प्यार एक खोई हुई ज़रूरी चिट्ठी
-वीरेन डंगवाल-

एक दिन चलते-चलते
यों ही ढुलक जाएगी गरदन
सबसे ज़्यादा दुख
सिर्फ़ चश्मे को होगा,
खो जाएगा उसका चेहरा
अपनी कमानियों से ब्रह्मांड को जैसे-तैसे थामे
वह भी चिमटा रहेगा मगर
कैसी ज़िंदगी जिए
अपने ही में गुत्थी रहे
कभी बंद हुए कभी खुले
कभी तमतमाए और दहाड़ने लगे
कभी म्याऊँ बोले
कभी हँसे, दुत्कारी हुई ख़ुशामदी हँसी
अक्सर रहे ख़ामोश ही
अपने बैठने के लिए जगह तलाशते घबराए हुए
अकेले
एक ठसाठस भरे दृश्यागार में
देखने गए थे
पर सोचते ही रहे कि दिखे भी
कैसी निकम्मी ज़िंदगी जिए।
हवा तो ख़ैर भरी ही है कुलीन केशों की गंध से
इस उत्तम वसंत में
मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार
खरखराते पत्तों में कोंपलों की ओट में
पूछते हैं पिछले दंगों में क़त्ल कर डाले गए लोग
अब तक जारी इस पशुता का अर्थ
कुछ भी नहीं किया गया
थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा
प्यार एक खोई हुई ज़रूरी चिट्ठी
जिसे ढूँढ़ते हुए उधेड़ दिया पूरा घर
फ़ुर्सत के दुर्लभ दिन में
विस्मृति क्षुद्रता का जघन्यतम हथियार
मूठ तक हृदय में धँसा हुआ
पछतावा!
सियासी मियार की रीपोर्ट
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