कविता: रोजी रोटी की चिंता
–मीनाक्षी-
(अहमदाबाद, गुजरात)
दूर-दराज से आते हैं वो,
शहर में कहीं दूर रह जाते हैं वो,
मिल तो जाती है रोजी रोटी, मगर,
सड़क पर ही सो जाते हैं वो,
और ऊंची ऊंची इमारतों के बीच,
छत के लिए तरस जाते हैं वो,
शहर की इस चमक-दमक में,
दूर कहीं खो जाते हैं वो,
रोजी रोटी का है ये खेल सारा,
नहीं मिलता उनको इसका सहारा,
बच्चे भी करते उनके साथ प्रवास,
और बन जाते बाल मजदूर बेआस,
बाल विवाह और दहेज प्रथा से नहीं बच पाते वो,
अपने श्रम के साथ खुद भी बिक जाते हैं वो,
देखकर हालत इन श्रमिक मजदूरों की,
इंसानियत के भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं,
भाई, कुछ तो मजबूरी होगी इनकी जो,
यूं हीं सड़क पर सो जाते हैं वो,
सरकार भी नहीं करती कुछ रोजगारी के लिए,
बस यही रोना रो जाते हैं वो,
पापी पेट का सवाल है भाई,
जिसके लिए उलझ जाते हैं वो,
मिल जाए रोजी रोटी और क्या चाहिए हमें?
बस यही एक बात कहते जाते हैं वो,
बाल मजदूर बन जाते बच्चे उनके,
और आजीवन अशिक्षित रह जाते हैं वो,
उठा कर कर्ज अपने जीवन का,
बस मजदूर और मजबूर रह जाते हैं वो,
दूर कहीं रह जाते हैं वो,
और शहर में कहीं खो जाते हैं वो।।
सियासी मियार की रीपोर्ट