लघुकथा : उपकार
-वंदना पुणतांबेकर-

आश्रम में अपनी बची जिंदगी गुजार रही केतकी बगीचे में बैठी समय व्यतीत कर रही थी। आंखों का धुंधलापन अब उनकी कमजोरी बन गया था। उसने धुंधली आंखों से देखा कि मुन्नी बगीचे में पानी देते हुए रो रही थी।
स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। फिर भी उसे समझ आ गया।
वह मुन्नी को आवाज देकर बोली- “मुन्नी इधर आओ, क्यों रो रही हो…?
“दीदी,मेरी बेटी बीमार है,बुखार से तपे है,सेठ ना एडवांस देत, ना छुट्टी,…!
“कोई बात नहीं,सुन तो जरा इधर आ।
कहते हुए उसे अपने पास बुलाया और अपने हाथ में पहनी सोने की अंगूठी उतार कर उसे देते हुए बोली – “यह ले,जाकर बेटी का इलाज करवा, मैं तो अपने परिवार को कोरोना में खो चुकी हूं,लेकिन तुम अपने परिवार को संभालो।
कहते हुए उसके हाथ से पानी का पाइप लेकर बगीचे में पानी डालने लगी।
मुन्नी केतकी के पैरों पर झुक गई। उसकी आंखों से आंसुओं की बारिश होने लगी।
केतकी उसे धुंधली आंखों से देखते हुए बोली- “अब मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, कितने दिनों की मेहमान हूं क्या पता…! तुझे तो अभी बहुत जीना है,परिवार भी देखना है। मैं भी एक मां थी तेरी मजबूरी समझती हूं।
उसकी आंखें धुंधली जरूर हो गई थी लेकिन उसके मन की आंखों की चमक देख मुन्नी कृतज्ञ हो गई।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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