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कहानी: आकाशदीप..

कहानी: आकाशदीप..

हिमावृत चोटियों की श्रेणी, अनन्त आकाश के नीचे क्षुब्ध समुद्र! उपत्यका की कन्दरा में, प्राकृतिक उद्यान में खड़े हुए युवक ने युवती से कहा-प्रिये!

प्रियतम! क्या होने वाला है?

देखो क्या होता है, कुछ चिन्ता नहीं-आसव तो है न?

क्यों प्रिय! इतना बड़ा खेल क्या यों ही नष्ट हो जायेगा?

यदि नष्ट न हो, खेल ज्यों-का-त्यों बना रहे तब तो वह बेकार हो जायेगा।

तब हृदय में अमर होने की कल्पना क्यों थी?

सुख-भोग-प्रलोभन के कारण।

क्या सृष्टि की चेष्टा मिथ्या थी?

मिथ्या थी या सत्य, नहीं कहा जा सकता-पर सर्ग प्रलय के लिए होता है, यह निस्सन्देह कहा जायगा, क्योंकि प्रलय भीएक सृष्टि है।

अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बड़ा उद्योग था-युवती ने निश्वास लेकर कहा।

यह तो मैं भी मानूंगा कि अपने अस्तित्व के लिए स्वयं आपको व्यय कर दिया।-युवक ने व्यंग्य से कहा।

युवती करुणाद्र्र हो गयी। युवक ने मन बदलने के लिए कहा-प्रिये! आसव ले आओ।

युवती स्फटिक-पात्र में आसव ले आयी। युवक पीने लगा।

सदा रक्षा करने पर भी यह उत्पात? युवती ने दीन होकर जिज्ञासा की।

तुम्हारे उपासकों ने भी कम अपव्यय नहीं किया। युवक ने सस्मित कहा।

ओह, प्रियतम! अब कहां चलें? युवती ने मान करके कहा।

कठोर होकर युवक ने कहा-अब कहां, यहीं से यह लीला देखेंगे।

सूर्य का अलात-चक्र के समान शून्य में भ्रमण, और उसके विस्तार का अग्नि-स्फुलिंग-वर्षा करते हुए आश्चर्य-संकोच! हिम-टीलों का नवीन महानदों के रूप में पलटना, भयानक ताप से शेष प्राणियों का पलटना! महाकापालिक के चिताग्नि-साधन का वीभत्स दृश्य! प्रचण्ड आलोक का अन्धकार!!!

युवक मणि-पीठ पर सुखासीन होकर आसव पान कर रहा है। युवती त्रस्त नेत्रों से इस भीषण व्यापार को देखते हुए भी नहीं देख रही है। जवाकुसुम सदृश और जगत् का तत्काल तरल पारद-समान रंग बदलना, भयानक होने पर भी युवक को स्पृहणीय था। वह सस्मित बोला-प्रिये! कैसा दृश्य है।

इसी का ध्यान करके कुछ लोगों ने आध्यात्मिकता का प्रचार किया था। युवती ने कहा।

बड़ी बुद्धिमत्ता थी! हंस कर युवक ने कहा। वह हंसी ग्रहगण की टक्कर के शब्द से भी कुछ ऊंची थी।

क्यों?

मरण के कठोर सत्य से बचने का बहाना या आड़।

प्रिय!ऐसा न कहो।

मोह के आकस्मिक अवलम्बऐसे ही होते हैं। युवक ने पात्र भरते हुए कहा।

इसे मैं नहीं मानूंगी। दृढ़ होकर युवती बोली।

सामने की जल-राशि आलोड़ित होने लगी। असंख्य जलस्तम्भ शून्य नापने को ऊंचे चढने लगे। कण-जाल से कुहासा फैला। भयानक ताप पर शीतलता हाथ फेरने लगी। युवती ने और भी साहस से कहा-क्या आध्यात्मिकता मोह है?

चैतनिक पदार्थों का ज्वार-भाटा है। परमाणुओं से ग्रथित प्राकृत नियन्त्रण-शैली काएक बिन्दु! अपना अस्तित्व बचाये रखने की आशा में मनोहर कल्पना कर लेता है। विदेह होकर विश्वात्मभाव की प्रत्याशा, इसी क्षुद्र अवयव में अन्तर्निहित अन्तःकरण यन्त्र का चमत्कार साहस है, जो स्वयं नश्वर उपादनों को साधन बनाकर अविनाशी होने का स्वप्न देखता है। देखो, इसी सारे जगत् के लय की लीला में तुम्हें इतना मोह हो गया?

प्रभञ्जन का प्रबल आक्रमण आरम्भ हुआ। महार्णव की आकाशमापक स्तम्भ लहरियां भग्न होकर भीषण गर्जन करने लगीं। कन्दरा के उद्यान का अक्षयवट लहरा उठा। प्रकाण्ड शाल-वृक्ष तृण की तरह उस भयंकर फूत्कार से शून्य में उड़ने लगे। दौड़ते हुए वारिद-वृन्द के समान विशाल शैल-शृंग आवर्त में पड़कर चक्र-भ्रमण करने लगे। उद्गीर्ण ज्वालामुखियों के लावे जल-राशि को जलाने लगे। मेघाच्छादित, निस्तेज, स्पृश्य, चन्द्रबिम्ब के समान सूर्यमण्डल महाकापालिक के पिये हुए पान-पात्र की तरह लुढकने लगा। भयंकर कम्प और घोर वृष्टि में ज्वालामुखी बिजली के समान विलीन होने लगे।

युवक ने अट्टहास करते हुए कहा-ऐसी बरसात काहे को मिलेगी!एक पात्र और।

युवती सहमकर पात्र भरती हुई बोली-मुझे अपने गले से लगा लो, बड़ा भय लगता है।

युवक ने कहा-तुम्हारा त्रस्त करुण अर्ध कटाक्ष विश्व-भर की मनोहर छोटी-सी आख्यायिका का सुख दे रहा है। हांएक…..

जाओ, तुम बड़े कठोर हो …..।

हमारी प्राचीनता और विश्व की रमणीयता ने तुम्हें सर्ग और प्रलय की अनादि लीला देखने के लिए उत्साहित किया था। अब उसका ताण्डव नृत्य देखो। तुम्हें भी अपनी कोमल कठोरता का बड़ा अभिमान था …..।

अभिमान ही होता, तो प्रयास करके तुमसे क्यों मिलती? जाने दो, तुम मेरे सर्वस्व हो। तुमसे अब यह मांगती हूं कि अब कुछ न मांगूं, चाहे इसके बदले मेरी समस्त कामना ले लो। युवती ने गले में हाथ डालकर कहा।

भयानक शीत, दूसरे क्षण असह्य ताप, वायु के प्रचण्ड झोंकों मेंएक के बाद दूसरे की अद्भुत परम्परा, घोर गर्जन, ऊपर कुहासा और वृष्टि, नीचे महार्णव के रूप में अनन्त द्रवराशि, पवन उन्चासों गतियों से समग्र पञ्चमहाभूतों को आलोड़ित कर उन्हें तरल परमाणुओं के रूप में परिवर्तित करने के लिए तुला हुआ है। अनन्त परमाणुमय शून्य मेंएक वट-वृक्ष केवलएक नुकीले शृंग के सहारे स्थित है। प्रभञ्जन के प्रचण्ड आघातों से सब अदृश्य है।एक डाल पर वही युवक और युवती! युवक के मुख-मण्डल के प्रकाश से ही आलोक है। युवती मूर्चि्छतप्राय है। वदन-मण्डल मात्र अस्पष्ट दिखाई दे रहा है। युवती सचेत होकर बोली-

प्रियतम!

क्या प्रिये?

नाथ! अब मैं तुमको पाऊंगी।

क्या अभी तक नहीं पाया था?

मैं अभी तक तुम्हें पहचान भी नहीं सकी थी। तुम क्या हो, आज बता दोगे?

क्या अपने को जान लिया थाय तुम्हारा क्या उद्देश्य था?

अब कुछ-कुछ जान रही हूंय जैसे मेरा अस्तित्व स्वप्न थाय आध्यात्मिकता का मोह थाय जो तुमसे भिन्न, स्वतन्त्र स्वरूप की कल्पना कर ली थी, वह अस्तित्व नहीं, विकृति थी। उद्देश्य की तो प्राप्ति हुआ ही चाहती है।

युवती का मुख-मण्डल अस्पष्ट प्रतिबिम्ब मात्र रह गया था-युवकएक रमणीय तेज-पुंज था।

तब और जानने की आवश्यकता नहीं, अब मिलना चाहती हो?

हूं अस्फुट शब्द का अन्तिम भाग प्रणव के समान गूंजने लगा!

आओ, यह प्रलय-रूपी तुम्हारा मिलन आनन्दमय हो। आओ।

अखण्ड शान्ति! आलोक!! आनन्द!!!

(हिंदीसमय डाॅट काॅम से साभार प्रकाशित)

सियासी मियार की रिपोर्ट