शबनम शर्मा की नई कविता…

मन
स्थिरता का नाम नहीं,
पल-पल कुलांचे भरता,
कभी इस पार
तो कभी उस पार,
पहुंच जाता,
अपनों के करीब,
दुश्मनों से दूर,
बना लेता अपनी जगह
अपने फैसले
अपने फासले,
इक अदृश्य डोर से बंधा,
कितने सब्जबाग देखता,
रूला देता अंखियन को
कभी ठहाकों में डूबा देता,
दिखाता वो, जिसकी
कल्पना न की थी,
डराता, सिहराता, हंसाता,
रूलाता, मनाता, रूठाता,
तो कभी किसी अंधेरे
में उकडू हो, बच्चे की
मानिद बैठ जाता ये
मन।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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