Sunday , September 22 2024

कोखज़ली..

कोखज़ली..

नवतेज सिंह

उसका पति दिन भर का हारा थका सो चुका था, पर उसकी आंखों में नींद नहीं आ रही थी। उसने कितनी ही करवटें लीं, अंगडाइयां लीं, कितनी ही बार खाट चरमराई। फिर उसने अपने सिर के नीचे से तकिया निकाल कर अपनी जांघ और घुटने के बीच दबा लिया। रूई का तकिया उसे किसी नन्हे बालक जैसा कोमल और चिकना सा लगा।

ढाई घड़ियां, ढाई पहर, ढाई दिन, ढाई साल… उसके कानों में साएं−साएं हो रही थी। जबसे मुहल्ले का कुत्ता बौखलाया था, सभी की ज़बान पर एक ही बात थी, ढाई घड़ियां, ढाई पहर, ढाई दिन या ढाई साल− कुछ पता नहीं कब यह कुत्ता किसे काट खाए। सारे दिन लड़के हो−हो करते लकड़ी लिए कुतिया के पीछे−पीछे लगे रहे थे, और दिन भर गली की औरतें खिड़कियों में ढाई−ढाई करती रहीं। और अब उसका पति थककर सो गया था, उसके कानों में अभी भी यही सांय−सांय हो रही थी।

और यह सांय−सांय लगातार ऐसी लग रही थी जैसे कोई बालक झुनझुना बजा रहा हो। अनजाने ही उसका बांया हाथ घुटने और जांघ के बीच दबे तकिये पर चला गया। फिर वह अपने कमरे में दूर की दीवार पर कुछ देखने लगी। उसके पति ने विवाह के छः महीने बाद किसी अखबार में से एक बच्चे की तस्वीर काट कर वहां टांग दी थी। और पांच साल से वह वहीं लगी हुई है। कभी−कभी तो जब उसका पति अनुराग रंजित होता तो वह तस्वीर की ओर इशारा करके बड़े लाड़ के साथ कहता, यह अच्छा है, न बड़ा होगा, न ऊधम करेगा, यहीं किलकारियां मारता हुआ खेलता रहेगा। वह स्वयं भी कभी−कभी इस तस्वीर को ऐसे पोंछती थी जैसे किसी बालक का मुंह धो रही हो। पर वह उसके कपड़े नहीं बदल सकती थी।… कई बार तो उसने उसके झबले भी सीने शुरू कर दिए थे।… एक बार तो वह इस तस्वीर को तोड़ डालने वाली थी कि बाहर से उसकी पड़ोसिन आ धमकी थी। और यह तस्वीर किलकारी मार के खेलते हुए बच्चे की तस्वीर, अभी उसके कमरे में लटक रही थी।… उसके कान सांय किये जा रहे थे, ढाई घड़ियां, ढाई पहर… उसके कान के पर्दे धम्−धम् बज रहे थे, ढाई दिन, ढाई साल!

बड़ी अंधेरी रात थी, काले कुत्ते सी अंधेरी! और कहीं−कहीं कोई दिया सफेद धब्बे की तरह टिमटिमा रहा था। फिर एक साल पहले, जब वह बच्ची थी और गुड़िया−गुड्डे खेला करती थी, तब ऐसी अंधेरी रातें अच्छी नहीं लगती थीं। ऐसी रातों में चोर-चोर नहीं खेला जा सकता था।

एक बार चोर-चोर खेलते हुए वह छिपी हुई थी कि आसो सुदान उसे घसीट कर अपने कमरे में ले गई थी। फिर उसने किवाड़ बंद करके कुण्डी लगा ली थी। सुदीन काली कलूटी थी उसके शरीर पर मांस नहीं था, छातियां ढीली हो के लटक गई थीं, अजीब उभरी−उभरी सी हड्डियां चमका करती थीं। फिर आसो−सुदीन कहने लगी, गांव में बौखलाए कुत्ते हपर−हपर कर रहे हैं, तुझे खा जाएंगे, तेरे भीतर कतूरे चिऊं−चिऊं करने लगेंगे, और तुझे… फिर अपनी लटाओं को उंगली से ऊपर संवार के कहने लगी थी, मैंने बीज अंदर छोड़ दिया था, अब इसमें बेर लगेंगे। फिर वह एकदम चुप हो गई थी और धीरे−धीरे उससे कहने लगी थी, पुच−पुच मुझसे डरती है… डर न बेटी, तू मेरी बेटी है, मेरी छिंदी रानी! और अचानक वह गरज पड़ी थी, कोख जली… कोखजली मैं… कोखजली तू! और कुण्डी खोलकर कोखजली, कोखजली बर्राती हुई आसो सुदीन बाहर अंधेरे में निकल गई थी।… आसो को उसके पति ने छोड़ दिया था, क्योंकि उसके कोई बाल बच्चा नहीं होता था। और सारे में यह मशहूर हो गया था कि वह जीभजली जो कुछ भी अच्छी बुरी बात मुंह से निकाल देती है वही सच्ची हो जाती है।… कोखजली कोखजली मैं… कोखजली तू!

और आज गलियों में बौखलाए कुत्ते डोल रहे थे, उगड़−उगड़, हपर−हपर करते। झाग गिराते, पूंछे सीधी किए, एक जगह भी नहीं रूक सकते… दौड़ते भागते रहे! जो भी सामने पड़ता नोच खाते। अगर किसी औरत को काट लेता तो उसके अंदर कतूरे चिऊं−चिऊं करने लगते। और पूरा दिन बीत गया था− पर उसने कोई भी बौखलाया कुत्ता नहीं देखा था, बौखलाया कुत्ता…

उसने अपने तकिये पर किसी जानवर के पंजे का भार महसूस किया। उसकी चादर फूल के समान उभरती हुई सी लगी। और उसे लगा जैसे उसके मुंह से झाग गिर गया हो। यह क्या था? झबड़ी कुतिया के से खुरदुरे−खुरदरे बाल और मुंह में झाग सा, और पीछे सीधी सी पूंछ, कड़ी सींक सी सख्त! बौखलाया हुआ कुत्ता… उसके गांव का बंता, उसके गीले होठ, उसकी अजीब सी ढोढ़ी… खुरदुरे−खुरदुरे बाल उसके मुंह पर सरक रहे थे और झाग के फेन भी बह रहे थे।… उसने उस अंधेरे में गौर से देखा, कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं हुआ था। तभी घड़ियाल ने नौ बजा दिये। कुछ ही देर में ढाई बज जाएंगे… ढाई घड़ियां… ढाई पहर… ढाई दिन…

उसने अपने मुंह पर आए बालों को पीछे फेंक दिया। कंघी किये भी कितने ही दिन हो गए थे। और आज उसके बाल बिलकुल आसो की लटाओं की तरह हो गए थे। उसे आसो की डरावनी आवाज इतने सालों के बाद भी सुनाई पड़ रही थी। मैंने अंदर बीज रखा था अब उसमें बेर लगेंगे।

दूसरी खाट पर उसका पति लेटा हुआ था। उसने अपने पति की ओर देखा। वह उसे एकटक ताकती रही… ताकती गई। वह उसी तरह पड़ा रहा, चादर में लिपटा हुआ अडोल−अचल।

बाहर बिजली चमक रही थी और पानी भी पड़ने लग गया था। उसके गांव के बंते को कभी कुत्ते ने काटा या तो पूरे ढाई साल बाद वह पानी लेकर आ रहा था कि जोर की वर्षा होने लगी, फिर बिजली भी चमकने लगी, और उसने अपने कपड़े फाड़ डाले थे। और वह गांव की ओर दौड़ पड़ा था… फिर लोगों ने उसे जंजीर में कस दिया था, ऊपर से पानी की मशक पर मशक छोड़ दी थी। बिजली चमकती रही और वह तड़फता−तड़फता…

ठंड अंदर आ रही थी, उसने खिड़की बंद कर दी और चादर में मुंह छिपा लिया। घुटने और जांघ के बीच पड़ा तकिया उसे फूलता हुआ सा लगा, वह और फूल रहा था। उसने अपने घुटने सीधे कर लिए, टांगे फैला लीं।… घरड़−घरड़, जैसे आसमान की छत पर दैत्य खाटें घसीट रहे थे।

कोखजली, कोखजली, मेरे लिए एक बालक भी नहीं जन सकी! पास की खाट पर पड़ा उसका पति बर्राने लगा!

सियासी मियार की रीपोर्ट