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पुस्तक समीक्षा : किसी किसी पे गजल मेहरबान होती है.

पुस्तक समीक्षा : किसी किसी पे गजल मेहरबान होती है.

गजल की भाषा मुहावरा और प्रवाह गजलकार की साधना के द्योतक हैं। गजल का नाम आते ही प्रेम का क्षितिज उद्घाटित होता है और उस क्षितिज पर प्रणय के विपरित समय की गजलों के माध्यम से शल्यक्रिया की गयी हो, यह आश्चर्य का विषय है। प्रेम की सम्यताओं के बीच परंपराओं का यथार्थ बहुत कुछ मायने रख जाता है। इसी मायने की कसौटी पर अशोक मिजाज की गजलों को कसने की आवश्यकता है। अशोक मिजाज यूं तो सधे हुए गजलकार हैं। उर्दू व हिन्दी दोनो सामान्य भाषाओं में वे जाने और पहचाने जाते हैं। हाल में ही उनकी गजलों का संग्रह किसी-किसी पे गजल मेहरबान होती है डॉ. अनिरूद्ध सिन्हा के संपादन में वाणी प्रकाशन से छपकर आया है। इस पुस्तक में डॉ. शिव कुमार मिश्र, प्रो कांति कुमार जैन, राधा वल्लव शास्त्री, त्रिलोचन शास्त्री, अहद प्रकाश, जहीर कुरैशी के विचार अशोक मिजाज की गजलों के संदर्भ में प्रकाशित किए गए हैं। अपने संपादकीय में अनिरूद्ध सिन्हा कहते हैं-यकीनन अशोक मजिाज की गजलें खूबसूरती और तगज्जुल से लबरेज हैं। इनकी गजलों में गजल की अपनी जमीन, अपनी फिक्र, अपना लहजा, अपना रंग और अपनी रवानी तो है पर वो जब दूसरों की जमीन छूते हैं तो उस पर भी अपना रंग आसानी से चढ़ा लेते हैं। मसलन-गालिब की जमीन में वे कहते हैं…

शायद वो मेरी फिक्र को पहचान गयी है,
कुछ रोज से आती नहीं, बिटिया मेरे आगे।

और

आज तेरे पास ये अच्छा बुरा जो कुछ भी है,
कुछ तेरे अमाल का है, कुछ तेरी तकदीर का।

अब ये मान्यता समाप्त हो चुकी है कि गजल का जन्म प्रेम तथा विरह की कोख से होता है। प्रस्तुत संग्रह की गजलों को देखने के बाद यह सहज की आभाष हो जाता है कि हिन्दी की गजलें मानवीय संवेदनाओं को निर्धारित शिल्प में ढ़लकर अभिव्यक्ति देने में सफल है। सच कहा जाय तो अशोक मिजाज ने अपनी गजलों के माध्यम से हिन्दी गजलों एक नया संस्कार दिया है।

हर चीज तौलते हैं वो बाजार की तरह,
उनकी दुआ सलाम है व्यापार की तरह


खुशियां हमें तो सिर्फ ख्याली पुलाव है,
मुफलिस के घर में ईद के त्योहार की तरह।

उपरोक्त् दोनों शेरों में आत्मनिष्ठ, व्यैक्तिक भावना जिसे अशोक मिजाज ह्दय की भाषा तथा आत्मप्रकाश के साथ आत्मसात कर संवेदनात्मक स्तर पर समाज की निर्धारित समकालीन घटनाओं एवं व्यक्ति निजत्व का आंकलन करने की क्रिया को इमोशनल टच दिया है। सच में बाजार का प्रभाव इतना बड़ा हो गया है कि संभोग संबधों से लेकर अभिवादन के स्वरूप भी बाजार के माध्यम से निर्धारित होते हैं।अशोक मिजाज की गजलों के समकालीन होने का इससे बड़ा उदाहरण क्या मिल सकता है। उदाहरण के तौर पर इस शेर को भी देखा जा सकता है-

चमन में आ के उनको फूल भी चुनना नहीं आया,
वो पाएगें भी क्या जिनको झुकना नहीं आया।

सच में कहा जाय तो गजल संग्रह किसी किसी पे गजल मेहरबान होती है अपने आप में कितने विषय समेटे हुए है, यह संग्रह की तमाम गजलों के अवलोकन के बाद ही पता चलेगा, क्योंकि प्रत्येक गजल अपना एक अलग सौन्दर्य लिए हुए है। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि किसी किसी पे गजल मेहरबान होती है हिन्दी काव्य में मिल का पत्थर सावित होगी।

समीक्षित कृति: किसी किसी पे गजल मेहरबान होती है

लेखक: अशोक मिजाज

संपादक: अनिरूद्ध सिन्हा

मूल्य: 225 रुपए

प्रकाशक: वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए दरियागंज, नई दिल्ली 110002

(रचनाकार डाॅट काॅम से साभार प्रकाशित)

सियासी मियार की रिपोर्ट