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भाजपा की राम रेल के रस्ते में कौन बाधक?

भाजपा की राम रेल के रस्ते में कौन बाधक?

-राकेश अचल-

भारत जैसे महान देश में राजनीति के अलावा कुछ और नहीं हो रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा ने देश में धर्म की राजनीति शुरू की तो उसके जबाब में इसी तरह की राजनीति दूसरे राजनीतक दलों ने भी शुरू कर दी। आज देश में हर राजनेता अपने आपको सबसे बड़ा धर्मप्रेमी बताने की होड़ में शामिल हो गया है,लेकिन देश की सरहद पर मंडराते खतरों की परवाह किसी को नहीं है। कभी-कभी लगता है कि इस सबके पीछे कोई सोची-समझी साजिश तो नहीं है।
भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और फिर उसमें 22 जनवरी को रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा को राजनीति की सीढ़ी बनाया तो गठबंधनों की राजनीति से दूर रहने वाले बीजू जनता दल की ओडिशा सरकार ने पुरी में जय -जगन्नाथ परियोजना जनता के सामने परोस दी। दो दशक से अंगद के पैर की तरह सत्ता में बैठी बीजद ने ओडिशा की जनता को राम के जादू से बचाने के लिए भगवान जगन्नाथ को 800 करोड़ की परियोजना लाकर दी है। बीजद को आशंका है कि अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए देशव्यापी रामधुन कर रही भाजपा लोकसभा चुनाव में इस बार खेला करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है। लोकसभा को ओडिशा 21 सीटें देता है। अभी यहां से बीजद के पास 12 सीटें हैं। भाजपा ने बीजद की जमीन खिसकाने के लिए इस बार न केवल ओडिशा से श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर राज्य के आदिवासियों को मोहित करने की कोशिश की है बल्कि अपना आधार बढ़ाने के लिए दूसरे साम,दाम,धनद और भेद को भी अपनाया है।
भाजपा की राम रेल को आगे बढ़ने से रोकने के लिए 42 सीटों वाला बंगाल भी घेराबंदी कर रहा है। राज्य की मुख्यमंत्री 22 जनवरी को सम्प्रति यात्रा निकाल रहीं हैं। इस यात्रा को रोकने के लिए भाजपा समर्थक हाईकोर्ट तक गए लेकिन कोर्ट ने इस यात्रा को रोकने से इंकार कर दिया। भाजपा के देशव्यापी अखंड साम्राज्य की स्थापना में बंगाल और यहां की सरकार सबसे बड़ी बाधा है। पिछले आम चुनाव में भाजपा को बंगाल ने लोकसभा की 18 सीटें दी थीं। मोदी और भाजपा के निशाने पर बंगाल के बाद महाराष्ट्र आता है। यहां पिछले चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 41 सीटें जीतीं थी। इस बार यहां भाजपा की पुरानी सहयोगी शिवसेना हालाँकि दो फाड़ हो चुकी है लेकिन आईएनडीआईए गठबंधन पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूत और आक्रामक दिखाई दे रहा है,इसलिए भाजपा को महाराष्ट्र में अपनी 41 सीटों को बचाये रखने के लिए एड़ी-छोटी का जोर लगना पड़ रहा है। खुद प्रधानमंत्री जी ने महाराष्ट्र की कमान सम्हाल ली है। वे लगातार महारष्ट्र के चुनावी दौरे कर वहां योजनाओं की बरसात कर रहे हैं। यहाँ भी राम रेल के लिए रास्ता साफ़ नजर नहीं आ रहा है।
भाजपा की राम रेल इस बार बिहार में भी अटकती दिखाई दे रही है क्योंकि इस बार लोकसभा चुनाव के समय बिहार में जनता दल[ यू ] राजद के साथ है। पिछले चुनाव में जेडीयू के साथ चुनाव लड़ी भाजपा को यहां से 17 और जेडीयू ने 16 सीटें जीतीं थीं। कांग्रेस को केवल एक सीट मिली थी। राजद को एक भी सीट नहीं मिली थी। इस बार अभी तक जेडीयू,राजद और कांग्रेस एक साथ हैं। 22 जनवरी के बाद भी यदि जेडीयू ने पाला न बदला तो भाजपा को अपनी 17 सीटें बचा पाना सम्भव नहीं होगा। इसलिए भाजपा अभी भी जेडीयू के नीतीश कुमार को तोड़ने में लगी हुई है। नीतीश का रुख भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
असली बात ये है कि भारत में अगला चुनाव क्या भगवानों के सहारे धर्म के मुद्दे पर ही लड़ा जायेगा। इसमें जनता के मुद्दों को कोई जगह नहीं होगी ? देश को तिरंगे से ज्यादा भगवा ध्वजों से आच्छादित कर देश की फिजा बदली जाएगी ? क्या देश की राजनीती में जप-तप का असर बढ़ेगा ? या फिर सत्तारूढ़ भाजपा जमीन खिसकते हुए देखकर ईरान की ही तरह अपने पड़ौसी पाकिस्तान के खिलाफ कोई स्ट्राइक कर देशप्रेम का नया ज्वर पैदा करेगी? कुल मिलाकर भारत के लोकतंत्र के लिए लक्षण शुभ नहीं दिखाई दे रहे हैं। देश में धर्म और लोकतंत्र,धर्म और धर्म निरपेक्षता आमने-सामने है। जनता भर्मित की जा चुकी है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि उसे आभासी राम राज की और जाना चाहिए या वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की और? राम राज का अर्थ अयोध्या वाले राम के राज से नहीं बल्कि एक भ्र्ष्टाचार,भाई-भतीजावाद और धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था से है। धर्म का नशा ज्यादा देर नहीं टिकता,क्योंकि आदमी को नशे के बाद भी भूख तो लगती ही है।

सियासी मियार की रीपोर्ट