कविता: अर्थी उठाने वाले मेरे खुरदरे हाथ…
-कर्मानंद आर्य-

अर्थी उठाने वाले मेरे खुरदरे हाथ
हँसो जितना हँस सकते हो
मुझसे उतनी ही नफरत करो जितनी मौत से
मुझे कविता से प्रेम नहीं
नहीं जानता मैं संगीत, साहित्य, कला
तुम्हारे पशु बाड़े में मेरा नाम लिखा है असभ्य
हाँ, मैं दोपाया
जानवर ही तो हूँ
मेरे लिए देश की सीमाओं से चौड़ी है भूख की नली
तुम्हारी चौहद्दी मेरी दुनिया
तुम्हारे कुत्ते और मेरे बच्चों में नहीं कोई अंतर
दोनों अपने व्यक्तिगत कारण से स्कूल नहीं जाते
नींद में खनकती है तुम्हारी गाली
मेरे दांतों से रिसता है मरे गोरू का लहू
संवेदना तो उसी दिन मर गई थी मेरे भीतर
जब बीमार बाप को पीटा था तुम्हारे लठैतों ने मरने तक
भय फैल गया था पूरे मुहल्ले में
सहम गई थीं नई पीढियां
तोड़ डाली थी बूढी कमर
दिन-दिन रोया था मैं काम गई माँ के इन्तजार में
भय का व्याकरण, छुपा है सात ताले डाल
असभ्य बर्बर पंजों में
तुम मुझे संस्कृत का हन्ता मानते हो
मैं भी तुमसे उतनी ही नफरत करता हूँ
जितना तुम करते हो मुझसे
मरी नहीं है मेरी आत्मा
बस अर्थी उठाने वाली मेरी हथेलियाँ
खुरदरी हो गई हैं।।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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