Wednesday , January 8 2025

कविताः भार्या..

कविताः भार्या..

-सत्य प्रसन्न राव-

कभी कठिन पाषाण लगे तो,
कभी मृदुल नवगीत लगे।
कभी क्लिष्ट भावों की कविता,
कभी सरल नवगीत लगे।

कभी ओस सी हिमशीतल तो,
कभी तप्त इस्पात लगे।
कभी कुंद की कोमल कलिका,
कभी खिला जलजात लगे।

कभी गहन गंभीर भैरवी,
कभी यमन-कल्याण लगे।
कभी लगे मावस की रंजनी,
कभी पूर्ण पवमान लगे।

स्थिर तड़ाग सी कभी लगे तो,
सरिता कल-कल कभी लगे।
कभी लगे बस मौन साधिका,
चंचल राधा कभी लगे।

कभी जेठ की लू के जैसी,
कभी मंदिर मधुमास लगे।
कभी भोर की प्रथम किरण सी,
कभी उतरती शाम लगे।

कभी श्लेष उत्प्रेषा रूपक,
कभी यमक अविराम लगे।
कभी लगे बस स्तंबन आचमन,
कभी छलकता जाम लगे।

सियासी मियार की रीपोर्ट