पुस्तक समीक्षा -यथार्थ और सौन्दर्य के बीच की गजलें,,..
समीक्षित पुस्तक: शब्दों की कीमत (गजल संग्रह)
गजलकारा: भावना
प्रकाशन: अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद -201005
संपर्क: कुमार कृष्णन, स्वतंत्र पत्रकार,
दशभूजी स्थान रोड, मोगल बाजार, मुंगेर, बिहार
समकालीन हिन्दी गजल आज जिस भाव और कथ्य को लेकर आगे बढ़ रही है, वह हिन्दी कविता के लिए उत्साहवद्धक है। हिन्दी में गजल के प्रवेश से हिन्दी कविता जो पठनीयता के संकट से जूझ रही थी, उस संकट को तोड़ने में हिन्दी गजल को काफी हद तक सफलता मिली है। हिन्दी गजल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह आत्ममुग्ध्ता और दंभ से ग्रसित नहीं है। यह पाठकों की जुवान में ही पाठक की ही बात करती है। इसके कथ्य को गंभीरता से देखा जाय तो न तो उपदेश और न ही शव्दों के इंद्रजाल मिलते हैं। यही कारण है कि पाठकों ने इसका हिन्दी साहित्य में तहे दिल से स्वागत किया है। जहां तक इसके छंद और सौन्दर्य की बात है, यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि उर्दू साहित्य में लिखी जा रही गजलों की कसौटी यह कहीं से कम नहीं है।
समकालीन गजल लेखकों की बात की जाय तो हिन्दी में बहुत सारे गजलकार गंभीरता के साथ काम कर रहे हैं। इन्ही गजलकारों में की सूची में भावना का नाम काफी प्रमुखता के साथ सामने आता है। इनका दूसरा गजल संग्रह शब्दों की कीमत हाल में ही अंतिका प्रकाशन से छपकर पाठकों के समक्ष आया है। संग्रह में कुल 87 गजलें हैं जो विभिन्न भाव-भूमि के तथ्यों के साथ अपनी एक अलग पहचान बनाती है। संग्रह की पूरी गजलों को देखने के बाद यह सहज ही प्रतीत होता है कि भावना का गजल लेखन यथार्थ और सौन्दर्य की परिक्रमा करता है। एक ओर जहां गजलें पूरी तल्लीनता के साथ समकालीन यथार्थ की विवेचना करती है, वहीं दूसरी ओर कहन के सौन्दर्य को भी अपने भीतर बांधे रहती है, जो गजल की अपनी खूबसूरती है। इन दो रंगों के बीच कुछ गजलों की शेरों को देखा जा सकता है…
हर शै की लगी हुई दुकान आजकल
बिकती है टी वी शों में भी मुस्कान आजकल
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जो दिख रहा है वह कभी होता न दरअसल
हॅंसते लबों में बंद है तूफान आजकल
वहीं दूसरी ओर इन शेरों को देखा जाए-
इस जमीं से आसमां तक इक हवा चलती रही
और पर्दे में हमारी जिंदगी ढ़लती रही
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ओढ़कर रातों की चादर नींद में मंजर रहे
ख्वाब में तस्वीर उसकी आंखों में पलती रही
पहले दो शेरों को देखा जाय तो इससे साफ जाहिर होता है कि दोने शेर सहज कथ्य के साथ ही अंतरकथ्य लिए हुए है। भावना ने अपने शेरों में जीवन और आधुनिकता के बीच एक रेखाचित्र खींचने का सफल प्रयास किया है, जिस रेखा के अंदर आज का पूरा समाज छटपटा रहा है। आदमी और आदमी की आदमियत चैराहे पर खड़ी होकर अपने अस्तित्व की तलाश कर रही है। आदमी का अपना अहं जैसे खो सा गया है, जिसे उत्तर आधुनिकता और बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। यही कारण है गजलकारा भावना को कहना पड़ रहा है कि आज की परिस्थितियां ऐसी हो गयी है कि मुस्कान बाजार में मिलने लगी है। यहां मुस्कान का तात्पर्य संतोष और आत्मसंतोष से किया जाता है। असल में मुस्कान बाजार का एक कारण है जो व्यक्तित्व ह्रास का एक मजबूत स्तंभ भी जिससे आदमी रोज टकरा-टकरा कर लहूलुहान हो रहा है।
रही बात उनके गजलों में सौन्दर्यवोध की तो गजल की कलात्मकता और नए-नए आयामों के संप्रेषण के बीच गजलकारा भावना ने अपनी गजलों को प्रेमविंदु पर लाकर खड़ा तो किया है लेकिन उस प्रेम बिंदु पर सिर्फ देहआकर्षण नहीं वरन् घर, परिवार, मोहल्ला और प्रकृति की भींनीं-भींनीं सुगंध मिलती है। तीसरे शेर में ख्वाब, नींद और मंजर ये तीनों शब्दों में कल्पनाशीलता नए-नए रंग बिखेरे हैं। ख्वाब जहां कल्पना है, नींद जहां स्वभाविक है, मंजर जहां सौन्दर्य है, जिन्हें परदर्शी अनुभवों के साथ देखा जा सकता है। भावना का प्रेम काफी उंचाई पर है जो मन का भेद, मन का रहस्य तुरंत-तुरंत बताने से संकोच करती है। इसी तरह संग्रह में कई ऐसे शेर हैं जो गजलकारा भावना को काफी उंचाई तक ले जाते हैं।-
हमारे घर का कोना जानता है
जो खामोशी से रोना जानता है
वो मन का मैल हो या धूल तन की
सफाई् से धोना जानता है
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दाने से मछलियों को लुभाता रहा
क्या हकीकत थी, क्या वह दिखाता रहा
था अजब उनके कहने का अंदाज भी
कुछ बताता रहा, कुछ छुपाता रहा
संग्रह की सारी गजलें पठनीय है जो हिन्दी गजल को एक नई उंचाई देने में सफल होती है।
सियासी मियार की रीपोर्ट