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परेशानियों से घबराने की बजाए उनका सामना करना सीखें..

परेशानियों से घबराने की बजाए उनका सामना करना सीखें..

समाज में कोई दुखी की भूमिका में है तो कोई सुखी की। कोई राजा की भूमिका में है और कोई प्रजा की भूमिका में काम कर रहा है। सभी अभिनय की भूमिकाएं हैं। कुछ भी स्थायी नहीं है। शाश्वत सत्य नहीं है। इसलिए मनुष्य याद रखे कि ईश्वर ने उसे जिस भूमिका में उतारा है, वह उसी भूमिका को यथोचित रूप में अभिव्यक्त करता जा रहा है, इससे अधिक कुछ नहीं। अगर कोई विपत्ति आती है, किसी भयावह परिस्थिति से ही गुजरना पड़े तो भी उसके मन में समानता का भाव नष्ट नहीं होना चाहिए। यदि वह समझेगा कि यह परमपुरुष के नाटक का खेल है तो इससे घबराएगा नहीं। मनुष्य घबराएगा नहीं तो वह अकेला पड़ने में दिक्कत महसूस नहीं करेगा। हमें नाटक का जो किरदार मिला है, वही सही ढंग से करते जाएंगे। इस मनोभाव को लेकर अगर मनुष्य चलता है तो वह मनुष्य सर्वजयी होगा। वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में ठोकर नहीं खाएगा, वह आगे ही बढ़ता जाएगा।

मनुष्य कहां आगे बढ़ेगा? जहां से आया है, उसी ओर। आगे बढ़ने की यह क्रिया संघर्ष के माध्यम से ही होती है। जो मनुष्य संघर्ष विमुख है उसका स्थान समाज में नहीं है। कारण जीवन का धर्म, अस्तित्व का धर्म वह खो बैठा है। समाज में रहना अब उसके लिए उचित नहीं है। उसके विरुद्ध संग्राम करते हुए तुम लड़ते चल रहे हो, आगे बढ़ रहे हो। लेकिन यही काफी नहीं है। मानस भूमि में आगे बढ़ना चाहते हो। कितनी दुर्बलताएं, कितनी संकीर्णताएं, कितना मोह तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं। नागपाश की तरह वे तुमको मार देना चाहते हैं। तुम्हें इसके विरुद्ध संग्राम करते हुए आगे बढ़ना होगा। इस संग्राम से बचने की कोशिश व्यर्थ है।

असंख्य भाव-जड़ताएं तुम्हें जकड़ना चाहती हैं। पूर्वजों ने गलती की है। कभी-कभी हम उसी को जकड़कर पकड़ना चाहते हैं। इन बाधाओं के सम्मुख हार मान लेने से कार्य संभव नहीं हो जाएगा। उसे तोड़कर अपना पथ बनाते चलो, यही जीवन का धर्म है। इस प्रकार मनुष्य अग्रसर हो रहा है और होता रहेगा।

तुम्हें मानव शरीर मिला है। सर्वतोभाव से मानव की भूमिका निभाते चलो। यही तुम्हारा धर्म है। इस प्रकार मानसभूमि के विरुद्ध संग्राम करते हुए ही मनुष्य अग्रसर होता है। आगे चलते-चलते वह एक दिन मानसातीत लोक में प्रतिष्ठित हो पाएगा। वह मानसातीत सत्ता ही वास्तव में परमपुरुष है।

अब परमपुरुष की ओर अग्रसर होने के लिए उसे वास्तव जगत में इस प्रकार के समाज का निर्माण करना होगा जहां वह किसी प्रकार की बाधा या विपत्ति के सम्मुख हार न माने। जो मानव-मानव में कोई भेद नहीं मानेगा अथवा अब तक समाज में जिन भेदों को स्थापित किया गया है, उन्हें दूर फेंक देगा। मानसिक भूमि पर मन को इस प्रकार तैयार करना पड़ेगा कि भाव जड़ता को कोई स्थान न मिले। हम भाव जड़ता को सहन नहीं करेंगे। हमारे पूर्व पुरुषों ने यदि कोई भूल की है तो उसे ही अंधरूप से स्वीकार करूंगा, मैं ऐसा मूढ़ नहीं हूं। पूर्व पुरुष भूल कर सकते हैं, वर्तमान पुरुष भी भूल कर सकते हैं, उत्तर पुरुष भी भूल कर सकते हैं। पूर्व पुरुष हमारे लिए श्रद्धेय हैं, पर भूलों की पुनरावृत्ति हो ऐसी बात नहीं होनी चाहिए। धर्म सबके लिए ही है और यह आनंद का पथ है।

परेशानियों से घबराने की बजाए उनका सामना करना सीखें

-श्री श्री आनन्दमूर्ति-

समाज में कोई दुखी की भूमिका में है तो कोई सुखी की। कोई राजा की भूमिका में है और कोई प्रजा की भूमिका में काम कर रहा है। सभी अभिनय की भूमिकाएं हैं। कुछ भी स्थायी नहीं है। शाश्वत सत्य नहीं है। इसलिए मनुष्य याद रखे कि ईश्वर ने उसे जिस भूमिका में उतारा है, वह उसी भूमिका को यथोचित रूप में अभिव्यक्त करता जा रहा है, इससे अधिक कुछ नहीं। अगर कोई विपत्ति आती है, किसी भयावह परिस्थिति से ही गुजरना पड़े तो भी उसके मन में समानता का भाव नष्ट नहीं होना चाहिए। यदि वह समझेगा कि यह परमपुरुष के नाटक का खेल है तो इससे घबराएगा नहीं। मनुष्य घबराएगा नहीं तो वह अकेला पड़ने में दिक्कत महसूस नहीं करेगा। हमें नाटक का जो किरदार मिला है, वही सही ढंग से करते जाएंगे। इस मनोभाव को लेकर अगर मनुष्य चलता है तो वह मनुष्य सर्वजयी होगा। वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में ठोकर नहीं खाएगा, वह आगे ही बढ़ता जाएगा।

मनुष्य कहां आगे बढ़ेगा? जहां से आया है, उसी ओर। आगे बढ़ने की यह क्रिया संघर्ष के माध्यम से ही होती है। जो मनुष्य संघर्ष विमुख है उसका स्थान समाज में नहीं है। कारण जीवन का धर्म, अस्तित्व का धर्म वह खो बैठा है। समाज में रहना अब उसके लिए उचित नहीं है। उसके विरुद्ध संग्राम करते हुए तुम लड़ते चल रहे हो, आगे बढ़ रहे हो। लेकिन यही काफी नहीं है। मानस भूमि में आगे बढ़ना चाहते हो। कितनी दुर्बलताएं, कितनी संकीर्णताएं, कितना मोह तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं। नागपाश की तरह वे तुमको मार देना चाहते हैं। तुम्हें इसके विरुद्ध संग्राम करते हुए आगे बढ़ना होगा। इस संग्राम से बचने की कोशिश व्यर्थ है।

असंख्य भाव-जड़ताएं तुम्हें जकड़ना चाहती हैं। पूर्वजों ने गलती की है। कभी-कभी हम उसी को जकड़कर पकड़ना चाहते हैं। इन बाधाओं के सम्मुख हार मान लेने से कार्य संभव नहीं हो जाएगा। उसे तोड़कर अपना पथ बनाते चलो, यही जीवन का धर्म है। इस प्रकार मनुष्य अग्रसर हो रहा है और होता रहेगा।

तुम्हें मानव शरीर मिला है। सर्वतोभाव से मानव की भूमिका निभाते चलो। यही तुम्हारा धर्म है। इस प्रकार मानसभूमि के विरुद्ध संग्राम करते हुए ही मनुष्य अग्रसर होता है। आगे चलते-चलते वह एक दिन मानसातीत लोक में प्रतिष्ठित हो पाएगा। वह मानसातीत सत्ता ही वास्तव में परमपुरुष है।

अब परमपुरुष की ओर अग्रसर होने के लिए उसे वास्तव जगत में इस प्रकार के समाज का निर्माण करना होगा जहां वह किसी प्रकार की बाधा या विपत्ति के सम्मुख हार न माने। जो मानव-मानव में कोई भेद नहीं मानेगा अथवा अब तक समाज में जिन भेदों को स्थापित किया गया है, उन्हें दूर फेंक देगा। मानसिक भूमि पर मन को इस प्रकार तैयार करना पड़ेगा कि भाव जड़ता को कोई स्थान न मिले। हम भाव जड़ता को सहन नहीं करेंगे। हमारे पूर्व पुरुषों ने यदि कोई भूल की है तो उसे ही अंधरूप से स्वीकार करूंगा, मैं ऐसा मूढ़ नहीं हूं। पूर्व पुरुष भूल कर सकते हैं, वर्तमान पुरुष भी भूल कर सकते हैं, उत्तर पुरुष भी भूल कर सकते हैं। पूर्व पुरुष हमारे लिए श्रद्धेय हैं, पर भूलों की पुनरावृत्ति हो ऐसी बात नहीं होनी चाहिए। धर्म सबके लिए ही है और यह आनंद का पथ है।

सियासी मीयार की रिपोर्ट