अधूरा समुद्र मंथन
-अरुण कुमार प्रसाद

समुद्र मंथन अधूरा है।
समुद्र मंथन में
निकला सब कुछ
राजकीय व अलौकिक वस्तु
अमृत भी।
क्यों नहीं?
उपकृत कर देनेवाला
मानवीय जीवन को।
कोई भावना
हित साधन का संसाधन
या फिर सहानुभूति‚संवेदना।
इसलिए देवता और दानव
उद्यत हों
समुद्र मंथन को पुनः
मनुष्य के निगरानी में।
नहीं अब कोई छल नहीं।
अनवरत करें मंथन
जबतक कि
मानवीयता को‚
छान न ले
सुदृढ़ करनेवाले तत्व।
मैं मनुष्य
घोषणा करता हूँ कि
अधूरा है समुद्र मंथन
और देवताओं का धर्म।
असुरों का पराक्रम।
या फिर क्यों नहीं
बदल लेता है देवता
दानव को या
दानव देवता को
मानव के साथ
और
करता है मंथन।
मथ कर निकालने के लिए
मानवीयता।
देवता
मानव के साथ
कर न पायेगा छल।
मानव महान छली है ही
खुद को ही करता है छला।
किस खेत की मूली देवता।
पराक्रमी दानवों से
रहेगा त्रस्त
जैसे रहता रहा है
बाहुबलियों से।
क्या कर पायेगा छल?
एकता का जुलूस निकालने वाला
अनेकताओं में विभाजित मनुष्य
कर न पायेगा छल।
अमृत का हर हिस्सा
रह पायेगा सुरक्षित।
समुद्र मंथन
दरअसल एक पूजा था
जिसे देवता और दानव ने
मिलकर किया और
पूजा के सारे नियमों को ताख पर रखकर
प्रसाद
बंदरबाँट की तरह खुद बाँट लिया
देवताओं ने।
और इस पूजा को
बना दिया
गिद्ध का कर्मकांड।
मानव दयनीय स्थितियों में जीने के लिए
मजबूर रह गया।
कितने सिर सिजदा में
झुकते रहे हैं हर प्रहर।
पर‚नहीं मिला
वह आशीर्वाद जिसके लिए झुका।
नहीं पूरी हुई किसी की चाहत।
इसलिए समुद्र मंथन
अधूरा है।
जिसे मिला
ईश्वर ने नहीं दिया।
वह तो छीन–झ्पटकर
लेने को
न्याय–संगत‚तर्कसंगत. और शास्त्र–संगत
ठहराता रहा है।
सियासी मियार की रपोर्ट
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