा असर डालते हैं आम घरों के खासकर लड़कियों की पढाई पर। दूर जा कर पढ़ना और उसके लिए जरुरी आर्थिक मजबूती बहुत कम लोगों के पास होती है। जो नज़्म लिखी है सुनो न सौरभ, मैंने बहुत समय से इतनी बेहतरीन काबिल नज़्म नहीं पढ़ी है, बेहद कमाल। उपासना का वैचारिक कैनवास बहुत विस्तृत सहज और सुकूनदेह है।

सुनो !
तुम्हारे शिक्षकों के पास हैं
ढेरों नाकामियाँ, निराशाएँ, उपेक्षाएँ,
अधजगी रातों की कतरनें
जब इनका बोझ हमारी आत्माओं पर
तुम्हारी मुस्कराहट से
पड़ने लगता है भारी
तब एक जबर बड़ी बेहयाई से
हावी हो जाता है तुम्हारी कोमल पीठ पर
या नन्ही-नन्ही गुलाबी हथेलियों पर ठीक वैसे ही,
जैसे हमारे नामी विद्यालय में
एडमिशंस कम होने का बोझ बढ़ा दिया जाता है
शिक्षकों की झुकी हुई पीठ पर ! तुम्हारा बस्ता मेरे बस्ते से
बहुत है हल्का
इस अश्लील वजाहत की नज़र ही सही
तुम कर देना मुझे माफ़ !

हालाँकि मैं इस किताब के सबसे जरुरी हिस्से पे अब आ रहा हूँ। फेमिनिज्म, नारीवाद – हालाँकि ये शब्द बहुत अकादमिक हैं। मगर यदि आप इसको धरातल पर यथार्थ में देखना चाहें तो उपासना की इस किताब की अधिकतर कहानियों में बेहद साफ और मजबूती से दिखाई देता देता है। उपासना के पात्र बंधन को तोड़ के बहार आना चाहती हैं, उनके अंदर कुलबुलाहट दिखाई देती है। उनमें समकालीन हिचक है, मगर वो अपना सही गलत पहचानती हैं। महिला पात्रों में एक जरुरी जिजीविषा है, जो कि संघर्ष के लिए एक केंद्रीय शक्ति है। सर्वाइवल कहानी में माँ हो या पपली। पपली ने बेहद मज़बूत बुनावट दिखाई है एक महिला की। वृंदा और फूलमती देखें, यहाँ पर उपासना के सृजन और पसमंजर की तारीफ करनी होगी। वृंदा और फूलमती का दुःख उपासना से बहुत पहले का है। मगर जिस मजबूती से इस किस्से को गढ़ा गया है वो कबीले तारीफ है। कलकत्ते में मिली लड़की का अन्तर्द्वन्द्व बेहद सफाई से बुना गया है। भरद्वाज जी का अपनी बहु को इंगित करना “इनकी माँ है” काफी सोच में डाल देने वाला प्रसंग है।

मेरी नज़र में कुछ महिलाएँ बेहद जागरूक और समकालीनता को ले कर सचेत और काफी प्रेक्टिकल हैं – जिनमे पपली, सुनो न सौरभ की शिक्षिका, “लड़की और देबोलिना। ” निशा का अपने जीने की शर्त का वापस पाना बेहद मज़बूत व्यक्तित्व है। उपासना अपने हिस्से का जरुरी नेतृत्व दे पाई हैं अपने महिला पात्रों को। उनको मज़बूत बना पाई हैं। एक जरुरी बात जिसका जिक्र करना जरुरी है, उपासना की कहानियों में कुछ जगह संभोग है या उसका संकेत है। मगर उपासना ने जिस शालीनता के साथ उसे छुआ है और जिस शालीनता से रखा है वो वाकई काबिले तारीफ है। मैंने कई समकालीन कहानीकारों को पढ़ा है और महसूस किया है कि गैरजरूरी अश्लीलता शामिल हो रही है लेखन में।

मगर बेचारा नायक, आखिर में ऑटो ही चला रहा है। प्यार मोहब्बत की रोमांटिक कहानियों में बहुत ज्यादा ये देखने को मिलता है। ले दे कर नायक ऑटो लायक ही पढ़ पाया। कश्मकश ये है कि इसे लेखक की कमी कहें या सामजिक सच्चाई, मैंने खुद अपने स्कूल कॉलेज के बहुत से आशिकों को ऑटो चलाते सब्जी बेचते देखा है। कायदे से देखा जाए तो ये सीख भी है, की हर काम का एक समय है। और हर काम को उसके समय से करना चाहिए। वर्ना कहानी में ऑटो इंतजार करेगा। लाल गुंजे के बटुए का कथन देखें, “कहानियां तो बस एक स्त्री की भांति अपने लिए दिए से अंदाज में, आखों के वो जुगनू छिपाती है जो आप को देख कर जल उठे थे। आप आएं तो आप की मेहरबानी नहीं है, न आए तो उसकी बाला से “। या फिर जीवन से संघर्ष ख़त्म होने पर जड़ता आ जाती है। जीवन में ही नहीं, मन और कर्म तक में। शैल की सुबोध को ले कर कश्मकश बहुत नेचुरल है।

सबसे मार्मिक, हिला देना वाला किस्सा है मुक्ति – ये कहानी अपने आप में एक ज़ज़ीरा है। जहां आप खुद को पाते हैं। गर्भवती महिला के आंतरिक दुःख के साथ। जिस काबिलियत के साथ इसे बयान किया गया है वो रुला देने के लिए काफी है। “जो एक के लिए निकृष्ट है वही दूसरे के लिए सर्वोत्तम है। स्त्री सोचती है वो कैसे जान पाएगी कभी की यह जो उसके भीतर है उसे क्या चाहिए ? जीवन या मुक्ति. पात्रों वार्तालाप आप को गहरी सोच में दाल देते हैं। आप इस आभासी दुनिया में भी दुःख महसूस कर पाएंगे। “उसने घोर पीड़ा सही थी, परन्तु सृजन की नहीं, विध्वंस की पीड़ा। पीड़ा का प्राप्य गत्ते पर निर्जीव पड़ा था। “मेरे अंदाज़े से उपासना ने इस कहानी में दुःख का हर आयाम रूबरू कराया है। ये ऐसी कहानी है जिसे पढ़ के आप को रुकना होगा, एकांत चाहिए होगा बढ़ने के लिए।

उपासना कहानियों में जो मंज़र इस्तेमाल किए हैं, वो बेहद असल हैं। चाहे वो मौसम की सर्दी गर्मी या बारिश हो या बीड़ी पीता चौकीदार। दबड़े जैसा फ्लैट हो या मस्जिद की अजान। कबूतरों की अलग अलग किस्में हों या बाप का नगर निगम के हाथों पिटना और अपना धंधा खोना। छठ का दौरा हो, कोसी भराव हो या घर में कोने में खड़ा गन्ने का गठर। हीरा हज्जाम का संदेस ले के जाना और नमक मिर्च लगा के बताना हो। बीएड की कॉउंसलिंग की कश्मकश या स्कूल में शिक्षिका का अंतर्द्वंद। गर्भ में बच्चे को खो रही माँ का दर्द हो या निशा का घर से जाने का निर्णय। सब कुछ बेहद सच जान पड़ता है। कहानियों में अपनी विशेष मौलिकता और खुदरंग किस्से हैं। जो बहुत सजह बन पड़ा है। मेरी नजर में किसी के दुःख, संघर्ष, अन्तर्द्वन्द्व को समझना आप को एक अच्छा इंसान बनता है। जैसा की प्रेमचंद कहा करते थे “सुख के दिन आयें, तो लड़ लेना; दुख तो साथ रोने ही से कटता है। “

लेखक का कर्त्तव्य है की वो अपने समाज की समस्याओं पर साफ नज़र रखे। उपासना बेहद संवेदनशीलता के साथ अपने कर्त्तव्य को निभा पाई हैं। मेरा मानना है लेखक की सफलता तकनिकी और अकादमिक मामलों से हट कर पाठक के साथ जुड़ने में है। जब एक आदमी अपना समय आपकी किताब को देता है और पढ़ने की यात्रा के दौरान वो सब महसूस कर पाए जो कहानियों के पात्र महसूस कर रहें हैं। तो यही लेखक की सफलता है। तकनीकी श्रेष्ठता अकादमिक हो सकता है मगर वो लोक से नहीं जुड़ पाएगा।

उपासना की सबसे बड़ी उपलब्धि मेरी नज़र में पाठक से जुड़ना है।

सियासी मियार की रीपोर्ट