Friday , December 27 2024

दशहरा (12 अक्तूबर) पर विशेष : सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता का पर्व है दशहरा…

दशहरा (12 अक्तूबर) पर विशेष : सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता का पर्व है दशहरा…

-योगेश कुमार गोयल-

आश्विन शुक्ल दशमी को प्रतिवर्ष ‘विजयादशमी’ पर्व के रूप में मनाया जाता है, जिसे दशहरा भी कहा जाता है। दशहरा इस वर्ष उदया तिथि के अनुसार 12 अक्तूबर को मनाया जा रहा है। समस्त भारत में दशहरा भगवान श्रीराम द्वारा लंकापति रावण के वध के रूप में अर्थात् बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में तथा आदि शक्ति दुर्गा द्वारा महाबलशाली राक्षसों महिषासुर व चण्ड-मुण्ड का वध किए जाने के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय पाने के लिए इसी दिन प्रस्थान किया था। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि हिन्दू राजा अक्सर इसी दिन विजय के लिए प्रस्थान किया करते थे। इसी कारण इस पर्व को विजय के लिए प्रस्थान का दिन भी कहा जाता है और इसे क्षत्रियों का त्यौहार भी माना गया है। इस दिन अपराजिता देवी की पूजा भी होती है। मान्यता है कि सर्वप्रथम श्रीराम ने समुद्र तट पर शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ किया था और तत्पश्चात् दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान करते हुए विजय प्राप्त की थी। तभी से दशहरे को असत्य पर सत्य तथा अधर्म पर धर्म की जीत के पर्व के रूप में मनाया जा रहा है।
दो शब्दों दश तथा हरा से मिलकर बना है दशहरा। दश का अर्थ है दस तथा हरा का अर्थ है ले जाना। इस प्रकार दशहरे का मूल अर्थ है दस अवगुणों या बुराईयों को ले जाना यानी इस अवसर पर अपने भीतर के दस अवगुणों को खत्म करने का संकल्प लेना। दरअसल हर इंसान के भीतर रावण रूपी अनेक बुराईयां मौजूद होती हैं और सभी पर एक बार में विजय पाना संभव भी नहीं है, इसलिए दशहरे पर ऐसी ही कुछ बुराईयों का नाश करने का संकल्प लेकर इस पर्व की सार्थकता सुनिश्चित की जा सकती है। दशहरे को रावण पर राम की विजय अर्थात् आसुरी शक्तियों पर सात्विक शक्तियों की विजय तथा अन्याय पर न्याय की, बुराई पर अच्छाई की, असत्य पर सत्य की, दानवता पर मानवता की, अधर्म पर धर्म की, पाप पर पुण्य की और घृणा पर प्रेम की जीत के रूप में मनाया जाता है। दशहरे का धार्मिक के साथ सांस्कृतिक महत्व भी कम नहीं है। यह पर्व देश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय एकता का पर्व है। सही अर्थों में यह पर्व अपने भीतर छिपे दुर्गुणों रूपी रावण को मारकर तमाम अवगुणों पर विजय प्राप्त करने का शुभकाल है।
दशहरे के उत्सव का संबंध नवरात्रों से जोड़कर देखा जाता रहा है। शक्ति की उपायना का यह पर्व सनातन काल से ही शारदीय नवरात्र प्रतिपदा से शुरू होकर नवमी तक नौ तिथि, नौ नक्षत्र और नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ मनाया जाता है। माना जाता है कि नवरात्रों में देवी की शक्ति से दसों दिशाएं प्रभावित होती हैं और देवी दुर्गा की कृपा से ही दसों दिशाओं पर विजय प्राप्त होती है, इसलिए भी नवरात्रों के बाद आने वाली दशमी को ‘विजयादशमी’ कहा जाता है। नवरात्रों के नौ दिनों में हम देवी के नौ रूपों की पूजा करते हैं लेकिन ऐसा करते हुए हमें यह भी समझना चाहिए कि हमारे समाज में सभी नारियां दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती या काली का ही रूप हैं, इसलिए इन पर्वों की सार्थकता सही मायनों में तभी सिद्ध हो सकती है, जब हम अपने समाज में देवी स्वरूपा नारी को उचित मान-सम्मान दें, उसे गर्भ में ही मौत की नींद सुलाने से बचाएं, शिक्षित करके उन्हें उनका हक दिलाएं, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएं और सम्मानित जीवन जीने का अधिकार प्रदान करें।
शारदीय नवरात्रों का अहम अंग बनकर प्रतिवर्ष दुर्गोत्सव को पूर्णता प्रदान करता बुराई पर अच्छाई तथा असत्य पर सत्य की जीत को परिभाषित करता यह पावन पर्व हमें मानवीय मूल्यों के संरक्षण में सर्वत्र विजयी होने का संदेश देता है। मान्यता है कि आदि शक्ति दुर्गा ने दशहरे के ही दिन महाबलशाली असुर सम्राट महिषासुर का वध किया था। जब महिषासुर के अत्याचारों से भूलोक और देवलोक त्राहि-त्राहि कर उठे थे, तब आदि शक्ति मां दुर्गा ने 9 दिनों तक महिषासुर के साथ बहुत भयंकर युद्ध किया था और दसवें दिन उसका वध करते हुए उस पर विजय हासिल की थी। इन्हीं 9 दिनों को दुर्गा पूजा (नवरात्र) के रूप में एवं शक्ति संचय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है और महिषासुर पर आदि शक्ति मां दुर्गा की विजय वाले दसवें दिन को विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है। श्राद्धों के समाप्ति वाले दिन मिट्टी के किसी बर्तन में मिट्टी में जौ बोए जाने की परम्परा बहुत से क्षेत्रों में देखने को मिलती है। दशहरे के दिन तक जौ उगकर काफी बड़े हो जाते हैं, जिन्हें ‘ज्वारे’ कहा जाता है। मिट्टी के जिस बर्तन में जौ बोए जाते हैं, उसे स्त्री के गर्भ का प्रतीक माना गया है और ज्वारों को उसकी संतान। दशहरे के दिन लड़कियां अपने भाईयों की पगड़ी अथवा सिर पर ज्वारे रखती हैं और भाई उन्हें कोई उपहार देते हैं। सही मायनों में इस पर्व की सार्थकता तभी सुनिश्चित हो सकती है, जब हम इस अवसर पर आत्मचिंतन करते हुए अपने भीतर की बुराईयों रूपी रावण पर ध्यान केन्द्रित करते हुए उनका विनाश करने का प्रयास करें।
(लेखक 34 वर्षों से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)

सियासी मियार की रीपोर्ट