कविता : जिंदगी का फलसफा..
-मनोज चौहान-

जिंदगी का फलसफा,
न बदल पाया कभी,
इस रात – दिन की कशमकश से,
ना उभर पाया कभी,
हर अरमान को मरते हुए,
देखा है मैंने,
फिर भी इन्हें ना बचा पाया कभीl
आसमां की बुलंदियों को,
छूना चाहा था,
मगर चंद फासले भी तय,
ना कर पाया कभीl
रातों की खामोशियाँ भी,
अब डराने लगी हैं मुझे,
सदियों के इस सन्नाटे को,
ना तोड़ पाया कभी,
हादसा बन गया,
हर लम्हा जिंदगी का,
ये सिलसिला हादसों का,
ना बदल पाया कभीl
रिश्तों के भंवर में भी,
मैं तन्हा रहा हर रोज,
निभा पाया ना शायद,
चंद रिश्ते भी कभी,
पतझड़ के टूटते पत्तों में,
मैं तलाशा करता था खुद को,
शायद इसीलिए बहारों को,
समझ पाया ना कभी,
हर शाम जिंदगी की,
मौत का पैगाम देती रही,
फिर भी जिंदगी से दामन,
ना छुड़ा पाया कभीl
पत्थरों के शहर में,
मैं ढून्ढता था इंसानों को,
मगर वो बस्ती इंसानों की,
ना ढून्ढ पाया कभी,
हर चेहरे में फरेब,
और रंजिश नज़र आई मुझे,
वो नज़र जो चाही थी,
ना तलाश पाया कभीl
आंसू बनकर बहती रही,
आँखों की नमी,
बहते हुए ये दरिया,
ना रोक पाया कभी,
फलसफा जिंदगी का,
ना बदल पाया कभी,
इस रात – दिन की कशमकश से,
ना उभर पाया कभीl
सियासी मियार की रीपोर्ट
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