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समीक्षा : मानव पीड़ा का अद्भुत दस्तावेज है-आका बदल रहें हैं..

समीक्षा : मानव पीड़ा का अद्भुत दस्तावेज है-आका बदल रहें हैं..

अहमदाबाद गुजरात से हिन्दी ऊर्दू ग़ज़ल के बड़े शायर श्री विजय तिवारी के आका बदल रहें हैं ग़ज़ल संग्रह का द्वितीय संस्करण प्रकाशन की दृष्टि से बहुत आकर्षक बन पड़ा है।
121 पृष्ठ का आद्योपांत अवलोकन करने के उपरान्त ऐसा लगा कि कुछ शब्द अवश्य लिखने चाहिए।
श्री विजय तिवारी जी की गज़लों का मूल कथ्य मानवतावादी है।
वर्तमान व्यवस्था पर कटाक्ष किया है,भारतीय संस्कृति के क्षरण पर अफ़सोस जाहिर किया है। गिरते मानव मूल्यों पर चिंतित प्रतीत हुए, अंतिम व्यक्ति के पैरोकार बनकर सामने आये हैं। पीड़ा का दंश लिखा है, वेदना को स्वर मिला है। विसंगतियों पर प्रहार करने से भी नहीं चूके है।सामाजिक विद्रूपताओं को रेखांकित किया है। विडम्बना पर प्रहार करने से गुरेज़ नहीं किया है।
लेखक के धर्म को बखूबी निभाया है। ग़ज़ल में इश्क हक़ीक़ी से निकलकर दुष्यंत कुमार की परिपाटी को आगे बढ़ाने में समर्थ हुए है।
हिंदुस्तान की तहज़ीब को जिंदा रखने के लिए मुकम्मल प्रयास किये है। शब्दों के बाजीगर के रूप में श्री तिवारी जी नए रूप में अवतरित हुए हैं। ग़ज़ल के पैरामीटर में बंधे हुए स्वर हैं। वास्तव में युगीन लेखन कर श्लाघनीय कार्य किया है ।इस ग़ज़ल संग्रह की अंतर्यात्रा में जो मैंने पाया उसे आप सभी के समक्ष रखने का लघु प्रयास किया है।
शायर विजय तिवारी ने अपने ग़ज़ल संग्रह का प्रारम्भ माँ शारदा की वन्दना से किया है उनके द्वारा लिखी गयी पंक्तियां वसुधैव कुटुम्ब कम के लिये हैं-

हे माँ मुझे वरदान दे।
जग में अपरिमित ज्ञान दे।
दुःख दर्द सबके हर सकूँ,
ऐसा अमर इक गान दे।

ग़ज़ल में इश्क़ की बात न हो तो ग़ज़ल का महत्व ही क्या लेकिन ग़ज़लकार ने अपनी गज़लों में इस विषय को कम छुआ है। पृष्ठ 23 की ग़ज़ल के कुछ शेर दृष्टव्य हैं-

मैं चेहरे को उनके कमल लिख रहा हूँ।
वदन को मैं स्वर्णिम महल लिख रहा हूँ।
दिलों का मिलन था औ बारिश का मौसम,
वो भीगा हुआ इक पल लिख रहा हूँ।

पृष्ठ 31 पर भी देख लीजिए-

वो कनखियों से देखके जुल्फों का झटकना,
उनकी हरिक अदा है जवां आज बेहिसाब।
कुछ बात जरूर है तीखे नज़र के तीर,
भौहें बनी हुई हैं कमां आज बेहिसाब।

भारत की युवा पीढ़ी का आव्हान करते हुए शायर के स्वर पृष्ठ 16 पर अंकित कुछ इस प्रकार हो जाते हैं-

बागडोर अब देश की तू थाम ले ऐ नौजवां,
बूढ़ी उँगली को पकड़कर, तू चलेगा कब तलक।
मार पंजा शेर सा भाषा यही समझेगा वो,
भैंस के आगे यूँ ही गीता पढ़ेगा कब तलक।

भैस के आगे बीन बजाना, जैसे मुहाबरे को नया प्रतिमान दिया है।
अपनी प्राचीन कहावतों को भी नए अंदाज़ में कहने में सिद्धहस्त है श्री विजय तिवारी जी, जो सभ्यता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हैं।
पृष्ठ 82 की ग़ज़ल के अशआर-

बदनज़र थी इसलिए आँखों में जाले हो गये।
झूठ वो बोला तभी तो मुँह में छाले हो गये।
पश्चिमी तहजीब की इतनी तरक्की हो गई,
तन पे कपड़े कम हुए औ मन के काले हो गये।

रामराज्य का सपना दिखाने वालों पर कटाक्ष किया है पृष्ठ 29 पर-

लायेंगे रामराज्य यहाँ फिर से भेड़िए,
भेड़ मगन है सुनके समाचार इन दिनों।

वर्तमान व्यवस्था में दोहरी मानसिकता के लोग हैं । दिखावे की जिंदगी जी रहे हैं। अपने मानबिंदु को भूल गए हैं। पृष्ठ 37 के कुछ शेर देख लीजिए-

चारों तरफ हैं कैक्टस,काँटे बबूल ही,
उस बागबां ने फूल इक खिलने नहीं दिया।
वो नीम था कडवा मगर था काम का बहुत,
गमलों के इस युग ने उसे बढ़ने नहीं दिया।

जब व्यक्ति के जीवन में लगातार दिक्कतें आयीं हो तो वह उसका आदी हो जाता है किसी घटना विशेष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। एक शेर 17वें पेज से हाजिर है-

अभी तक हादसों में जिया हूँ इसीलिए ही तो,
किसी घटना से मेरे दिल को अब धक्का नहीं लगता।

कवि शायर का हमेशा प्रयास रहता है कि अपने वतन में इंसानियत जिंदा रहनी चाहिए।पृष्ठ 99 से एक मतला एक शेर उठाकर लायें हैं देख लीजिए-

किसी के ज़ख्म पर तू भी कभी मरहम लगाके देख,
जमाने को रुलाया है बहुत अब गुदगुदाके देख।
निराशा के भंवर में डूबते उतराते चेहरों को,
नया जीवन मिलेगा आस का संबल बंधाके देख।

पृष्ठ 47 की उस ग़ज़ल के कुछ अशआर प्रस्तुत हैं जिसके नाम पर पुस्तक का नामकरण हुआ है-

आज़ाद हो गये हैं इस भ्रम में पल रहे हैं।
हम तो गुलाम ही है आका बदल रहे हैं।
अलगाव के विषैले पौधे लगा गये वो,
है परवरिश हमारी वो खूब पल रहे हैं।

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं शायर तभी उनको ऐसी ग़ज़ल लिखने को बाध्य होना पड़ा।
पृष्ठ13 पर पर सामाजिक ताने बाने का सच लिख रहे हैं श्री विजय तिवारी जी-

फिर इक सुहाना सपना हमको दिखा रहे हैं ।
सुई की नोंक पर वो हाथी बैठा रहें हैं।
जीवन के खण्डहरों की ईंट गिर रही है,
ऐसे समय में भी वो मल्हार गा रहे हैं।

ये उसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है, जब रोम जल रहा था तब नीरो वंशी बजा रहा था।

भावना के हाथ काटे स्वार्थ की तलवार से,
ज़ख्म इक दूजे के कैसे कौन अब सहलायेगा।
सिद्धियां पाकर के भी जो लाँघता सीमा नहीं,
सख़्श रत्नाकर वही इस विश्व में कहलायेगा।
उपरोक्त दो शेर पृष्ठ 102 से व्यक्तिवादी व्यवस्था के लिये लिखे हैं शायर ने।
कहने को तो कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। लेकिन कहीं न कहीं गिरावट जरूर है जिसे हर कोई महसूस करता है। शायर भी बहुत खुश नहीं है। पृष्ठ 24 पर उसके तेवर देखे जा सकते हैं-

कातिल बना है मुंसिफ तो फ़ैसला क्या होगा,
तुहमत लगाके मुझ पर मेरा।बयान लेंगे।
मैं जानता नहीं था रणभूमि में गुरुजन ,
मुझसे ही छीन मेरा तीरो कमान लेंगे।

श्री विजय तिवारी ने अपनी गज़लों को रोज़मर्रा के जीवन से उठाया है। कहने को बहुत सारे शेर के उद्धरण लिखे जा सकते हैं। लेकिन ये चुनिंदा शेर पाठक की जिज्ञासा को शांत नहीं कर सकते उन्हें आका बदल रहे हैं कृति को पढ़ना ही पड़ेगा। उक्त ग़ज़ल संग्रह न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहनीय भी हैं। शायर श्री विजय तिवारी का यह ग़ज़ल संग्रह एक नया मुकाम हासिल करें ऐसी शुभकामनाएं व्यक्त करता हूँ।

समीक्ष्य कृति : आका बदल रहे हैं (द्वितीय संस्करण)
पृष्ठ : 121
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन अहमदाबाद, गुजरात
समीक्षक : डॉ राजीव कुमार पाण्डेय

सियासी मियार की रीपोर्ट