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रविशंकर की कविताओं में सिर्फ भोगा हुआ सत्य बल्कि अनुभूत सत्य भी अभिव्यक्त हुआ है..

रविशंकर की कविताओं में सिर्फ भोगा हुआ सत्य बल्कि अनुभूत सत्य भी अभिव्यक्त हुआ है..

एक कवि के रूप में युवा कवि रविशंकर उपाध्याय का रचनाकाल बहुत बड़ा नहीं है, किन्तु कोई कवि बहुत लम्बे कालावधि और बृहद रचना-संसार से बड़ा नहीं होता अपनी। किसी भी रचनाकार की रचना उसे बड़ा बनाती है। एक कवि के तौर पर मौजूद रविशंकर उपाध्याय का काव्य-जगत और काव्य-संवेदना विस्तृत और उल्लेखनीय है। युवा कवियों के पहले काव्य-संकलन को सामने रख कर देखें तो रविशंकर उपाध्याय का काव्य संकलन ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ एक विशिष्ट पहचान रखता है। उनकी काव्य-दृष्टि आधुनिक होते हुए भी भारतीय काव्य-परम्परा से अविच्छिन्न है। हिंदी कवि केदारनाथ सिंह इन कविताओं को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “रविशंकर उपाध्याय की कविता में एक गहरी ऐन्द्रिकता और एक खास तरह की गीतात्मकता है।…इन कविताओं की एक अलग ढंग की स्वरलिपि मेरे मन में अब भी अंकित है।” असल में रविशंकर उपाध्याय का पूरा लेखन साहित्य, संस्कृति, कला, राजनीति, भाषा और समाज की विभिन्नताओं को दर्ज करता चलता है। इनकी कविताएँ समकालीन जीवन अनुभव व काव्यगत संवेदना के साथ विशिष्ट रंगरूप में अभिव्यक्त हुई हैं। जहाँ ज़माने भर का दुःख-दर्द, संघर्ष और यथार्थ के मूलभूत अंतर्विरोधों और शाश्वत प्रेम का सौहार्द मौजूद है।

रविशंकर उपाध्याय की कविताओं को सोचते हुए जो तीन आयाम स्पष्टतः सामने आते हैं, वह है— स्पष्ट राजनीतिक पक्षधरता, प्रेम और अपनी जड़ों के प्रति गहरी संलग्नता और कृतज्ञता। इन कविताओं की निष्पत्ति श्रम, करुणा और सौन्दर्य के रूप में अभिव्यंजित हुई है। नब्बे के दशक की कविता की लोक रुझान को रविशंकर उपाध्याय की गाँव से जुडी कविताएँ एक नये विस्तार और बनक में पेश करती है। इन कविताओं की भावभूमि और संरचना सर्वथा नवीन है। रविशंकर उपाध्याय की कविताओं का समय इक्कीसवीं सदी से आरम्भिक दशक का समय है। वे अपने समय के संत्रास और जटिलता को समझ रहे थे। वे पूँजी के बदले रूप और मनुष्य पर बाज़ार के अतिक्रमण को अपनी कविता में रेखांकित करते हैं— “इसी समय में एक आदमी/माउस और की-बोर्ड से खोलता है दरवाजा/और प्रवेश कर जाता है/एक दूसरी दुनिया में/वह लगाता है चक्कर गोल-गोल/तभी अचानक याद आती है/ कि अरे वह लॉटरी तो निकल चुकी होगी/अरे अब बाजार गरम हो चुका होगा/और वह उछलने लगता है सेंसेक्स की तरह/वह उछलता है तो कभी गिरता भी/गिरने को देख/पाने की भूख से बेचैन आदमी/खोने के भय से डूब जाता है/और जो खो चुका है सबकुछ/वह भय मुक्त हो/ खड़ा हो जाता है अपनी बुलंद आवाज के साथ”

रविशंकर उपाध्याय अपनी कविताओं में उनकी बुलंद आवाज के प्रति भी आशान्वित हैं जो ‘सबसे भले विमूढ़ जिन्हें न व्यापइ जगत गति’ हैं। वे अपनी कविताओं में उन अनुभूतियों के भोक्ता और प्रकाशक हैं जहाँ नये से नये दृश्य भी परिचित से प्रतीत होते हैं। वे पूर्व-निबद्ध सत्यों को सजग अनुभूतियों के आधार पर मनुष्य के हक़ में व्याख्या करते हैं। यह बगैर किसी योजना के विचार और भाव के सम्मिश्रण के सतत प्रवाह से पैदा हुआ है। यह ड्रैमेटिक मोनोलॉग नहीं बल्कि अपने समय की संलग्नता से उपजी व्याख्या है। तभी वे विचार और विचारधारा से लेकर ईश्वर तक की स्थितिओं का ठीक-ठीक अनुमान कर पाते हैं। वे कविता में कहने के नहीं बल्कि क्रियाशीलता के आग्रही हैं। “अब तो विचार भी लटक रहे हैं/ यह विचारधारा से मुक्ति का समय है/ यह परम्परा और आधुनिकता के बीच लटकने का समय है/ यह बंधन और मुक्ति के बीच/ लटकने का समय है/ यह गाँव और शहर के बीच/लटकने का समय है/ अब तो ईश्वर भी लटक रहा है/ कभी पकड़ने तो कभी छोड़ देने के बीच”

यह अनायास नहीं है कि रविशंकर उपाध्याय के कविता संकलन का नाम उम्मीद अब भी बाकी है। यह युवा आकांक्षाओं की उम्मीद नहीं जहाँ कामना का स्वर मौजूद हो। रविशंकर उपाध्याय अपनी परम्पराओं से टकराने और समकालीन यथार्थ से लोहा लेने वाले कवि हैं। उनकी कविताओं ने इक्कीसवीं सदी का महाकाव्य रचा तो वे उन भव्यताओं के विरुद्ध भी गई तो किसी भी तरह का घटाटोप रचती हैं। वे उन भेसबदलुओं की शिनाख्त भी करते हैं जो व्याघ्र और वाल्मीकि दोनों हैं। वे अपने समय की आलोचना में लहूलुहान भी हैं और वेध्य व निष्कवच भी। इस संग्रह की कविताएँ 2014 से पहले की हैं। आप इन कविताओं में समय की आहट को विकास रथ के घोड़े में देख सकते हैं। धार्मिक उन्माद के राजनीतिकरण की शिनाख्त भी रविशंकर उपाध्याय की राजनीतिक सजगता का स्वयंसिद्ध प्रमाण है।

रविशंकर उपाध्याय की कविताओं में प्रेम और स्त्री एक महत्वपूर्ण उपादान है। इन कविताओं की स्त्री कमतर नहीं बल्कि मनुष्य संबंधों की जैविक सहयात्री है। वे स्त्री को मनुष्यता के सम्पूर्ण इकाई में देखने के पक्षधर हैं। वे बाजार के उस अमानवीयता के खिलाफ हैं जहाँ स्त्री स्त्री नहीं वस्तु में तब्दील कर दी जाती है। कवि केदारनाथ सिंह जब इन कविताओं की ऐंद्रिकता को लक्षित करते हैं तो केवल प्रेम की कोमलता को नहीं देखते बल्कि उस स्त्री-दृष्टि को भी लक्षित करते हैं जहाँ से रविशंकर उपाध्याय की स्त्री विषयक कविताएँ अपना आकार ग्रहण करती हैं। प्रेम भी और मुक्ति भी ‘मानुष प्रेम भयऊ बैकुंठी’ है पर हाँ मुक्ति सांसारिक बन्धनों से परे किसी अलौकिक धाम पाने के अर्थ में नहीं बल्कि इसी संसार से जूझते, टकराते, मनुष्य होने की प्राथमिक शर्त पर संभव है। वे मनुष्य मुक्ति के आकांक्षी तो हैं किन्तु करुणा के प्राथमिक शर्तों पर।

इन कविताओं में युवा खीझ और ऊब भी है, कविताओं में प्रयुक्त अटकना, टूटना, निरीहता, कातरता, टकराहट. असमर्थ जैसे शब्दों का बार-बार आना सामाजिक अंतर्विरोधों से पलायन नहीं बल्कि उनका उत्खनन है। “जिस घास पर हमने बिताये थे कुछ पल/उसकी उष्णता/आज भी ताजा है/ मगर अफ़सोस कि इन्हें शब्द दे पाने में असमर्थ हूँ/ या कहीं ऐसा तो नहीं कि शब्द में सामर्थ्य ही नहीं है/उन्हें अर्थ दे पाने में” या “काश थोड़ी भी शर्म होती/इन जुल्फों में/ होठों पर तैरती नदी/आज उदास थी/ तुम्हारे चेहरे के आब में/डूबता रहा वर्ष भर/कि पंखुड़ियां थोड़ी और नम हो जातीं/सूख गए कुएँ, तालाब भी सुख गया/सूख रही नदी, सूख चुकी खरीफ/और अब रबी भी उसी राह पर”
रविशंकर अपनी कविताओं में अपने भूगोल से किसी भी क्षण अलग नहीं होते। इन कविताओं में कवि का न सिर्फ भोगा हुआ सत्य बल्कि अनुभूत सत्य भी अभिव्यक्त हुआ है। मानवीय संबंधों की सामूहिकता बगैर भौगोलिक हुए संभव नहीं है। वे अपने भूगोल को न सिर्फ नये सांचे में ढालते हैं बल्कि मिथकीय,ऐतिहासिक, समकालीन सन्दर्भों एवं प्रसंगों में भी व्याख्यायित करते हैं। प्रेम की चिंता भी भूगोल की चिंता के साथ संलग्न है। एक तरफ किसानी चिंता है तो दूसरी तरफ वैश्विक चिंता भी है। यही चिंताएं ही दरअसल एक कवि को बड़ा बनाती हैं। रविशंकर उपाध्याय की कविताओं में भूगोल की यह संलग्नता ‘बटलोई में खदकते चावल के स्वाद’ की तरह है। इसमें ताप भी है और स्वाद भी। इनकी कविताओं में कर्मनाशा सिर्फ मिथकीय वजहों से नहीं बल्कि भगौलिक कारणों से भी अभिव्यक्ति पाती है। “न अपनी जमीन का एहसास है/और न ही अपनी छत का अधिकार/ विश्वामित्र के अहंकार/और देवताओं के नकार के बीच/ दन्तकथाओं में/आज भी लटक रहा है त्रिशंकु/जिसके लार से बह रही है कर्मनाशा/आज हर कोई लटक रहा है/निर्वात में!”

ये कविताएँ समकालीन समय के विसंगतियों, भय, संत्रास और तनाव के बीच मनुष्यता के वैभव के लिए उम्मीद जगाती कविताएँ हैं। ये हमारे समय की जटिलताओं से जूझने का रसद बन जाती हैं। भले ही रविशंकर उपाध्याय को कविता के रंगमंच पर बहुत कम समय मिला किन्तु मात्रा में कम होने पर भी ये कविताएँ दीर्घकाल तक मनुष्यता की सहयात्री हैं। इन कविताओं की पठनीयता और संवाद सहज ही वह रागात्मक सम्बन्ध पा जाती है जिसके भरोसे यह मनुष्यता का पाथेय बन जाती हैं। इन कविताओं से गुजर कर जौक का वह शेर याद आता है—
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज नसीब ।
जौक यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा ।।

सियासी मियार की रीपोर्ट