Sunday , December 14 2025

मेला..

मेला..

-आलोक कुमार-

यह जीवन है,
एक चैराहा।
यहां मेला है,
कुछ लम्हों का।
रिश्तों के भूले रस्तों से,
आते रहते हैं लोग यहां।
कई चेहरे हैं,
इन चेहरों में,
कई अपने हैं
कुछ बेगाने भी।
पहचानेगे,
समय की धूल झाड़कर
अपनों को,
पर समय कहां है
इतना भी?
कल मेला भी तो उजड़ेगा,
चेहरे सब गुम हो जाएंगें।
रह जाएगा बस,
एक अहसास, अस्पष्ट
और प्रतीक्षा,
अगले मेले की।

सियासी मियार की रीपोर्ट