भेद केवल अज्ञान से है.

अपवित्रता तो केवल एक बाह्य आवरण है जिसके नीचे हमारा वास्तविक स्वरूप ढंक गया है, परंतु जो सच्चा तुम है वह पहले से ही पूर्ण है, शक्तिशाली है। आत्मसंयम के लिए तुम्हें बाह्य सहायता की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, तुम पहले से ही पूर्ण संयमी हो। अंतर केवल जानने या न जानने में है। इसीलिए शास्त्र निर्देश करते हैं कि अविद्या ही सब प्रकार के अनिष्टों का मूल है। आखिर ईश्वर और मनुष्य में, साधु और असाधु में प्रभेद किस कारण होता है? केवल अज्ञान से। बड़े से बड़े मनुष्य और तुम्हारे पैर के नीचे रेंगने वाले कीड़े में भेद क्या है? भेद होता है केवल अज्ञान से, क्योंकि उस छोटे से रेंगते हुए कीड़े में भी वही अनंत शक्ति है, वही ज्ञान है, वही शुद्धता है, यहां तक कि साक्षात अनंत भगवान विद्यमान है। अंतर यही है कि उसमें यह सब अव्यक्त रूप में है, जरूरत है इसी को व्यक्त करने की।
सियासी मियार की रिपोर्ट
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