घुन
-प्रभा मुजुमदार-

घुन है कि लग ही जाते है
किसी भी चीज में
जरा भी लापरवाही हो जाये अगर
समेटने, सहेजने, संवारने में.
गेंहू और चावल मूंग और चने तक ही रहे
तो फिर भी ठीक है
मगर धुन तो जकड लेते है
हमारे अरमान आशाओं को.
सपनों महात्वाकांक्षाओं को
हंसी और खुशियों को.
जीने के उल्लास को
असमय ही कर देते है चूर.
जर्जर कर देते है
सम्बन्धों की बुनियाद को.
बुझा देते है रिश्तों की आंच
सोख लेते है
सम्वेदनाओं की नमी.
खुशनुमा गुनगुनी धूप को
दहकते अंगारों में,
संगीत की लय को
चुभते मर्माहत करने वाले शोर
में बदल देते है.
बस एक बार लग जायें कहीं
घुन
बदल ही देते है उसकी रंगत.
कितना भी दिखाएं फिर
धूप और हवा
या फटकारें जोरों से
कुछ न कुछ
बाकी रह ही जाते हैं.
बडी तेजी से फैलते है ये
अन्धेरे सीलन भरे डब्बों
और घुटन भरे माहौल में
जिनमें अक्सर भर देते है हम
जिन्दगी की तमाम दौलत
और निश्चिंत लापरवाह होकर
सोते है फिर ता-उम्र.
और एक दिन
जब बडी हसरत से
खोलते है ढक्कन
निहारना चाहते है
अपनी जुटाई हुई सम्पदा
बन्द डिब्बे के भीतर तब
हम पाते है घुन ही घुन
चूरे का ढेर।।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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