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पुस्तक समीक्षा : पाठकों को भाव- विह्वल करने वाला उपन्यास है ‘चौबीस छत्तीस जीरो वन’..

पुस्तक समीक्षा : पाठकों को भाव- विह्वल करने वाला उपन्यास है ‘चौबीस छत्तीस जीरो वन’..

‘चौबीस छत्तीस जीरो वन’ एक ऐसी रचना है जिसे मैं एक उपन्यास नहीं बल्कि एक बेहद ख़ूबसूरत फ़िल्म कहूँगा और इसकी लेखिका को एक सफल निर्देशक। किस पात्र को पाठकों के मन- पटल पर कितना देर रखना है, कब नए किरदार आएंगे, पाठकों के पसंदीदा चरित्र कितनी बार लाना है और अंत को शुरूआत सदृश दृश्य से कैसे जोड़ना है कि पूरी तस्वीर साफ़ हो जाये और पाठक भाव विभोर हो जाएं, लेखिका इरा टाक इसमें माहिर लगती हैं।

‘चौबीस छत्तीस जीरो वन’ यह बदायूं का पिन कोड है और लेखिका ने बदायूं को मुहब्बत का पर्याय कहा है जिसे बाद में उपन्यास के कथा-क्रम में साबित करने का प्रयास किया है। कहानी के केंद्र में एक बेगम साहिबा और उनके जिगर का टुकड़ा चिलमची। कई बार तो लगता है उपन्यास का नायक या नायिका चिलमची ही है। कथा या तो इसके इर्द-गिर्द घूमती है या अगर कहीं उड़ भी रही है तो डोर चिलमची से बंधी है। इससे ज़्यादा कहानी जानने के लिए आपको उपन्यास पढ़ना होगा।

कहानी की शुरुआत में ही पात्रों का जमघट पाठक को उलझन में डाल देता है लेकिन जब जमघट एक सुन्दर महफ़िल में बदलती है तो पाठक दर्शक और श्रोता बनकर आनंद लेने लगता है। कुछ पात्रों को भीड़ से अलग कर लेखिका छोटी-छोटी कहानियां गढ़ती हैं और उन कहानियों के रेशों को उपन्यास के बृहद फलक में बुन देती हैं। यह कौशल लेखिका के समर्थ पेंटर होने का भी प्रमाण है।

उपन्यास की भाषा शैली
गद्य में कोमलता और लय पाठकों को बांधे रहती है। भाषा बदायूं की स्थानीय ठेठ के साथ-साथ, खड़ी हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों को समाहित की हुई। भाषा एक छोटे शहर के संक्रमण काल और परिवेश को समेटने में समर्थ है। आज वस्तुकरण के दौर में वस्तु का मानवीकरण करके इरा टाक ने चिलमची को अमर कर दिया। जगह-जगह पर पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) का प्रयोग लेखिका ने कथा को खूबसूरत बनाने के लिए किया है।

उपन्यास में कई स्थान में खूबसूरत कथन आएं हैं जो दिल को छूते हैं और पाठकों के मेधा-पटल पर छा जाते हैं। कुछ बानगी यहाँ प्रस्तुत है।
१.’यह अच्छी बात है कि दिल टूटने से कोई नहीं मरता लेकिन कई बार भीतर इतना कुछ टूट जाता है कि उम्र भर उसको समेटने का काम मिल जाता है।
२.’आख़िर मुहब्बत सिर्फ़ साथ रहने या हासिल करने का नाम ही तो नहीं, किसी के साथ बहते जाना भी मुहब्बत है।’
३.’अपने दर्द को बार-बार ज़िंदा करना भी एक अलग तरह को सुख देने लगता है।’
मैं उपन्यास को प्रेम-विषयक मानूंगा। जैसा कि प्रेम कहानियों में होता है, वैसा कहीं भी हवा- हवाई नहीं वर्णित है। घटनाओं के वर्णन में लेखिका ने कार्य-करण संबंधों का निर्वहन किया है। यह उपन्यास एक मजबूत तकनीकी पक्ष है।
उपन्यास के आरम्भ के अध्यायों में एक साथ कई पात्रों के परिचय से पाठक के कन्फ्यूज होने का खतरा है। कुछ पात्रों और घटनाओं का परिचय आगे के अध्यायों में किया जा सकता है। हालांकि इस सीमा का निराकरण जैसे-जैसे पाठक पन्ने पलटता है, होता जाता है।

प्रासंगिकता-
आज के दौर में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता हमारे समाज और राजनीति का सच है। दोनों समाज के बीच दूरियां बढ़ रही हैं ; उस समय में दोनों-धर्मों के परिवारों में साधिकार प्रवेश और उनके बीच के पुल को पहचानने का काम यह उपन्यास करता है। वह सेतु बनता है-प्रेम, भाई-चारा, मित्रता, मानवीय मूल्य और एक दूसरे को समझने की नीयत से। इसे मुहावरा शैली में गंगा-जमुनी तहजीब भी कह सकते हैं।

मोहब्बत की इबारत लिखते-लिखते कई राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को लेखिका ने इस उपन्यास में जगह दी है। अनाथ बच्चे की परवरिश का मसला, मजहब की दीवार को ध्वस्त करते मित्रत्रा के रिश्तों की ज़रूरत, तलाकशुदा का पुनर्विवाह, सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका, घर के नौकरों के साथ अपनत्व वाला व्यवहार, परिवार और समाज के सगे-सम्बन्धियों के मधुर-ईर्ष्यापूर्ण सम्बन्ध, जादू-टोना आदि पर विश्वास, विश्विद्यालय में अपने शोध-छात्रा के साथ दुराचरण, समाज में अकेली स्त्री के साथ व्यवहार, समलैंगिकता और तलाक आदि तमाम मुद्दों पर लेखिका ने उपन्यास के चरित्रों के माध्यम से अपने विचार रखे हैं।

और अंत में, एक रोचक और खूबसूरत कथावस्तु वाली रचना जो हमारे समाज के बदलते परिवेश, अंतर्विरोध और उसके समंजन की राह दिखाती है। ऐसी प्रासंगिक रचना संग्रहणीय और पठनीय है।

शीर्षक-‘चौबीस छत्तीस जीरो वन’
लेखिका-इरा टाक
प्रकाशक-राजपाल एंड संस
मूल्य-265 /-

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