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विजय का सिक्का..

विजय का सिक्का..

प्राचीन जापान में शिंतों राज्य पर अचानक पड़ोस के एक ताकतवर राजा ने आक्रमण कर दिया। राजा के पास आक्रमणकारी के मुकाबले में बहुत कम सैनिक थे। शिंतो के मुट्ठी भर सैनिकों का मनोबल कुशल सेनापति नोबुनागा के समर्थ संचालन के कारण हमेशा पर्याप्त ऊंचा रहता था। किंतु इस बार शत्रु की सेना की स्वयं से दस गुनी संख्या देखी तो सैनिकों के मन में संशय जागने लगा। सेनापति नोबुनागा को भी किंचित शंका हुई किंतु फिर भी वह अपने मुट्ठी भर सैनिकों को लेकर युद्धभूमि की ओर कूच कर गया। रास्ते में जापानियों का एक बड़ा मंदिर पड़ता था, जहां की देवी बड़ी मान्य थी।

नोबुनागा ने मंदिर के द्वारा के पास पहुंचकर अपने सैनिकों को अचानक रोक दिया और कहा -प्यारे सैनिकों, मैं मंदिर के अंदर जाकर देवी से हमारी विजय के लिए प्रार्थना करूंगा। उसके पश्चात बाहर आकर सिक्का उछालूंगा। यदि वह चित्त गिरा तो हमारी जीत होगी और पट गिरा तो हम हार मानकर आत्मसमर्पण कर देंगे। सैनिक अपने सेनापति के कथन से प्रसन्न हुए। थोड़ी ही देर में सेनापति नोबुनागा मंदिर से बाहर आया और उसने अपनी जेब से एक सिक्का निकाला और उसे सबके सामने उछाल दिया। जमीन पर सिक्का गिरते ही सबने बड़ी उत्कंठा से देखा। चित्त हिस्सा ऊपर था। देखते ही सब सैनिक उत्साह और जोश से भर गए।

विजय की निश्चित आशा से हर सैनिक के कदम पूर्ण विश्वास के साथ उठने लगे। जमकर लड़ाई हुई। शिंतो के मुट्ठी भर सैनिकों ने आक्रमणकारी शत्रु को करारी हार दी। विजय श्री प्राप्त करके लौटते समय रास्ते में पड़ाव डाला गया। संध्या समय अपने तंबू में आराम करते हुए नोबुनागा से उसके अंगरक्षक ने कहा-मालिक भाग्य बहुत बलवान है। उसे कोई नहीं पलट सकता। हां भाई, तुम ठीक कहते हो। नोबुनागा ने अंगरक्षक से कहा और अपनी जेब से निकालकर वह सिक्का उसकी ओर कर दिया। अंगरक्षक ने उसने उलट-पलटकर देखा सिक्के के दोनों हिस्से चित्त थे। कोई हिस्सा पट नहीं था। विजय का यह सिक्का देखकर वह हतप्रभ रह गया।

सियासी मियार की रिपोर्ट