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शैतानी गणित में बिलबिलाती रूहें…

शैतानी गणित में बिलबिलाती रूहें…

पुस्तक समीक्षा – कहानी संग्रह – मैं हिन्दू हूँ
लेखक – असग़र वजाहत
समीक्षक – अभिषेक श्रीवास्तव

असग़र वजाहत की कहानियों के केन्द्र में साम्प्रदायिकता है। लेकिन यह साम्प्रदायिकता उस पारम्परिक साम्प्रदायिकता से बिल्कुल भिन्न है जिनका साक्षात्कार हमें रोज ब रोज की घटनाओं में अपने समाज में देखने को मिलता है। ये घटनाएं, दंगे और फसाद इनकी कहानियों के एक महत्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन चिन्ता उस शैतान की है जिसकी गणित पूरे सामाजिक तानेबाने को छिन्न भिन्न किये दे रही है। मैं हिन्दू हूं एक ऐसा कहानी संग्रह है जहां मानवीय विद्रूपताएं अपने नग्नतम रूपों में अतिरेक के स्तर पर जाकर बिलबिलाने लगती हैं, जहां यथार्थ की रूह कांप उठती है और इन तमाम अपराधों के पीछे दरअसल वह इन्सानी फितरत होती है जो न तो हिन्दू है न मुस्लिम, बल्कि उसमें गहरे कहीं छिपा एक शैतान है जो जिन्दगियां तबाह कर मजे लेता है।

उसी शैतान का एक बौद्धिक चेहरा हमें ‘जख्म’ में दिखाई देता है। यह कहानी एक दंगा पीड़ित का बयान है, उस पूरे सभ्य समाज पर एक टिप्पणी है जो हर बार लगने वाले घाव से अपनी कमाई कर वातानुकूलित कमरों में चैन से सोता है। ‘ साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन’ के माध्यम से असग़र वजाहत उस सभ्य पैटी बूर्जुआ समाज, सोशल डेमोक्रेट आबादी की नग्नता को दिखाते हैं जिसके पास एक दंगा पीड़ित के सवालों का कोई जवाब नहीं। दूसरी ओर उस आबादी की संवेदनहीनता का भी मखौल उड़ाते हैं जिसके लिए साम्प्रदायिक दंगे होने का अर्थ ठीक वैसे ही होता है जैसे कि शहर में ‘ गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या ‘ अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी खबरें। यहीं दिक्कत पैदा होती है। लेखक सन्देह पैदा करता है। उसे उस शैतानी गुणा गणित के सारे फलसफे पता हैं, कि किस तरीके से हर दंगे के पहले सामाजिक आन्दोलनकारियों और साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यकर्ताओं के पास कोई मुद्दा नहीं होता और हर दंगे के बाद उनके हाथ एक ऐसा मुद्दा हाथ लग जाता है जिससे वे बरसों अपनी रोटियां सेंकते रहते हैं। वह यह भी जानता है कि कैसे चुनाव के पहले राजनेता अपने संसदीय क्षेत्र में अधिकारियों की तैनाती जाति धर्म के आधार पर करवाते हैं ( नया गणित), अब की राजनीति में दो और दो चार नहीं बाईस होते हैं। इसके बावजूद यदि ‘ जख्म’ में वह भी उसी आबादी का हिस्सा खुद को पाता है तो इसे उसका आत्मस्वीकार कह कर प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। बल्कि मुख्तार को पूछना चाहिए, कि क्यों आप मेरे सवालों से बच रहे हैं? यह पूछने की बजाय मुख्तार अपने सिर के बाल हटा कर जख्म से रिस रहे ताजा लाल खून को दिखाना मुफीद समझता है। पूरे संग्रह में यह जख्म दिमाग पर तारी रहता है और ‘ शाह आलम कैम्प की रूहें’ में पाठक को भीतर तक जख्मी कर जाता है। इस संग्रह की कहानियों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है।

एक वे कहानियाँ जो साम्प्रदायिकता पर पूरी तरह केन्द्रित हैं, दंगों के बाद बदहाल इन्सानियत की तस्वीर पेश करती हैं। दूसरी वे कहानियाँ जो अनाम अजाने पात्रों के माध्यम से अपने लघु संस्करणों में ही पूरी सामाजिक, राजनैतिक सत्ता का मजाक उड़ाती हैं, एक परिवार की आत्महत्या को सामाजिक टिप्पणी के रूप में प्रदर्शित कर व्यवस्था को शर्मसार करती हैं और यथार्थ को खोदबीन कर सामने लाती हैं। साम्प्रदायिकता की व्यापक अर्थछवियों में देखें तो ये सभी उस ढांचे में फिट बैठती हैं। मसलन, ‘ गिरफ्त’ में मल्लू नाम का एक पात्र है जो खून बेच कर अपने परिवार का खर्च चलाता है। प्रधानमंत्री का आगमन होता है; रक्तदान शिविर लगा हुआ है और एक स्थानीय महिला नेता को यह दिखाना होता है कि सबसे पहले उसने रक्तदान किया ताकि उसकी तस्वीर प्रधानमंत्री के साथ आ जाए। इसके लिए मल्लू का इस्तेमाल किया जाता है। उसे भर अंटी पैसे दिये जाते हैं जिसमें डॉक्टर, नर्स और चपरासी बन्दरबांट कर लेते हैं। फिर भी उसकी जेब में कुछ पैसे बच जाते हैं। उधर प्रधानमंत्री महिला नेता के साथ तस्वीर खिंचवाते हैं, इधर बिस्तर के नीचे से मल्लू के खून की बूंदें बोतल में भर रही होती हैं। इस पूरे मेलोड्रामे में व्यवस्थापक इस तथ्य को भूल जाते हैं कि मल्लू का खून निकला ही जा रहा है। नतीजा, मल्लू महान बन जाता है। उसकी मौत हो जाती है। यह प्रसंग सत्ता और उसके बिचौलियों का ऐसा साम्प्रदायवाद है जो हाशिए पर जी रहे इन्सान को मौत की हद तक निचोड़ डालता है। अफसोस, कि साम्प्रदायिकता के पारिभाषिक कोश से ऐसी हिंसात्मक कार्रवाइयां नदारद हैं।

हाशिए पर जी रहे लोगों की ऐसी दास्तानों की लम्बी फेहरिस्त हमें असग़र वजाहत की कहानियों में देखने को मिलती है। गनीमत ही है कि सैफू की जान सिर्फ इस एक उद्घोष से बच जाती है कि ‘ मैं हिन्दू हूं’। यह उद्घोष उस आजाद भारत की सबसे बड़ी विडम्बनाओं में से एक है जिसका मुजाहिरा हमें शमोएल अहमद के उपन्यास ‘ महामारी’ में विस्तार से देखने को मिलता है। यह सैफू दरअसल ‘ महामारी’ का ढानचू है। एक सनातन खौफ में आविष्ट, हमेशा ‘ ट्रांस’ की स्थिति में बुदबुदाता और सवाल पूछता। यह खौफ आज भी भारतीय मुसलमानों की एक बड़ी आबादी को आविष्ट किये हुए है। इसका वीभत्सतम् रूप हमें गोधरा काण्ड के बाद गुजरात में सुनियोजित तरीके से अंजाम दिये गये नरसंहार में दिखाई पड़ता है। उसी के बाद ‘ शाह आलम कैम्प की रूहें’ नामक कहानी लिखी गयी थी।

असग़र वजाहत का कहानीकार किसी फालतू आशा में नहीं जीता। वह जानता है कि रोजी रोटी के साधन छिन जाने के बाद इन्सान के पास मौत के सिवा कोई चारा नहीं होता। ‘ जिम्मेवारी’ में यह यथार्थ बिल्कुल एक सत्यकथा मार्का शैली में हमारे सामने पुनरुज्जीवित होता है। यह तय है कि दुलीराम के परिवार समेत आत्महत्या जैसे किसी मामले से लेखक का सीधा साक्षात्कार नहीं हुआ होगा, लेकिन काल्पनिकता के जिस औजार से यह कहानी गढ़ी गयी है, उससे यह दिल को चीर जाती है। कल्पना का यथार्थ में इतना यथार्थवादी रूपान्तरण पहले कभी नहीं हुआ है। और अन्त में, अपने ‘ सुसाइड नोट’ में दुलीराम लिख छोड़ता है- ‘‘ मेरी और मेरे परिवार की हत्या की जिम्मेवारी किसी पर नहीं है। ” ऐसे ही रोज कई दुलीराम और मल्लू अल्लाह को प्यारे हो जाते हैं। बचता है तो सिर्फ एक सवाल, कि आखिर कौन है इस मौत का जिम्मेवार?

यह सवाल लेखक ने एक नहीं कई बार अपनी कहानियों में उठाया है। गुरु चेला संवाद में चेला पूछता है कि गुरुजी, दंगों का जिम्मेवार कौन है। गुरु आखिरकार जनता को जिम्मेवार ठहराता है। जनता का मतलब हम और हम का मतलब कोई नहीं। कोई नहीं यानी शैतान भी नहीं, अल्लाह भी नहीं। संग्रह का अन्त इसी सवाल की खोजबीन से होता है। शैतान के दिल से बोझ उतर जाता है कि चलो, लोग सचाई जानते हैं कि दंगे उसने नहीं करवाये। बाद में लोग उसे बताते हैं कि यहां अल्लाह मियां भी आये थे और वह भी यही बात कह रहे थे। पूरा संग्रह दिल पर पत्थर रख कर समाप्त होता है… सवाल अधर में लटका रहता है… ‘ आखिर कौन?’

संग्रह में ‘ श्री टी.पी. देव की दस कहानियाँ’ ब्रेख्त के महाशय ‘ क’ और महाशय ‘ ब’ की कहानियों की याद दिलाती हैं। सम्भव है शैली और नाम वहीं से प्रेरित हों। लेखक की समझदारी, हास्य, व्यंग्य और खिलन्दड़ेपन का सबूत ये कहानियाँ कहीं बहुत गहरे जाकर मार करती हैं। ये कहानियाँ सही मायनों में असग़र वजाहत की दृष्टि और निशाने की सूचक हैं। ऐसे ही ‘ गुरु चेला संवाद’ और ‘ विकसित देश की पहचान’ में कुछ सवाल जवाब हैं। इनमें आपको वृत्ताकार तर्क के कई नमूने मिल जाएंगे जो दक्षिणपन्थ की खास प्रवृत्ति है। इस तर्क का अनेक तरीक़ों से उपयोग किया गया है। संवादों के अन्त में लेखक जो कहना चाहता है वह पूरी तरह व्यंग्यात्मक लहजे में अभिव्यक्त हो जाता है। ठीक इसी तर्क पर एक कहानी है, और इस संग्रह में वह अपने किस्म की इकलौती कहानी है ‘ अपनी-अपनी पत्नियों का सांस्कृतिक विकास’। हालांकि, यहां इसके माध्यम से मध्यवर्गीय बौद्धिक तबके के स्त्रियों के सन्दर्भ में दोमुंहे रवैये का पर्दाफाश किया गया है। एक पुरुष दूसरी स्त्री के सांस्कृतिक विकास में बाधाओं को बड़ी आसानी से लक्षित कर लेता है, लेकिन जब अपनी पत्नी की बात आती है तो वह सामन्ती ढांचे को तोड़ नहीं पाता। इस विषय पर कई कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं, लेकिन असग़र वजाहत की शैली और भाषा के कारण यह दिलचस्प बन पड़ी है।

असग़र वजाहत के इस चौथे कहानी संग्रह में उनके पिछले संग्रहों की तुलना में कथा भाषा ज्यादा परिपक्व, शैली मारक तथा अर्थ संकेत अधिक लयबद्ध हुए हैं। इन कहानियों को समझने की एक आवश्यक शर्त यह है कि वाक्यों और शब्दों में कहे गये यथार्थ के अतिरिक्त खाली जगहों में कैद खामोशियों को भी पढ़ने की कोशिश की जाए। अच्छी कविता की यही विशेषता होती है कि वह जितना कहती है उससे ज्यादा अनकहा रहा जाता है। असग़र वजाहत की तमाम कहानियाँ इस मायने में कवितात्मक हैं और जितनी बार पढ़ी जाएं, उतनी ही परत दर परत उघड़ती चली जाती हैं। हरेक परत अपने आप में एक कहानी होती है जिसमें कटु यथार्थ की परछाइयां तैरती चली आती हैं, डराती हैं, सहमाती हैं और आभास दिलाती हैं कि यदि हम अभी तक हंस रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि बुरी खबर हम तक नहीं पहुंची है। वरना शैतान अपनी शायरी रचने में मशगूल है… यह जानते हुए भी कि उसकी हरकतों पर नजर रखी जा रही है, उसकी साजिशों को लोग समझ चुके हैं। वह आगे बढ़ रहा है अपनी कार्रवाइयों में, सिर्फ इसलिए कि उसे पता है कि उसे दोषी ठहराने वाला कोई नहीं।

इस शैतानी गणित के तमाम रूप असग़र वजाहत हमें दिखाते हैं। ‘ लड़कियां’, ‘ तेरह सौ साल का बेबी कैमिल’, ‘ मेरे मौला’, ‘ जिम्मेवारी’… ढेर सारे किस्से लेखक के पास हैं और हरेक में दर्द सान्द्र होता जाता है। लेखक सिर्फ एक चूक कर जाता है – वह दर्द के इस पूरे विन्यास में खुद ‘ आउटसाइडर’ हो उठता है। यह यदि एक अच्छे कहानीकार की पहचान है तो एक सन्देह का प्रस्थान बिन्दु भी कि क्या रचनाकार का वास्तविक जीवन वैसा है? यदि वह एक ओर ‘ जख्म’ के गोष्ठीबाजों और साम्प्रदायिकता विरोधियों का मखौल उड़ाता है और दूसरी ओर खुद उसके पास मुख्तार के सवालों के जवाब में सिर्फ खीझ बची रह जाती है, तो सवाल मौजूं है। यह वही सवाल है जो ज्ञान के सेब से उपजा था। फर्क सिर्फ इतना है कि देशकाल बदल गये हैं। हालात बदल गये हैं। द्वन्द्व किसी सनातन तत्व की भांति अब भी बाकी है।

सियासी मियार की रीपोर्ट