गन्दी बस्ती,..
-राघवेन्द्र कुमार-

अन्तःविचारों में उलझा
न जाने कब मैं
एक अजीब सी बस्ती में आ गया।
बस्ती बड़ी ही खुशनुमा
और रंगीन थी।
किन्तु वहां की हवा में
अनजान सी उदासी थी।
खुशबुएं वहां की
मदहोश कर रहीं थीं।
पर एहसास होता था
घोर बेचारगी का
टूटती सांसे जैसे
फसाने बना रही थीं।
गजरे और पान की दूकानों
एक ही साथ थीं।
मधुशालाएं जगह-जगह
प्यालों में लिए हाला थीं।
चमकती इमारतों में
दमकते हुए चेहरे थे।
मानो चिलमनों से
चांद निकल आए थे।
यहां अंधेरे को चीरकर नजरें
उजली चांदनी में मिलती हैं।
यही तो हैं वह बस्तियां
जो सभ्य समाज की
गन्दगी निगलती हैं।
शरीफों की निगाहों में
ये एक बदनाम बस्ती है।
शराफत किन्तु हर लम्हा
यहां हर ओर बिकती है।
पुरुषत्व की मैला
इसी बस्ती में साफ होती है।
खुद मैली होकर यह बस्ती
हर शय जिहाद करती है।
सियासत के फसादों से
बड़ी ही दूर यह बस्ती।
मुसलमान और हिन्दू में
कभी कोई भेद नहीं करती।
मगर क्यों लोग कहते हैं
इसे बदनाम सी बस्ती।
यहां तो तन मन लुटता है
ये खुशियां हैं मगर कैसी।
जो लुटता है वही काफिर,
सफेद चादर ओढ़े जानवर
इंसान कहा जाता है।
गंदगी साफ करने वाली
बस्तियों को यहां नाजायज
और बदनाम कहा जाता है।
ऐ खुदा जहां गरीबों की इज्जत
और इंसान की जान सस्ती है,
क्या वो नहीं बदनाम बस्ती है?
आखिर ऐसी रियाया को क्यों बनाया?
जिससे अच्छी तवायफों की बस्ती है।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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