Sunday , September 22 2024

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं..

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं..

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूं ही कभी लब खोले हैं
पहले ‘फिराक’ को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औकात
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आंखों पर हम रातों को रो ले हैं
फितरत मेरी इश्क-ओ-मोहब्बत किस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलमे जुम्बिश-ए-मिजगां जब फित्ने पर तोले हैं
उन रातों को हरीम-ए-नाज का इक आलम होये है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उंगलियां बंद-ए-कबा जब खोले हैं
ग़म का फसाना सुनने वालो आखिर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी जरा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-फिराक
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं।।

सियासी मियार की रीपोर्ट