मेरा..
-हेमंत कुकरेती-

यह दिमाग मेरा ही है
जो सोच रहा है
इस पेन को पकड़े हुए मेरी ही उंगलियां हैं
यह कागज कुर्सी बनने से बच गये पेड़ का है
अब मेरी हथेलियों के तले है
मैं कह सकता हूं मेरा ही है अब
किसी को क्या गर्ज है कि
मेरे कहे को कविता कहे
मुझे क्या पड़ी है ऐसा बनने की
कि मेरा जीना न सही
कविता लगे मेरी मृत्यु
कहीं से भी देखो कविता भर है जीवन
मेर पास शब्द हैं
भरपूर लिखने के बाद भी
प्रेमपत्रों में काटकर नहीं फेंकी
मैंने अपनी जीभ
किसके डराये से डर गया हूं कि
कहता फिर रहा हूं यह है कविता
मेरी है ये मैं हूं यह
मुझे अन्य पुरुष के
अप्रत्यक्ष कथन की क्यों पड़ रही है जरूरत
अभी तक तो मैं अपनी नींद सोता आया हूं।।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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