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कहानी : गुल्लक…

कहानी : गुल्लक…

-राजेश कुमार पाठक-

दूसरों के यहां झाडू-पोंछा देकर भी अपने बच्‍चों की परवरिश करके रोहित की माँ खुश थी। अपने लाडले रोहित के बड़ा होकर बड़े अफसर बनने की चाहत उसे अंदर ही अंदर अक्षय उर्जा प्रदान करती। दो-तीन घरों में लगातार हाड़तोड़ शारीरिक काम करते रहने से अचानक उसकी तबीयत खराब हो जाने से डाक्‍टर ने उसे आराम की सलाह दी थी पर वह थी कि अपने बच्‍चे के अरमान पर पानी फिरता नहीं देखना चाहती थी। वह अपना काम बंद ना कर और भी उत्‍साह से अपने रोहित के भविष्‍य के सपने खुद देखती और मन ही मन उसके साकार होने के दिनों का इंतजार में रहती। अपनी कमाई का आधा पैसा उसे अपनी दवाईयों पर ही खर्च करना पड़ रहा था। घर चलाने का अतिरिक्‍त बोझ उसे मानों अंदर ही अंदर कमजोर कर चुका था। वक्‍त बीतता गया और अब उसे ‘जीवन रक्षक’ दवाईयों पर निर्भर रहने की नौबत आ गई। रोहित अपनी माँ के कामों में हाथ बँटाना भी चाहता तो उसकी माँ उसे ऐसा करने से बरबस रोक दिया करती थी।

वह अपने को भले ही गरीब मानता हो पर वह माँ के विशाल हृदय के हरदम करीब होता था। उसकी माँ अपने स्‍वास्‍थ्‍य की परवाह किये बगैर अपने बच्‍चों के भविष्‍य के सपने बुनने में सदा मशगूल रहती। रोहित को उसकी मां का जीवन रक्षक दवाईयों पर निर्भरता कुछ अलग ही संकेत देने लगे थे। उसका ध्यान अपनी पढ़ाई से थोड़ा हटकर मां के स्‍वास्‍थ्‍य पर जा टिकता। दवाईयों भी तो मंहगी थी। उसपर कभी-कभी दवाईयों का समय पर नहीं मिलना रोहित की चिंता को और भी बढ़ा रही थी।

रविवार का दिन था। रोहित अपने घर पर ही स्‍कूल के गृहकार्य को करने में व्‍यस्‍त एवं तल्‍लीन था कि अचानक उसकी मां के एक पुकार ने मानो उसके होश ही उड़ा दिये। वह दौड़ता हुआ अपनी मां के कमरे में दाखिल हुआ, उसकी मां अपने कमरे में गिरी पड़ी थी। सांसे तेज चल रही थी। रोहित को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। उसने अपनी मां को संभालकर खटिया पर सुलाया एवं जीवन रक्षक दवा को ताखे पर खोजना शुरू कर दिया। दवाईयाँ घर पर हो तो मिल भी जाए। सच तो यह था कि दौ सौ रूपये मूल्‍य की एक बची टेबलेट, जो जीवन रक्षक दवा थी, वह पिछले दिन ही उसकी माँ दुकानदार को लौटाकर रोहित के जन्‍मदिन में भेंट के लिए एक घड़ी खरीद कर ले आयी थी, जिसे आज की शाम वह रोहित को भेंट करती।

यह सब रोहित को पता नहीं था। वह बेतहाशा दवाईयां ढूँढ़ते चला जा रहा था। अब काम छोड़ अपने छोटे भाई मोहित को मां की सेवा में लगा, बहुत दिनों से अपनी जमा पूंजी मिट्‌टी के गुल्‍लक को फोड़ उसमें जमा पैसों को लेकर वह दवाईयां खरीदने निकल पड़ा। असमय गुल्‍लक फोड़ते उसे मां की डाँट का भी भय हो रहा था पर साथ ही वह यह सोच रहा था कि मां की डांट से तो कहीं प्‍यारी मां की जिंदगी है। मां की डांट से क्‍या कभी बेटे की ठाट में कमी आती है ? कभी नहीं। अपने गांव से सटे शहर में वह इस दुकान से उस दुकान तक जीवन रक्षक दवाईयां ढूँढता रहा पर दवाईयां नहीं मिलीं। वह थकाहारा एक दवा की दुकान पर पहुंचा और बड़े ही आशा की नजरों से देख दुकानदार से अपने मन की बात कह ही गया-‘मेरी मां जीवन और मृत्‍यु से द्वंद्व कर रही है। जीवन रक्षक दवाईयां नहीं मिल पायी तो मैं उसे खो दूँगा। मैंने अपनी मां की इच्‍छा के विरूद्ध अपने गुल्‍लक में से पैसे लेकर उन दवाईयों को खरीदना चाहता हॅूं पर दवाईयां नहीं मिल रही है। आप दयावान लगते है। दवा प्राप्‍त करने में मेरी मदद करें।”

उस लड़के के अनुनय-विनय करने पर दुकानदार कुछ देर सोचा एवं अचानक उसे इक बात याद आई कि कल एक व्‍यक्‍ति ने उसके दुकान से दो जीवन रक्षक टेबलेट खरीदी थी। उसे उस व्‍यक्‍ति का पता लगभग मालूम था। दुकानदार ने रोहित का पता बता दिया पर चूंकि दुकान में दवाईयां उपलब्‍ध नहीं थी सो मैं दुखी हॅूं, कहकर फिर अन्‍य लोगों को उनके द्वारा मांगी जा रही उपलब्‍ध दवाईयां देने में जुट गया।

रोहित उस अनजान-अजनबी व्‍यक्‍ति का घर ढूंढता-ढूंढता पहुंच ही गया। दरवाजे पर दस्‍तक देने से एक लड़के ने दरवाजा खोला तो उसने पाया, एक बुढ़ी औरत अपने ही हाथों पंखे झलते कुछ बुदबुदा रही थी-‘कौन आया है ? एक बच्‍चे के भरोसे मुझे छोड़ दिया है। नौकरी नहीं लगी थी, वही अच्‍छा था। बड़ी-बड़ी कसमें खायी थी। नौकरी लगेगी तो साथ रखूंगा। नजरों से ओझल नहीं होने दूंगा। मैं तो नजरे अब भी पसारे हॅूं। मैं भी कितनी बदनसीब हॅूं। बाल-बच्‍चों पर से ज्‍यादा दवा पर आश्रित हॅूं।”

रोहित के हम उम्र उस लड़के का नाम सुमित था। सुमित का बड़ा भाई अपनी पत्‍नी एवं बाल-बच्‍चों के साथ कामचलाउ एक छोटी ही सही पर नियत मासिक आय वाली नौकरी करता था जो उस शहर से सटे कुछ दूरी पर था। तुझे पहचाना नहीं। रोहित को देखते सुमित ने तटस्‍थ भाव से पूछा।

रोहित एक सांस में अपनी दवाई दुकानदार से हुयी बातें कह डाली जिसने उसके बारे में उसे बताया था।

क्‍या तुम्‍हारी माँ भी मेरी माँ की तरह जीवन रक्षक दवाओं पर निर्भर है ?, सुमित ने पूछा । हां मेरे दोस्‍त। उसे अगर कुछ घंटों में वह दवा न मिले तो वह अपने प्राण त्‍याग देगी। वह इन दवाओं के बिना जिंदा नहीं बच सकती और मैं अपनी मां को खोना नहीं चाहता। रोहित ने बड़े ही कातरपूर्ण पर आत्‍मविश्‍वास के साथ अपनी बातें रख दीं।

तुझे तो मालूम हो ही गया है। मैंने दो दवाईयां खरीदी थी। एक खाकर मां जिंदा दिख रही है। दूसरी है कि अगर पुनः इसकी जरूरत आ पड़े तो वह काम आए वरना दुकानदार अगर ना कह दें तो कही तुम्‍हारी ही तरह मुझे भी कहीं यूं ही ना दरबदर उसकी खोज में मारे फिरना पड़े। मैं तुम्‍हारी मां की वेदना से दुखी हॅूं पर मैं मजबूर हॅूं। मुझे भी तो अपनी मां का ख्‍याल रखना है।

सुमित यह सब कह ही रहा था कि उसकी मां यह सब सुनते अपनी खटिया छोड़ धीरे-धीरे दरवाजे की तरफ आने लगी। सर उठाकर उसने देखा तो उसे उसे उस अजनबी-अनजान लड़के के चेहरे में अजीब तरह की कशिश, तड़प, बेचैनी के साथ-साथ आत्‍मविश्‍वास झलकता नजर आया। वैसा आत्‍मविश्‍वास कि सुमित ना भी कह रहा था फिर भी उसे वह हाँ करने को मजबूर कर दे।

ऐसा नहीं कहते बेटे, मेरी बची दवाई अगर किसी की जान बचा सकती है तो उसे बच जाने दो। यह भी क्‍या जब जान ही ना बचे और दवाई बची रह जाय, सुमित की मां ने उसे समझाते हुए कहा। और फिर उसने रोहित को अपनी बची हुई जीवन रक्षक दवाई बिना कोई मूल्‍य लिए उसके हवाले कर दिया। रोहित उस दवाई को अपनी मां के प्राण समझ अपने ह्‌दय में समेटे तेजी से घर लौट मां को खिलाया। मां राहत की सांस लेते हुए गहरी नींद में से गई, उसे उस दवाई से सुकून जो मिली थी। फिर कुछ घंटों के बाद तरोताजा महसूस कर अपने कामों में जुट गयी थी पर सामने रोहित को नहीं पाकर उसे कुछ अच्‍छा नहीं लग रहा था। मां के सिराहने में रखी एक पर्ची में रोहित लिख रखा था कि उसने दवाई तो ले आयी थी पर उनके पैसे देने भूल जाने की वजह से वह उन्‍हें पैसे देकर तुरंत घर लौट आएगा।

इधर रोहित बिना विलंब किये क्‍योंकि उसे मालूम था कि वह जीवन रक्षक दवा चूंकि अगल-बगल के शहर के किसी दुकान में उपलब्‍ध नहीं है फलतः वह लोकल ट्रेन से कुछ घंटों का सफर तय कर बड़े शहर से उसे खरीद उस मां को जल्‍द लौटा देना चाहता था जिसने वक्‍त पर उसकी आर्त्‍त पुकार सुन अपनी मां की जान की रक्षा की थी। रोहित को सुमित की मां का यह बोझ वहन नहीं हो रहा था। उसे अब अहसास होने लगा था कि वह अपनी मां के प्‍यार में कितना अंध हो गया था कि उसे दूसरे की मां की रक्षा का उतना भी ख्‍याल मन में नहीं आया। वह अपने को घोर स्‍वार्थी निकृष्‍ट रखे कभी-कभी अवसरवादी करार दे रहा था। उसे रह-रहकर सुमित की मां का वह सॉम्‍य चेहरा मानों उससे पूछ रहा हो-कैसी है रे तेरी मां। ठीक-ठाक तो है। दवा काम आयी कि नहीं ?

बगल के बड़े शहर से रोहित दवाईयां ले लौट रहा था। मन में अच्‍छे-अच्‍छे विचारों को समेटता वह ज्‍योंही सुमित के घर उन दवाईयों को उसकी मां के लिए लौटाता, वहां के हृदय विदारक दृश्‍य ने उसे झकझोर कर रख दिया। उसकी आँखें मानो सुमित की मां की मौत का असली गवाह बन गई हो। सुमित की मां उसी जीवन रक्षक दवाईयों के अभाव में अपना दम अपने बेटे की गोद में तोड़ते जा रही थी। वह तेजी से दौड़ता उसकी मां के पास दवाईयां निकालकर उसके मुंह में ज्‍योंही देना चाहा, उसकी मां ने उसे रोक दिया। कहा-‘‘अब दवाईयों की नहीं गंगाजल की जरूरत है मेरे बेटे। कब तक मेरी जिंदगी दवाईयों पर बोझ बन कर रहेगी। एक दिन तो मरना ही है। वह मरणावस्‍था में रोहित में अपने बड़े बेटे के होने का अहसास कर रही थी। मेरी अंतिम इच्‍छा यही है कि तुम दोनों सच्‍चे दोस्‍त, सच्‍चे भाई की तरह एक दूसरे के सुख-दुख में साथ निभाना। वह अपने बेटे के कान में कुछ कहना चाह रही थी कि वह रोहित को नहीं कोसेगा वरना उसके द्वारा रोहित को दी गई दवाईयां दुआएं नहीं देगी क्‍योंकि मैं जानती हॅूं कि मेरे इस दुनिया से जाने के बाद तुम्‍हें अब दवाओं के खोजने की जरूरत नहीं, दुआओं की जरूरत पड़ेगी।”

इस ह्‌दय विदारक दृश्‍य रोहित को वेधता चला जा रहा था। उसके मर्म को इस कदर झकझोर रहा था मानों उसका तन-मन सुमित की मां के हृदय में प्रवेश कर उसी रास्‍ते उसके गर्भ में समाकर नवजीवन प्राप्‍त करने की उत्‍कट इच्‍छा पाल रहा हो। मां के चले जाने के बाद सब कुछ शांत दिख रहा था। इधर सुमित अनजान अजनबी रोहित के कंधे पर अपना सिर रखकर उसके तन-बदन को आंसुओं से भिगोना शुरू कर दिया पर रोहित में पैदा हुई चेतना की गर्मी उन आंसुओं को वाष्‍प में इस तरह तिरोहित कर पा रहा था मानों वाष्‍प हवा में उठकर जीवन की सच्‍चाई का उस घर में प्रसार कर रहा हो।

सियासी मियार की रीपोर्ट