अपने ही बिखरे हुए…
-हरीश कुमार-
अपने ही बिखरे हुए
प्रतिबिम्ब को खोजता हूं
कभी पुस्तकें
कभी बाजार
कुछ सिगरेट के टुकड़े
कुछ कोने अंधेरे स
मयनोशी से आच्छादित
कभी कुछ वस्तुएं बेमानी
शायद उपजा सके कोई
मनोरंजक सी कहानी
हिसाब किताब की मोटी
गर्द खाई फाइलों के बीच
सुरक्षा के चंद घेरे लिए
तुन्दीयल अफसरों के प्रशंसा पत्र
सब विडंबनाओं का हुजूम समेटे है
यह शायद त्रासदी होगी अगर
बचे खुचे सार्थक प्रतिबिम्ब भी
गायब हो जाये और मिट जाए
एक सार्थक चेहरे की हर सम्भावना।।
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