कविता : शहर अभी ज़िंदा है…
-माधुरी पाठक-

शहर अभी ज़िंदा है..
हाँ थोड़ी विरानीयत में डूबा सा,
सड़के अभी भी वैसी ही बिछी पड़ी है,
पेड़ यु ही खड़े है सडको के दोनों ओर,
जैसे बाट जोहते खड़े थे पहले भी,
हाँ गाड़ियों की चिल्ल
पों गायब है, गायब है बाजार,
और बाजार से जुडी आम कहानियां गायब है,
गायब है वो हंसी ढीढोले, सास बहु के किस्से, रोज़मर्रा की हलचल और ऑफिस की थकान,
बॉस की किटकिट गायब है,
गायब है, ज़िन्दगी की वो कवितायेँ जो बेरंगियो और शोर से जन्मी थी, और वो बेरंगियां और शोर गायब है,
पर अब भी यु ही खड़े है घर और इमारतें,
झांकति रोशनी, खिड़कियों की ओट से, जैसे बाहर आने से डरती हो अब,
पूरा शहर शमशान सा लगता है, हाँ बिलकुल वीराना और डर से भरा,
हाँ पर अभी भी जीने के बहाने बाकि है …
बाकि है एक उम्मीद, जीने की वही चाह बाकि है..
हाँ लगता है, शहर अभी भी ज़िंदा है…!!!
सियासी मियार की रीपोर्ट
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