समीक्षा : काबुल ब्यूटी स्कूल..
एक अमरीकी औरत की नज़र से अफ़गानिस्तान
-डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल-
1979 से हेयर ड्रेसर के रूप में कार्यरत अमरीका के मिशिगन राज्य के हॉलेण्ड शहर की डेबोराह रोड्रिग्ज़ एक स्वयं सेवी समूह की सदस्य के रूप में 2002 में अफ़गानिस्तान आई। उद्देश्य था तालिबान के द्वारा नष्ट भ्रष्ट इस देश के पुनर्निर्माण में सहायता करना। समूह में थे डॉक्टर, नर्स, परिचारक। उनके बीच खुद को अप्रासंगिक पाती रही डेबोराह। लेकिन उसमें अनजान लोगों से दोस्ती कर लेने का अनूठा हुनर था, और उसी के बल पर उसने उस बन्द समाज में अपने लिए न केवल जगह बनाई, उस समाज के लिए खुद को उपयोगी भी सिद्ध किया। धीरे-धीरे एक सौन्दर्य कर्मी के रूप में उसकी दक्षता की ख्याति फ़ैलने लगी। पहले अफ़गानिस्तान में रह रहे विदेशियों को और फ़िर खुद पर्दानशीन लेकिन बेहद खूबसूरत अफ़गानी खवातीनों को भी डेबोराह की नाज़ुक उंगलियों के इशारों पर नाचती कैंची के कौशल की तलब होने लगी। इस सबके बीच डेबोराह ने अपनी उपादेयता को भी पहचाना। उसे लगा कि वह भी एक ध्वस्त देश के पुनर्निर्माण में सहयोग कर सकती है। इसके लिए उसने अफ़गानिस्तान में एक ब्यूटी स्कूल शुरू करने का विचार किया। अपने स्कूल के माध्यम से वह अफ़गानी समाज की औरतों को परिवार के भरण पोषण की सामर्थ्य प्रदान करना चाहती थी।
बीच में कुछ समय के लिए जब वह अपने मुल्क अमरीका लौटी तो उसने वहां के अन्तर्राष्ट्रीय सौंदर्य उद्योग और कॉर्पोरेट जगत के प्रायोजकों को सौंदर्य प्रसाधनों के 10,000 बॉक्स उपहार स्वरूप काबुल, अफ़गानिस्तान भेजने के लिए तैयार कर लिया। और इससे हुई एक शुरुआत। हालांकि शुरुआत इतनी आसान नहीं थी। रुकावटें अनेक थीं : भाषा की, सांस्कृतिक भेद की, एक युद्ध ध्वस्त देश की उखडी मानसिकता की। लेकिन कहते हैं ना कि जहां चाह वहां राह। डेबोराह ने अपने प्रयत्न ज़ारी रखे। आखिरकार 2003 में शुरू हुआ काबुल ब्यूटी स्कूल। अफ़गानिस्तान का पहला आधुनिक ब्यूटी स्कूल। तालिबान के समय में तो संगीत, पतंगबाज़ी तक पर प्रतिबन्ध था। सौंदर्य प्रसाधन की तो बात ही क्या की जाए।
डेबोराह के प्रयत्नों के परवान चढते-चढते गुरु और शिष्याओं के बीच की दूरियां भी घटने लगीं। कद्दावर लेकिन पर्दानशीन औरतें डेबोराह के सामने अपना दिल खोल कर रखने लगी। उन्हीं से डेबोराह ने जाना कि कैसे परिवार का कर्ज़ चुकाने के लिए एक बारह साला लडकी को शादी के लिए बेचा गया, किस तरह एक नव विवाहिता ने अपनी सुहागरात में कौमार्य का छद्म रचा, और कैसे एक तालिबानी की पत्नी ने पति की मार खाते हुए भी अपना यह प्रशिक्षण ज़ारी रखा। ऐसे अनेकानेक जीवन्त,रोचक, आंख खोल देने वाले प्रसंगों से बनता है 10 अप्रेल 2007 को प्रकाशित ‘काबुल ब्यूटी स्कूल : एन अमेरिकन वुमन गोज़ बिहाइण्ड द वेल’ का कलेवर। इन्हीं तमाम प्रसंगों के बीच यह बात भी सामने आती है कि किस तरह खुद लेखिका ने भी अपने बीमार वैवाहिक जीवन को खत्म कर एक अफ़गान के साथ नई ज़िन्दगी की शुरुआत की। किताब की सहलेखिका हैं क्रिस्टिन ओहिसन।
इस दिलचस्प किताब के माध्यम से पाठक एक अपेक्षाकृत अनजाने समाज की अन्तरंग छवियां देख पाया है। डेबोराह को सौंदर्य प्रसाधनों के डिब्बों को खोलने-जमाने के लिए पुरुषों की सेवा की आवश्यकता थी। उसे अफ़गानी मर्दों को इस बात के लिए मनाने में भी खासी मशक्कत करनी पडी कि वे उसके, यानि एक औरत के, सहायक बनें। एक पर्दे वाले समाज में, जहां स्त्रियों को शिक्षा से सायास वंचित रखा गया था, डेबोराह के लिए अपने स्कूल के लिए छात्राएं जुटाना आसान नहीं रहा। उन्हें धमकियां दी गईं। उनका स्कूल बन्द करने के प्रयास किए गए।
महत्वपूर्ण यह बात है कि यह सब बयान करते हुए डेबोराह अफ़गानी स्त्रियों के प्रति बराबर सहानुभूतिशील, बल्कि उनकी प्रशंसिका के रूप में सामने आती हैं। जब उन्होंने अपना स्कूल शुरू किया था, तब तो उन्हें खुद इस बात का एहसास नहीं था, लेकिन अब वे भी समझ पाई हैं कि महिला सशक्तिकरण में, उस समाज की स्त्रियों को आत्म निर्भर बनाने में और स्वायत्तता देने में उनका कितना योगदान है!
भले ही अब वे खुद एक अफ़गानी की पत्नी हों, उनकी दृष्टि, उनका सोचने का तरीका सब कुछ पश्चिमी है। और यह स्वाभाविक भी है। डेबोराह का अन्दाज़े बयां बहुत बिन्दास और खुला है। कुछ-कुछ हमारे अपने देश के केश-कर्तकों जैसा, जो बोलते हैं तो चुप होने का नाम नहीं लेते। लेकिन यही तो इस किताब की खूबसूरती है। दूसरों की निगाहों से देखे जाने और कैंची की तरह चलती जबान से बयान किए जाने की खूबसूरती। और इस सबके नीचे है दो अलहदा संस्कृतियां, लेकिन उसके भी नीचे है मानवीय संवेदना और पारस्परिक सम्मान का भाव। इसे पठनीय बनाता है रसभरा और खिलंदड़ा वर्णन, कुछ – कुछ गॉसिप जैसा। ये ही कारण हैं जो इस किताब को ज़बर्दस्त लोकप्रियता प्रदान कर रहे हैं।
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